क्या आर्थिक विकास के लिए अशांति जरूरी है?

क्या आर्थिक विकास के लिए अशांति जरूरी है?

प्रतीकात्‍मक फोटो

शांति और सुकून का निर्माण अपनी धरती पर सबसे महंगा उपक्रम बन गया है. युद्ध आर्थिक विकास की सबसे बड़ी परियोजना हैं. आश्चर्य लगता है न यह जानकर कि शांति की स्थापना के लिए हथियारों का न केवल निर्माण होता रहा है, बल्कि नए हथियारों के आविष्कारों के पीछे का तर्क भी शांति की स्थापना ही है. वास्तव में हमने शांति की परिभाषा ही ऐसी गढ़ी है.

'शांति की अवस्था का मतलब है जहां लोग अपने विवादों और झगड़ों को बिना हिंसा के निपटा सकें, टकराव से संबंधित संयमित व्यवहार, हिंसा के भय से मुक्ति, ऐसा समय जब कोई युद्ध न हो या युद्ध खत्म हो चुका हो'; शांति में युद्ध, टकराव, हिंसा और अस्थिरता को सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना गया है. ऐसा क्यों. वास्तव में तो शांति इन तत्वों से ऊपर की अवस्था है. शांतिको सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जीवन का मूल्य नहीं माना गया है. बीसवीं सदी में रची गई विकास की परिभाषा, जिसमें किसी भी कीमत पर आर्थिक मुनाफे और आर्थिक उपनिवेशवाद को तवज्जो दी गयी है, में शांति की स्थिति को हासिल करना भी एक उपजाऊ अवसर ही माना गया है. स्वाभाविक है कि शांति हासिल हो जाने से वैश्विक आर्थिक राजनीति को नुकसान होता है, इसलिए हमेशा शांति की स्थिति हासिल करने की कोशिश की जाती है, शांति वास्तव में स्थायी रूप से स्थापित की नहीं जाती है.

इंस्‍टीट्यूट ऑफ इकोनोमिक्स एंड पीस की रिपोर्ट वैश्विक शांति सूचकांक (ग्लोबल पीस इंडेक्स, 2015) बताती है कि विश्व में लगातार अशांति बढ़ रही है. क्या हमने कभी यह सोचा है कि दुनिया की 720 करोड़ लोगों की आबादी में से दुनिया के 20 शांत देशों में कुल 50 करोड़ लोग रहते हैं, जबकि 230 करोड़ लोग दुनिया के 20 सबसे अशांत देशों में रह रहे हैं. यहां शांति की स्थिति को मापने के 5 पैमाने ये हैं -  जनसंख्या में से शरणार्थी और आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों की संख्या, आंतरिक टकरावों में होने वाली मौतें, आतंकवाद का असर, हिंसक प्रदर्शनों-विरोध और आपराधिकता का स्वभाव. वर्ष 2008 में इन पांच में से तीन संकेतों से प्रभावित देशों की संख्या तीन (सोमालिया, इराक और सूडान) थी, जो वर्ष 2015 में बढ़कर 9 (सीरिया, अफगानिस्तान, सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, दक्षिण सूडान, कांगो और पाकिस्तान जुड़े) हो गई.

दुनिया के शांत और अशांत देश
दुनिया में पांच सबसे शांत देश –आइसलैंड, डेनमार्क, ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड और स्विट्ज़रलैंड माने गए हैं जबकि पांच सबसे अशांत देश सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, साउथ सूडान और सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक रहे. भारत कहां है. 162 देशों की सूची में भारत 143वें स्थान पर रहा. अमेरिका भी सबसे शांत देशों में नहीं है, इसका स्थान 94वां है. क्यूबा, मोरक्को, अंगोला, बोलीविया, होंडुरास श्रीलंका, म्यांमार, कीनिया भारत से बहुत बेहतर स्थिति में हैं.

रूस और यूक्रेन के बीच टकराव चल रहा है, सरकार का हथियारों पर खर्चा बहुत ज्यादा है और भीतर भी स्थिति खराब ही है. इन कारणों से रूस 152वें स्थान पर है. सैन्य ताकत के संदर्भ में हम बार-बार इजराइल का नाम लेते हैं, पर यह देश भी शांति में नहीं है. इसकी हालत भारत से खराब है. इजराइल का स्थान 148वां, पाकिस्तान का 154वां, उत्तर कोरिया का 153वां है. प्रसन्नता, सुख और शांति को विकास का सूचक मानने वाले भूटान का स्थान 18वां है.

