आखिरकार दिल्ली में चुनाव की डुगडुगी बज गई। चुनाव कार्यक्रम के मुताबिक महीनेभर में पता चल जाएगा कि किसके सिर दिल्ली का ताज सजेगा और कौन अगले पांच साल तक अपनी वापसी की लड़ाई लड़ेगा। दिल्ली में वोट 7 फरवरी को डाले जाएंगे और 10 फरवरी को नतीजे आ जाएंगे।
हालांकि ये चुनाव महज दिल्ली विधानसभा के हैं, लेकिन इसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल की साख दांव पर लगी है। कांग्रेस के पास फिलहाल खोने के लिए कुछ भी नहीं है। अगर दिल्ली का किला मोदी फतह कर लेते हैं तो फिर उनके विजय रथ को रोक पाना लगभग असंभव हो जाएगा, और वहीं, केजरीवाल पिछली बार की तरह एक बार फिर अपना करिश्मा कायम रख पाते हैं तो वे पूरे देश में मोदी विरोधियों की धुरी बन जाएंगे।
करीब एक साल पहले जब दिल्ली में चुनाव हुए थे तो उस वक्त न तो मोदी का कद इतना बड़ा था और न ही उनके नाम पर चुनाव लड़े जाते थे और यही बात केजरीवाल पर भी लागू होती है। उस दौरान बस कांग्रेस विरोध की जबरदस्त लहर थी। हर कोई मानकर चल रहा था कि केजरीवाल की 'आप' सीट तो लाएगी पर सरकार बनाने लायक नहीं। लेकिन, नतीजों ने सबको चौंकाया। यह अलग बात है कि उन नतीजों का सम्मान किसी भी पार्टी ने नहीं किया।
बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी सरकार बनाए या न बनाए, इसको लेकर उहापोह में फंसी रही। आप ने कांग्रेस की मदद से सरकार तो बनाई, पर ऐसी बचकाना हरकत की जिससे सरकार गिर गई। बाद में हालात यह हो गई कि केजरीवाल अभी तक हर जगह अपनी इस गलती के लिए माफी मांगते नजर आ रहे हैं।
पिछले चुनाव में बीजेपी का चेहरा हर्षवर्धन थे, अब हालात बिल्कुल अलग है। आज हर्षवर्धन केन्द्र में मंत्री तो हैं और दिल्ली की राजनीति में कहीं नहीं दिखते।
आज बीजेपी के पास बस एक ही चेहरा बचा है, वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का है। न कोई उसके आगे और न कोई उसके पीछे। तभी तो प्रधानमंत्री बनने के बाद जितने भी राज्यों में चुनाव हुए वहां पर किसी राज्य के नेता का चेहरा सामने रखकर चुनाव नहीं लड़ा गया। हर जगह बस मोदी-मोदी और बस मोदी।
दिल्ली में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। 10 जनवरी को रामलीला मैदान में हुई बीजेपी की रैली में ये बात साफ तौर पर नजर भी आई। हर जगह लोगों को मोदी के 24 फुट के कट आउट्स नजर आ रहे थे।
ऐसा लगता है कि दिल्ली में बीजेपी ये मान चुकी है कि उसके पास केजरीवाल के मुकाबले कोई चेहरा नहीं है इसलिए उसने अपने सबसे बड़े हथियार के बूते मैदान में उतर आई है। पार्टी के विज्ञापन पर भी गौर करें तो उसमें बस मोदी ही दिखते है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि केन्द्र के स्तर पर किसी भी पार्टी के पास आज मोदी के टक्कर का कोई नेता नहीं है। किसी के पास ऐसा करिश्मा नहीं है जो मोदी के आसपास भी ठहरता हो। लेकिन बात जब राज्यस्तर पर आती है तो कई ऐसे चेहरे नजर आते हैं जो मोदी को बखूबी टक्कर देते हैं और वहां, मोदी की दाल गलती नहीं नजर आती है।
