बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के मुद्दे पर पीडीपी के भीतर मतभेद उभर कर सामने आ रहे हैं। एक धड़ा इसे जहां इसके समर्थन में है वहीं दूसरा धड़ा बिल्कुल इसके खिलाफ। स्थिति ये है कि पार्टी नेतृत्व भी भारी दुविधा की शिकार हो गई है।
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक पार्टी के जो नेता बीजेपी के साथ जाने के पक्ष में हैं उनको लगता है कि इससे केन्द्र से मदद तो मिलेगी ही, बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी के साथ गठबंधन को एक सकारात्मक पहल के तौर पर देखा जाएगा। लेकिन जो इसके खिलाफ हैं उनकी दलील है कि बीजेपी के साथ सरकार बनाने से फौरी फायदे तो होंगे लेकिन इसके दूरगामी राजनीतिक नुक्सान होंगे।
पीडीपी अपने वोटरों के बीच डिस्क्रेडिट हो जाएगी। मोदी ने जम्मू और कश्मीर की अपनी चुनावी सभाओं में कम से कम चालीस बार बाप-बेटे (फारूक-उमर) की सरकार हटाने के साथ साथ बाप-बेटी (मुफ़्ती-मेहबूबा) की सरकार के खिलाफ भी वोट करने की अपील की।
चुनावी सभाओं की कई गई बातों को भुला भी दें तो अनुच्छेद 370 और आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट जैसे मुद्दों पर बीजेपी और पीडीपी के अलग अलग नज़रिए को लेकर पार्टी के कुछ नेता सावधान कर रहे हैं।
लेकिन पीडीपी की दुविधा तब से ज़्यादा बढ़ गई है जब से नेशनल कांन्फ्रेंस ने पीडीपी को समर्थन देने की बात की है। इसे पीडीपी के कुछ नेता उमर अब्दुल्लाह की गुगली के तौर पर देख रहे हैं। पीडीपी बीजेपी के साथ गई तो एनसी हल्ला बोलने में तनिक भी देर नहीं लगाएगी कि पीडीपी उस पार्टी के साथ चली गई जो आरएसएस के धर्मांतरण जैसे एजेंडे पर खामोश है। वो बीजेपी के हिंदूवादी एजेंडे के साथ पीडीपी को जोड़ने की कोशिश करेगी और पूरी घाटी में पीडीपी के ख़िलाफ माहौल बनाने में जुट जाएगी।
बीजेपी की तरफ से जिस तरह की शर्त रखी जा रही है उससे इस आशंका को और बल मिल रहा है। तीन-तीन साल के लिए बारी बारी से मुख्यमंत्री और पहले बीजेपी का मुख्यमंत्री और वो भी ‘जम्मू से कोई हिंदू मुख्यमंत्री’ जैसी शर्तों की बात बीजेपी से गठबंधन के विरोधी नेताओं को और आत्मविश्वास दे रहे हैं।
गठबंधन के समर्थक नेता बीजेपी के साथ जाने के लिए बेशक स्थायित्व की दलील दे रहे हों लेकिन किसी भी वजह से अगर सरकार बीच में गिरी तो न सिर्फ इस दलील की हवा निकल जाएगी बल्कि एनसी को ज़मीन पर और ताक़त मिलेगी। इतना ही नहीं, सज्जाद लोन की जे एंड के पीपुल्स कांफ्रेंस जैसी छोटी पार्टियों को भी ख़ुद को फैलाने का मौक़ा मिलेगा।
पीडीपी का साथ मिल जाने के बाद लोन जैसे नेताओं वो अहमियत नहीं मिलेगी जैसा वो चाहते हैं। सज्जाद लोन एनडीटीवी से बातचीत में आज ही कहा है कि पूरी भागीदारी नहीं मिली तो वो विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे। ज़ाहिर है ऐसी स्थिति में वे सिर्फ विपक्ष में ही नहीं बैठेंगे बल्कि पीडीपी की ज़मीन कब्ज़ाने की कोशिश भी करेंगे।
पूरी वादी में बीजेपी को एक भी सीट नहीं मिली। पीडीपी के कुछ नेता इसे बीजेपी के ख़िलाफ दिया गया वोट मान रहे हैं। वे वोटिंग परसेंटेज में बढ़ोत्तरी को भी इसी नज़रिए से देख रहे हैं कि लोग बीजेपी के खिलाफ वोट करने ज़्यादा बड़ी तादाद में बाहर निकले।
पीडीपी के जो नेता बीजेपी के साथ जाने के खिलाफ हैं उनकी दलील है कि अगर बीजेपी के बिना किसी और गठबंधन से स्थायी सरकार बनाने का विकल्प नहीं है तो पीडीपी के सामने सबसे अच्छा विकल्प है विपक्ष में बैठना। वैसे ही जैसे दिल्ली में बीजेपी ने सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी सरकार नहीं बनाई, बेशक वजह कुछ दूसरी हो। इन नेताओं को बीजेपी के साथ कुछ सालों की सत्ता से कुछ सालों का विपक्ष में बेहतर विकल्फ लग रहा है।
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