कई सवालों के साथ सम्पन्न हो गया 18वां राष्ट्रीय उर्दू पुस्तक मेला

कई सवालों के साथ सम्पन्न हो गया 18वां राष्ट्रीय उर्दू पुस्तक मेला

नई दिल्ली:

राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद द्वारा जामिया मिल्लिया इस्लामिया में 9 दिन तक चलने वाला 18वां राष्ट्रीय उर्दू पुस्तक मेला सम्पन हो गया है। इस मेले का मक़सद उर्दू किताबों से आम लोगों को रूबरू कराना था। मेले के आखिरी दिन कुछ भीड़ जरूर नज़र आई, लेकिन जिसकी उम्मीद की जा रही थी वो भीड़ नहीं दिखी। मेला आयोजक अखबारों में छपवाए गए विज्ञापनों के भरोसे भीड़ जुटाने की उम्मीद संजोए बैठे रहे और मेले की कामयाबी की दुआ करते रहे। हालांकि मेला वो रंग नहीं दिखा पाया जैसी उम्मीद थी, लेकिन आयोजक मेले की कामयाबी का दावा कर रहे हैं।

मेला खत्म, अब तक नहीं पहुंची उत्तर प्रदेश की किताबें

उत्तर प्रदेश सरकार उर्दू से लगाव की बात करती है, लेकिन उर्दू अकादमी का स्टॉल शुरू से आखिर तक खाली ही रहा। न किताबें दिखी और न ही अकादमी में काम करने वाले कर्मचारी। लोग इस स्टॉल पर रोज आते और मायूस होकर चले जाते। यही सिलसिला मेले के आखिरी दिन तक बदस्तूर जारी रहा। इस संबंध में उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के चेयरमैन नवाज़ देवबंदी से फोन पर बात की गई तो उनका कहना था कि जिस ट्रांसपोर्ट से किताबें मेले के लिए रवाना की गई थीं वह अब तक पहुंचा ही नहीं, लिहाज़ा हमने फैसला किया कि अकादमी कर्मचारियों को मेले से वापस बुला लिया जाए। उन्होंने बताया कि अकादमी ने ट्रांसपोर्टर को नोटिस दिया है, अब सवाल ये है कि क्या सिर्फ ट्रांस्पोर्टर को नोटिस देने भर से उर्दू के नाम पर खुद अकादमी की लापरवाही को नज़रअंदाज़ क्या जा सकता है?

राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद का दावा
कौंसिल के डायरेटर प्रोफ़ेसर इरतेज़ा करीम ने दावा किया है कि इस बार 1 करोड़ से ज़्यादा किताबों की खरीद फरोख्त हुई है। इसके अलावा 2 पब्लिशर ऐसे थे, जिनको 38-38 लाख रुपये के ऑर्डर मिले। उन्होंने बताया कि 2013 में 35 स्टॉल लगे थे और कुल खरीद फरोख्त 30 लाख रुपये की हुई थी। यही नहीं, उर्दू पत्रकारों के लिए कौंसिल की तरफ से हर तीन महीने में एक कोर्स का सिलसिला जल्द शुरू करने का वादा भी किया गया है। दावा है कि इसमें पत्रकारिता के सभी गुण निखारे जाएंगे।

प्रकाशकों में मायूसी
मेला आयोजकों के दावे एक तरफ हैं, स्टाल नंबर-35 में लगे एमआर पब्लिशर के अब्दुर समद कहते है कि जो उम्मीद थी पूरी नहीं हुई, मेले का सही प्रचार नहीं किया गया। क़ाज़ी पब्लिशर के मैनेजर इक़बाल उस्मान का कहना था कि मेले के आखिरी दिन जो लोग आए वो भी उम्मीद से कम थे, लेकिन जो भी आए खरीदार थे। उन्होंने अफ़सोस जताते हुए कहा कि उर्दू मदरसों, स्कूलों तक मेले की जानकारी नहीं पहुंची, लोकल सोशल वर्कर्स के सहारे ये खबर पहुचाई जा सकती थी, लेकिन वो काम अखबारों में विज्ञापन के ऊपर छोड़ दिया गया।

स्टॉल नंबर-20 में लगे मिल्ली पब्लिशर के मुनव्वर कहते है जब कौंसिल को ट्रेड फेयर की तारीख मालूम थी तो आखिर उर्दू मेले को उसी वख्त लगाने की जल्दी क्यों दिखाई गयी? मान्शुरात पब्लिशर के मोहम्मद शुऐब और अल फ़ौज़ मायूसी के साथ कहते है कि औरंगाबाद में बहुत अच्छी सेल थी, लेकिन यहां उर्दू से लगाव नज़र ही नहीं आया, लोगों में दिलचस्पी कम थी। अग्रेज़ी के स्टॉलों पर भीड़ थी और हमारे स्टॉलों से लोग गायब, इसका मतलब साफ़ है कि लोगों में उर्दू को लेकर दिलचस्पी कम होती जा रही है, जिसको बढ़ाना पड़ेगा।

अब तो आपकी नाराज़गी दूर हो गई होगी?
मेले के आखिरी दिन कौंसिल की प्रेस कॉन्फेंस के बाद पत्रकारों को सम्मान से नवाज़ने का सिलसिला शुरू हुआ, एक के बाद एक पब्लिशरों के बाद पत्रकारों को मंच पर बुलाकर सम्मान से नवाज़ा गया, इस बीच कई बार मंच से ये भी सुनाई पड़ा कि अब तो आपकी नाराज़गी दूर हो गई होगी? सवाल तो ये पैदा होता कि आखिर कौंसिल को पत्रकारों को सम्मानित करने की ज़रूरत ही क्यों आन पड़ी।

राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद के कामों पर सवालिया निशान?
देश में लगभग 14 उर्दू अकादमी हैं, जिनमें उर्दू विकास के नाम पर सिर्फ दिल्ली उर्दू अकादमी ही नज़र आयी, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का स्टॉल तो किताबों का इंतजार ही करता रह गया। उर्दू की तरक्क़ी के नाम पर राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद के इस मेले में आखिर पड़ोसी राज्य हरियाणा, बिहार, राजस्थान के साथ और अन्य उर्दू अकादमी की अनुपस्थिति परिषद के कामों पर सवालिया निशान खड़े करती है।

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विज्ञापन देने में भी गड़बड़झाला
राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद विज्ञापनों के भरोसे मेले की कामयाबी की उम्मीद में बैठे रहा। हैरत की बात ये है कि डीएवीपी के माध्यम से कौंसिल ने हिन्दी-अंग्रेजी के अलावा जिन 124 उर्दू अखबारों को विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए अनुबंधित किया, उनमें से ज्यादातर तो छपते ही नहीं हैं। गड़बड़झाला तो ये भी है कि एक ही पते से कई-कई अखबार निकल रहे हैं। ज्यादातर अख़बारों की पहुंच कुछ गली-मुहल्लों तक ही है। यहां तक कि स्थानीय लोगों को भी उनके बारे में जानकारी नहीं है।