कहां क्‍यों शांति और अशांति
यूरोप दुनिया का सबसे शांत अंचल है. डेनमार्क की स्थिति खराब हुई क्योंकि उसने अपने सैन्य खर्चे को बढ़ाना शुरू कर दिया और कोपेनहेगन में आतंकी हमला हुआ. फ्रांस और बेल्जियम में भी आतंकी हमले हुए और इनसे वहां की शांति में खलल पड़ा. फ्रांस में चार्ली हेब्दो पत्रिका के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ था. यूनान के सामने आर्थिक संकट छाया रहा पर उसने हिंसक अपराधों में कमी की, राजनीतिक आतंक को कम किया और आंतरिक शांति बनाए रखी. पुर्तगाल में आर्थिक अस्थिरता की स्थिति थी. वह यूरोपीय यूनियन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों के जाल से बाहर निकला और राजनीतिक स्थिरता को पा सका. इससे वहां स्थिति बेहतर हुई. सर्बिया में स्थिर सरकार बनी इसलिए वहां की स्थिति में सुधार हुआ.

यूनाइटेड किंगडम की स्थिति में पिछले कुछ सालों में बेहतर हुई क्योंकि वह अफगानिस्तान में चल रहे सैन्य अभियान से बाहर आ गया. उत्तर अमेरिका में कनाडा एक शांत देश माना जाता रहा है. हालांकि कनाडा संसद के बाहर सैनिक की हत्या से वहां भी आतंकवाद का असर दिखाई दिया. उसी घटना को आधार बनाकर कनाडा में आतंकवाद निरोधी अभियान को और ज्यादा शक्तियां दे दी गईं. कनाडा इस्लामिक राज्य के खिलाफ चल रहे अंतर्राष्ट्रीय अभियान में अब ज्यादा सक्रिय है. अमेरिका युद्धों का सबसे ज्यादा फायदा उठाता रहा है. दुनिया भर के युद्धों में अमेरिका सबसे ज्यादा हथियार बेचता है. पिछले सालों में उसने अफगानिस्तान और इराक में अपने खर्चे कम करने की पहल शुरू की; पर यह भी उतना ही सच है कि वह अब पृथ्वी के दूसरे देशों की तरफ मुड़ गया है.

एशिया पेसिफिक देशों में न्यूजीलैंड सबसे बेहतर स्थिति में है. एशिया पेसिफिक दुनिया का सबसे विविधता वाला क्षेत्र है. इसमें न्यूजीलैंड जैसा देश भी है, मंगोलिया भी, वियतनाम भी, तिमोर लेस्टे, कम्बोडिया, चीन और उत्तर कोरिया जैसे देश भी हैं. दुनिया के शांत देशों की सूची में सबसे ऊपर के देशों में यहां से तीन देश हैं और सबसे नीचे की देशों में उत्तर कोरिया भी है. दक्षिण चीन सागर पर नियंत्रण को लेकर चीन, वियतनाम और फिलीपींस के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है. यह पानी में युद्ध के आसार बने रहते हैं. फिलीपींस के भीतर ही सरकार और विद्रोही गुटों के बीच टकराव बढ़ रहा है. म्यांमार में मार्शल लॉ के कारण राजनीतिक-सामाजिक स्थिरता नहीं आ पाई है लेकिन पिछले कुछ महीनों में वह राजनीतिक गतिविधियां तेज हुई हैं. उत्तर कोरिया इस वक्त भी एक निरंकुश सत्ता से चल रहा है. विनाशकारी हथियारों की होड़ और अपनी ताकत को साबित करने की जुगत में लगा यह देश पूरी दुनिया के माथे की लकीरों में बैठा दिखाई देता है. इस अंचल में इंडोनेशिया ने आतंक और अंदरूनी संघर्षों को बेहतर ढंग से निपटाने की कोशिश की है. जापान और ऑस्ट्रेलिया भी शांत देश ही माने जाते हैं, लेकिन ऑस्ट्रेलिया में दक्षिण एशियाई नागरिकों के साथ नस्लभेदी व्यवहार के मामले ज्यादा सामने आए हैं.

दक्षिण अमेरिकी अंचल में चिली, इक्वेडोर और पेरू के स्थिति अच्छी बनी है. इन देशों ने हथियारों के निर्यात, राजनीतिक टकरावों, अंदरूनी हिंसक संघर्षों के कारण होने वाली मौतों को नियंत्रित किया है. उरुग्वे में सैन्य भर्तियों और पुलिस दर में वृद्धि के कारण माहौल में अशांति आई है. ब्राजील में राजनीतिक अस्थिरता, विचारधारा के टकरावों के कारण हिंसक प्रदर्शनों की आशंका बढ़ी है. ब्राजील में आर्थिक मंदी, मंहगाई में बढ़ोतरी और भ्रष्टाचार के मामलों के कारण सामाजिक असंतोष बढ़ रहा है. वेनेजुएला में आंतरिक समस्याएं बढ़ रही हैं. अमेरिका ने उसे चुनौती देने वाले इस देश को अपनी नीतियों के जाल में फंसा लिया है. वेनेजुएला रूस के सहयोग से अपनी सैन्य ताकत को बढ़ाने की कोशिश में लगा रहा है. वहां की राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता के चलते हिंसक टकराव की आशंका बनी हुई है. कोलंबिया में शरणार्थियों और अंदरूनी विस्थापित लोगों की बढ़ती संख्या से समस्याएं बढ़ना लाजिमी है. कोलंबिया में अंदरूनी टकराव (फर्जेस आर्माडास रिवाल्युश्नरीस द कोलंबिया गुरिल्ला) भी बना रहा है.
   
