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This Article is From Mar 19, 2014

प्राइम टाइम इंट्रो : बनारस से मोदी के चुनाव लड़ने के मायने

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार।
राजनीति में अगर प्रतीक न हो तो राजनीति पत्थर हो जाती है। लेकिन कई बार यही प्रतीक उस पत्थर को देवता भी बना देते हैं। जिसके कारण हम अपनी श्रद्धा के बाहर जाकर देखने का प्रयास भी नहीं करते। बहुत ज़्यादा प्रतीकबाज़ी पतंगबाज़ी की तरह लगने लगती है। इस चक्कर में पुराने प्रतीकों के समानांतर नए प्रतीक गढ़े जाने लगते हैं जो उतने ही ख़तरनाक होते हैं। कोई खुलकर ऐसा नहीं करता मगर होने लगता है।

जब से नरेंद्र मोदी का एलान बनारस से हुआ है अनगिनत कैमरे बनारस के घाटों और गंगा की नावों पर तैरने लगे हैं। बनारस का दैविक चित्रण होने लगा है। इन चित्रण में बनारस की ऐतिहासिक विविधता कम है। वही घाट वही चिलम वही साधु बाबा वही गंगा वही पप्पू चाय की दुकान। यह वही बनारस है जहां तुलसी ने रामचतिरमानस की रचना की और अपने शरीर का त्याग किया। बुद्ध की धरती भी है ये। यह वही बनारस है जहां कबीर और संत रैदास के निशान मिलते हैं। उनकी वाणियां मिलती हैं। बनारस चुनौतियों की भूमि हैं। धार्मिक आडंबरों से संघर्ष की भूमि है। जिस धरती को मोक्ष भूमि कहा जाता था उसे छोड़कर कबीर मगहर चले गए यह कहते हुए कि बनारस में तो सबको मोक्ष मिल जाता है।

फिर राम की भक्ति का अहसान क्या लेना। मेरे प्रति राम का अनुराग होगा तो मगहर आकर मुझे तार देंगे। संत रैदास ने मन चंगा तो कठौती में गंगा कहा था। कमाल खान ने अपनी रिपोर्ट में दिखाया कि कैसे गंगा के घाट पर मुसलमान भी मछलियों को दाना खिलाते दिख जाते हैं। एक पार्टी या संगठन विशेष की राजनीतिक विचारधारा के नाते हिन्दुत्व कबसे बनारस की एकमात्र पहचान हो गया।

क्यों बनारस पर लिखने वाले पत्रकार जानकार अपनी बात मोदी के विकास के एजेंडे से शुरू करते हैं और धीरे धीरे हिन्दुत्व की बात करने लगते हैं। ध्रुवीकरण की बात करने लगते हैं। क्या यह सब जानबूझ के हो रहा है। अगर ऐसा है तो लोग इसे अपने लेख की पहली पंक्ति में क्यों नहीं लिखते, आखिर में क्यों लिख रहे हैं।

कहीं मीडिया अति उत्साह में बनारस की छवि को एकरंगा तो नहीं बना रहा।

क्या हिन्दू क्या मुसलमान कोई शादी ऐसी नहीं जिसमें बिस्मिल्लाह ख़ान की शहनाई न बजती हो। उन्हीं ने कभी कहा था मैं जब दुनिया में घूमता हूं तो मुझे सिर्फ हिंदुस्तान नज़र आता है और जब हिंदुस्तान में घूमता हूं तो सिर्फ बनारस दिखाई देता है। क्या इस चुनाव में वही बनारस दिख रहा है।

मोदी ने बनारस की रैली में सोमनाथ और बाबा विश्वनाथ में रिश्ता जोड़ा था। पर ऐसी बात तो वे हर रैली में करते हैं। अमृतसर जाकर पंज प्यारों में एक गुजरात का बता देते हैं। वे हर जगह का गुजरात से रिश्ता निकालते हैं। कहीं धार्मिक है तो कहीं आर्थिक है तो कहीं ऐतिहासिक भी है।

इसके बाद भी क्या यह बात पूरी तरह से खारिज की जा सकती है कि बनारस का चुनाव सिर्फ पूर्वांचल को फतह करने के लिए किया गया है। विकास के लिए किया गया है या यहां की आबो हवा में वो राजनीतिक बीज अभी तक हैं जिससे ध्रुवीकरण की गुंजाइश पैदा होती है।

मुरली मनोहर भी तो हिन्दुत्व के बताए गए। क्या बनारस दो दशक से बीजेपी का गढ़ रहा है। पार्षद से लेकर विधायक और सांसद तक। फिर इसके पिछड़ेपन की ज़िम्मेदारी का बंटवारा किस हिसाब से हो रहा है।

आज के हिन्दुस्तान टाइम्स में पूर्व राज्यपाल गोपाल गांधी ने लिखा है कि बनारस को अपनी विरासत की राजनीतिक पैकेजिंग नहीं होने देना चाहिए। किसी भी चुनाव में कद्दावर और बाहरी उम्मीदवारों के कारण स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दे पीछे चले जाते हैं। एक संसदीय क्षेत्र को इतनी तवज्जो मिलने लगती है कि पूरा चुनाव इसी में गुज़र जाता है। आप गिनना शुरू कीजिए बनारस से किसी भी चैनल पर कितने शो होते हैं।

मंगलवार को जब मुलायम सिंह यादव ने कहा कि वे आज़मगढ़ से चुनाव लड़ेंगे तो आज़मगढ़ का चरित्र चित्रण भी बनारस की तर्ज पर किया जाने लगा। लगा कि आतंक के गढ़ की छवि से निकलने के लिए बेचैन आज़मगढ़ को फिर से उन्हीं सलाखों के पीछे धकेल देने की कोशिश हो रही है। यह कोशिश कौन कर रहा है। मीडिया या नेता। क्या आज़मगढ़ का चरित्र चित्रण सिर्फ धार्मिक आइने में ही किया जा सकता है। यहां 19 प्रतिशत मुसलमान हैं तो बीस प्रतिशत यादव हैं। इसी के करीब दलित हैं।

यह ज़िला कैफ़ी आज़मी का है तो मशहूर कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔंध का है, राहुल सांकृत्यायन का है तो नाटककार लक्ष्मीनारायण मिश्र का है। हल्दीघाटी पर मशहूर कविता लिखने वाले श्याम नारायण पांडे का भी है आज़मगढ़। वाजपेयी सरकार में नीतीश कुमार ने रेलमंत्री रहते कैफ़ी आज़मी के सम्मान में दिल्ली आज़मगढ़ के बीच एक रेल गाड़ी चलाई थी। कैफ़ियत एक्सप्रेस। मगर आज़मगढ़ और बनारस के बीच रेल का रिश्ता आज तक नहीं बन पाया। फिर बनारस बनाम आज़मगढ़ का यह मीडिया मैच क्यों।

काश ऐसी लड़ाई बुंदेलखंड में भी हो जाती। खैर। क्या बनारस और आज़मगढ़ को किसी सीमित छवियों में कैद करने की कोशिशों से बचते हुए ध्रुवीकरण के राजनीतिक इरादों को समझा जा सकता है। क्या इन दो शहरों के चयन में ध्रुवीकरण के तत्व हैं या सचमुच इनके विकास के लिए नेताओं का दिल आ गया है। 80 सीटों वाले यूपी में 28−32 सीटें हैं पूर्वांचल की। पूर्वांचल को विकास की ज़रूरत है या इन धार्मिक प्रतीकों की। यह तो पूर्वांचल तय करेगा। हम तो बस चर्चा कर सकते हैं। प्राइम टाइम।

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