इलेक्शन्स! सब कड़वा है। यह कहना था श्रीनगर में पीड़ियों से बसे एक निवासी का... लोगों के लिए सैलाब के बाद ज़िंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही है। वादा किया गया राशन नहीं मिल रहा़, बढ़ती ठंड और मुश्किल से मिलते सिलेंडर और उस पर मिलते बिजली के बिल हैरान परेशान कर देने वाले हैं।
हज़ारों घरों की बुनियाद कमज़ोर पड़ गई है, जिन्हें तोड़ कर फिर से बनाना होगा। सड़कों पर अभी भी मिट्टी की गर्द जमीं हुई है़, हवा में धूल है जो सासों और आंखों पर भारी पड़ रही है और इस सब पर बर्फ की मार जो किसी भी दिन दस्तक दे सकती है।
साल 1977 से राज्य की हुकूमत नैसनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के पास रही है, लेकिन 2002 में यहां की आवाम नें मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी को जिता दिया, लेकिन 2008 में यहां लोगों ने एक बार फिर एनसी पर भरोसा जताया।
हालांकि इस बार सैलाब के बाद उमर सरकार के लचर पुनर्वास कार्यक्रम से लोग काफी नाराज़ हैं, अब इस बार के चुनाव में पीडीपी को एक स्थानीय विकल्प के तौर पर देख रहे हैं। वह उन फैसलों को याद कर रहें हैं, जिनमे एसटीएफ को हटा कर लोगों की धरपकड़ रोक दी गई थी।
ये साफ़ है कि राज्य में कांग्रेस हासिये पर चली गई है, लेकिन दूसरी तरफ बीजेपी अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराने में जुटी है। पार्टी मिशन 44 के तहत मुस्लिम चेहरे जोड़ रही है, लेकिन चेहरों कि अपनी पुरानी संवेदनशीलताएं हैं। अनुच्छेद 370 पर बीजेपी क्या चर्चा करेगी, क्या हटाएगी या फिर बंदूक उठाने वाले उम्मीदवार बदलेगी?.. वाकई ये चुनाव कड़वे हैं।
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