राष्ट्रपति डॉ प्रणब मुखर्जी द्वारा जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोहरा की सिफारिश पर मुहर लगाने के साथ ही जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू हो गया है, लेकिन यह सवाल अब भी राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी पीडीपी के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी परेशान कर रहा है कि क्या राज्य में दोबारा चुनाव कराने होंगे, या अगले 10 दिन में वहां कोई नई सरकार कार्यभार संभाल लेगी।
पीडीपी को लग रहा था कि वह बीजेपी को अपनी शर्तों पर रजामन्द कर लेगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि बीजेपी ने अपना रुख कड़ा बनाए रखा। राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, "पीडीपी को लग रहा था कि वह अटल बिहारी वाजपेयी के समय के एनडीए से समझौता कर रही है, लेकिन यह बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार है, इसलिए यह फर्क रहा..." उधर, पीडीपी के नेता नईम अख्तर का अब भी कहना है, "अभी 10 दिन बाकी हैं, पीडीपी सरकार बना लेगी..."
वैसे, राज्यपाल ने जम्मू-कश्मीर के संविधान के सेक्शन 92 के तहत राज्य में राज्यपाल शासन लागू किया है, जिसके तहत छह माह तक राज्यपाल का शासन रह सकता है, और उसके बाद समयसीमा बढ़ाने के लिए कैबिनेट की मंजूरी ज़रूरी है।
हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लगाया गया हो...
26 मार्च से 9 जुलाई, 1977 में 105 दिन तक जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन रहा, तब राज्यपाल एलके झा थे, और तब शेख अब्दुल्ला की सरकार से कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया था।
6 मार्च से 7 नवंबर, 1986 में 246 दिन तक जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन रहा, तब राज्यपाल जगमोहन थे, और तब भी कांग्रेस ने ही पहले फारुख अब्दुल्ला की सरकार गिराई, और फिर गुलाम मोहम्मद की सरकार बनवाई, लेकिन मार्च, 1986 में कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
19 जनवरी, 1990 से 9 अक्टूबर, 1996 तक, यानि छह साल और 264 दिन तक, तब राज्यपाल जगमोहन थे, और तब फारुख अब्दुल्ला ने जगमोहन के राज्यपाल बनाए जाने पर ऐतराज करते हुए इस्तीफा दे दिया था।
उल्लेखनीय है कि 1990 के दशक में ही राज्य में उग्रवाद का आगाज हुआ था, और उस दौरान जब 1996 में चुनाव हुए थे, वे बंदूकों के साये में ही हुए थे।
18 अक्टूबर से 2 नवंबर, 2002 तक सिर्फ 15 दिन के लिए, इस बार राज्यपाल जीसी सक्सेना थे, और तब फारुख अब्दुल्ला ने केयरटेकर मुख्यमंत्री बने रहने से इनकार कर दिया था, और उसके बाद ही पीडीपी ओर कांग्रेस साथ आए थे।
11 जुलाई, 2008 से 5 जनवरी, 2009 तक, यानि 178 दिन, तब एनएन वोहरा राज्यपाल थे, और तब गुलाम नबी आजाद की सरकार अल्पमत में चली गई थी, क्योंकि पीडीपी ने अमरनाथ के मुद्दे पर समर्थन वापिस ले लिया था। पीडीपी ने 28 जून, 2008 को अमरनाथ की जमीन को मुद्दा बनाकर समर्थन वापिस लिया था।
इस बार भी जम्मू-कश्मीर में खंडित जनादेश की वजह से अब तक सरकार नहीं बन पाई है, जबकि सरकार गठन के लिए 19 जनवरी तक का समय है। राज्य में पीडीपी 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, जबकि बीजेपी 25 सीटों से साथ दूसरी बड़ी पार्टी है। पीडीपी और बीजेपी - दोनों पार्टियां राज्यपाल से मिल चुकी हैं, लेकिन सरकार गठन का कोई फॉर्मूला अब तक नहीं निकल पाया है।
इस बार भी उमर अब्दुल्ला ने कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने रहने से इनकार कर दिया है, और इसकी वजह यह है कि वह खुद ही बड़ी मुश्किल से बीरवाह से चुनाव जीते हैं, और उनके कई मंत्री हार गए हैं।
दरअसल, राजनैतिक पार्टियों को चाहिए था कि वे राष्ट्रहित में अपने मनमुटाव भुलाकर एक स्थायी सरकार देते, जिसकी राज्य को फिलहाल सबसे ज्यादा ज़रूरत है, क्योंकि आखिरकार पहली बार लोगों ने इतनी भारी संख्या में चुनावों में हिस्सा लिया था, ओर लोकतंत्र पर विश्वास जताया था।
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