बात चाहे बंगाल की करें तो ममता, उड़ीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता के आगे मोदी का जादू नहीं चला। यानि जहां पर जनता को कोई ठोस विकल्प दिखा वहां पर उसने उसी पर भरोसा जताया। कमोवेश दिल्ली में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। कोई भी सर्वे उठा कर देख ले हर जगह बीजेपी और आप के बीच फासला महज पांच फीसदी वोट का ही है, लेकिन अगर बात दिल्ली के मुख्यमंत्री की हो तो हर जगह केजरीवाल ही नजर आते हैं। जैसे केन्द्र में मोदी में करिश्मा है वैसा ही दिल्ली में केजरीवाल का है।
यहां तक कि खुद आप ने भी इसी बात का प्रचार किया है कि ‘केंद्र में मोदी, दिल्ली में केजरीवाल।
दरअसल केजरीवाल और उनकी पार्टी आप के लिए भी यह चुनाव करो या मरो के समान है। यदि इस बार चूक गए तो आप का अस्तित्व भी ख़तरे में पड़ सकता है। आखिर आम कार्यकर्ताओं का पेट भाषणों से तो भर नहीं सकता और केजरीवाल के समर्थन में अपनी नौकरी छोड़कर पढ़े-लिखे नौजवानों का जो समूह हमेशा प्रचार में नजर आता है, वह भी कब तक अपना घर फूंककर तमाशा देखेगा? उन्हें भी तो अपना घर-परिवार चलाना है।
बनारस जाकर चुनाव लड़ने, खुद को मोदी के कद का नेता साबित करने और देशभर में लोकसभा चुनाव लड़कर केजरीवाल की छवि ऐसे नेता की बनने लगी है जो महज प्रचार का भूखा है और मनमाने फैसले करता है। साजिया इल्मी जैसे कई नेताओं के बयानों, बगावत और आरोपों ने भी केजरीवाल को कई बार कठघरे में खड़ा किया है, इसलिए उनके लिए दिल्ली की गद्दी पर कब्ज़ा सरकार से ज्यादा खुद के लिए भी जरूरी है।
यही कारण है कि दिल्ली का ताज फिर हासिल करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है। दिल्ली की गद्दी जाने के बाद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने तय कर लिया कि किसी भी हाल में फिर से दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना है। घर-घर जाकर लोगों से बातचीत की। हर वक्त लोगों के बीच में रहे। उनके मुद्दे को उठाने में कभी पीछे नहीं रहे। बराबर लोगों को एहसास दिलाया कि उनका मकसद लोगों की मदद करना है। अपना उल्लू सीधा करना नहीं। राजनीति की नई परिभाषा गढ़ी। इसके उलट न तो कांग्रेस और न ही बीजेपी जनता से सीधे संवाद कायम कर पाई। इन दोनों पार्टियों में नेताओं की कोई कमी नहीं है पर कार्यकर्ता उस तादाद में नजर नहीं आते।
कांग्रेस को इस चुनाव में उसी तरह कमतर आंका जा रहा है जैसा कि पिछले चुनाव में कइयों ने आप को मानने की गलती की थी। इस बार जनता में पिछले विधानसभा चुनाव की तरह कांग्रेस को लेकर न तो कोई गुस्सा है और न ही नाराजगी। बुरी से बुरी हालत में उसके कई कद्दावर नेता अपने दम पर तो कुछ सीट निकाल ही लेंगे। बीजेपी के पास एकमात्र मोदी रूपी नाव का ही सहारा है।
अगर किसी कारणवश ये नाव बीच में डगमगाने लगी तो इसका असर बिहार और उत्तरप्रदेश में होने वाले चुनावों पर भी दिखेगा वहीं, अगर केजरीवाल जीत जाते है तो पांच साल भले ही मोदी देश की सरकार चलायेंगे पर दिल्ली में उन्हें केजरीवाल चैन की नींद तो नही ही सोने देंगे। इतना तो तय है इस बार दिल्ली के ताज का मुकाबला कांटे का होगा।
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