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This Article is From May 15, 2014

चुनाव डायरी : मोदी सरकार पर माथापच्ची

चुनाव डायरी : मोदी सरकार पर माथापच्ची
गांधीनगर में बुधवार को नरेंद्र मोदी से मुलाकात के दौरान बीजेपी के शीर्ष नेता
नई दिल्ली:

गांधीनगर से कल आईं तस्वीरें संभावित नरेंद्र मोदी सरकार की रूपरेखा को बयान कर रही हैं। राजनाथ सिंह और अरुण जेटली सोफे की सिंगल सीट पर बैठे हैं। नरेंद्र मोदी और नितिन गडकरी डबल सीट वाले सोफे पर।

जेटली के दाएं हाथ की तरफ एक फाइल रखी दिख रही है। ऐसी ही एक फाइल मोदी के बगल में रखी है। सामने की सेंटर टेबल पर मोदी, राजनाथ और जेटली के आगे नोट्स लेने के लिए डायरी और कलम रखे दिख रहे हैं। जबकि गडकरी के सामने पीले रंग के दो लिफाफे एक के ऊपर एक रखे हैं। ऊपर वाला खुला है। साइड टेबल पर गुलदस्ता रखा है, जिसे शायद थोड़ी देर पहले मोदी को दिया गया होगा।

इन तस्वीरों में सुषमा स्वराज को भी होना था। लेकिन उन्हें अपने चुनाव क्षेत्र में जाना था। लिहाज़ा इस बैठक से पहले दिल्ली में ही राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी ने उनसे मुलाकात कर ली थी। सुषमा को मिलाकर मोदी, जेटली, राजनाथ सिंह और गडकरी, अगर इन्हें अगली मोदी सरकार का कोर ग्रुप कहें, तो ज़्यादा सही होगा।

अगर इन तस्वीरों का मिलान 10 साल पहले लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के पहले 7, रेसकोर्स रोड पर तब हुई बैठक की तस्वीरों से करें, तो बदली बीजेपी साफ दिखाई देगी। तब की तस्वीरों में अटल बिहारी वाजपेयी के साथ लालकृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह, मुरली मनोहर जोशी और प्रमोद महाजन दिखेंगे। 10 साल में यमुना में काफी पानी बह गया। बीजेपी भी बदल गई है। बल्कि बीजेपी में पिछले 10 साल में जितना बदलाव नहीं हुआ होगा, उतना 16 मई के बाद से होगा।

इस बदलाव की नींव पिछले साल 13 सितंबर को रख दी गई थी, जब बीजेपी के संसदीय बोर्ड ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था। उसके बाद से जिस मेहनत, लगन और प्रतिबद्धता के साथ मोदी ने पूरे देश में पार्टी का झंडा बुलंद किया है, उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। इस लोकसभा चुनाव में सिर्फ एक ही मुद्दा था नरेंद्र मोदी। और अगर बीजेपी को जीत मिलती है, तो इसका सेहरा भी सिर्फ उन्हीं के सिर बंधेगा। पर अब अगर सरकार बननी है, तो ज़ाहिर है सबको साथ लेकर काम करना होगा। मंत्रिमंडल में किसी रखना है और किसे नहीं, यह प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है।

बीजेपी यूपीए पर सत्ता के दो केंद्र होने के आरोप लगाती रही है और कहती रही है कि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री कार्यालय की गरिमा को कम किया। ऐसे में इस बात की अटकल लगाना कि मोदी पर बीजेपी या आरएसएस के वरिष्ठ नेता अपनी पसंद थोप सकते हैं, मुमकिन नहीं लगता।

यह याद रखना जरूरी है कि आरएसएस के इनकार करने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी ने जसवंत सिंह को वित्त मंत्रालय की ज़िम्मेदारी दी थी। लेकिन मोदी के लिए लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज नेताओं के लिए भूमिका तय करना टेढ़ी खीर साबित होगा।

आरएसएस चाहता था कि ये दोनों ही नेता लोकसभा का चुनाव लड़ने के बजाए राज्यसभा में जाएं। लेकिन दोनों ने इससे साफ इनकार कर दिया। बल्कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने से भी ये दोनों नेता खुश नहीं थे। आडवाणी ज़्यादा नाराज़ थे कि उनके रहते हुए किसी और को पीएम उम्मीदवार कैसे बनाया जा सकता है। अब फिर वही सवाल सामने आया है। क्या आडवाणी और जोशी इसलिए चुनाव लड़े कि वे मोदी सरकार में मंत्री बनना चाहते थे? अगर नहीं, तो फिर संभावित सरकार में उनकी क्या भूमिका होगी। आडवाणी के करीबी इशारा कर चुके हैं कि आडवाणी मोदी सरकार में शामिल नहीं होना चाहते, मगर लोकसभा अध्यक्ष जैसा संवैधानिक पद लेने से उन्हें गुरेज नहीं। वहीं यह तय है कि जोशी भी सरकार में नहीं रहेंगे।

आडवाणी को लेकर एक दुविधा यह भी है कि फिलहाल वह एनडीए के कार्यकारी अध्यक्ष और बीजेपी संसदीय दल के अध्यक्ष भी हैं। जब तक बीजेपी विपक्ष में थी और यह तय नहीं था कि पार्टी में शीर्षस्थ नेता कौन है, तब तक आडवाणी का इन दोनों पदों पर रहना कोई दिक्कत पैदा नहीं करता था। लेकिन अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं और आडवाणी इन दोनों पदों पर बने रहते हैं, तो फिर से मोदी के अधिकारों पर चुनौती उठने का खतरा बरकरार रहेगा। खासकर तब जबकि मोदी को लेकर आडवाणी समय-समय पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते रहे हैं।

बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एनडीए के अध्यक्ष थे और संसदीय दल के नेता भी। कोई कारण नहीं है कि बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ये दोनों पद न मिलें। जबकि स्पीकर जैसे संवैधानिक पद पर काबिज होने के बाद आडवाणी सरकार और पार्टी के अंदरूनी कामकाज में न तो कोई दखल दे पाएंगे और न ही ऐसा करना उस संवैधानिक पद की गरिमा के अनुकूल होगा।

स्पीकर का पद भी बेहद संवेदनशील होता है। खासकर गठबंधन की सरकार में। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सिर्फ एक वोट से गिरी थी। तब टीडीपी के जीएमसी बालयोगी स्पीकर थे और उन्होंने उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग को वोट देने की इजाज़त दे दी थी। राजनीति में आडवाणी ने पहला पद स्पीकर का ही लिया था। दिल्ली की मेट्रोपोलिटन कौंसिल में। अब अपने करियर के अंतिम पड़ाव पर भी वह यही पद चाहते हैं। पर इस बार लोकसभा का। देखना होगा पार्टी क्या फैसला करती है।

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