मध्य अमेरिका और कैरिबियाई देशों के संदर्भ में कोस्टारिका में लंबे समय से चलते रहे जनसंहारों के मामलों में कमी आई है और उसने अपने पड़ोसी देशों से रिश्तों को बेहतर किया है. जमैका में संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति सेनाओं ने रचनात्मक भूमिका निभाई है, लेकिन यहां का हालिया इतिहास बहुत हिंसक रहा है. निकारागुआ और अल साल्वाडोर में भी अंदरूनी टकराव की स्थिति लगातार बनी हुई है. वैश्विक ताकतों ने ग्वाटेमाला, अल साल्वाडोर और होंडुरास के साथ जमैका, त्रिनिदाद और टोबैगो को माफिया युद्ध का केंद्र बना दिया. कारण प्राकृतिक संसाधन और नशीले पदार्थों का व्यापार! इन स्थितियों से निपटने के लिए ये देश हथियारों और पुलिस-सेना पर ज्यादा खर्च करने की कोशिश करते हैं, जिससे और आर्थिक संकट में फंसते जाते हैं. इस अंचल में मेक्सिको की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है.

उपसहारा अफ्रीका में राजनीतिक प्रक्रियाओं से शांति स्थापित करने की कोशिशें जारी हैं. गुएना-बिस्साऊ और आइवरी कोस्ट ने सामाजिक सुरक्षा, सीमाओं की सुरक्षा, घरेलू संघर्षों और अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों से निपटने की दिशा में शांतिपूर्ण चुनावों और विद्रोही समूहों के कम होते आक्रमणों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बेनिन में हिंसा कम करने में चुनावों की घोषणा ने बड़ी भूमिका निभाई. वहां अदालत ने यह आदेश दिया कि राष्ट्रपति तीसरी बार सत्ता में नहीं आ सकते हैं, जैसा कि तत्कालीन राष्ट्रपति चाहते थे. बहरहाल जिबूती में घरेलू सामाजिक टकराव जारी हैं, हिंसा हो रही है और लोग अधिनायकवादी सरकार के खिलाफ खड़े हैं. जिबूती की सीमा सोमालिया से मिलती है, जहां से हथियारों की आवाजाही होती रहती है. नाइजर पर आतंवाद का गहरा प्रभाव है. यहां नाइजीरिया से उभरे आतंकवादी समूह बोको हराम की जड़ें जमी हुई हैं. वर्ष 2015 में इस समूह ने नाइजर में कई हिंसक हमले अंजाम दिए. दक्षिण सूडान में नागरिक संघर्ष होता रहा है.

रूस और यूरेशिया के क्षेत्र में भी अशांति बढ़ी है. रूस ने क्रीमिया के राज्य हरण और डोंबस अंचल में युद्ध जैसे हालातों के प्रभावों के चलते यूक्रेन में अशांति बढ़ी है. शुरुआत में यह टकराव देश के बाहर से संचालित नज़र आता था, पर अब इसने घरेलू संघर्ष का रूप ले लिए है. भू-राजनीतिक हितों के चलते रूस और पश्चिमी देशों के बीच टकराव बढ़ रहा है. अज़रबैजान और आर्मेनिया के बीच संघर्ष विराम का उल्लंघन हुआ. ऐसे में अज़रबैजान ने हथियारों के आयात में वृद्धि कर दी. हिंसक अपराधों और राजनीतिक अस्थिरता में कम के कारण जार्जिया, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान में शांति का माहौल बनना शुरू हुआ है.

दक्षिण एशिया की शांति मध्यपूर्वी एशिया से सीधे जुड़ी हुई है. इस अंचल में व्यापक स्तर पर भूटान, नेपाल और बांग्लादेश की स्थिति में सुधार दिखता है. परंतु हाल ही में बांग्लादेश में हुए आतंकी हमले से यह साफ़ पता चलता है कि संकट वहां भी बढ़ रहा है. अफगानिस्तान से बाहरी सेनाओं के निकलने की प्रक्रिया शुरू हुई है, पर पूर्व की स्थितियों के कारण घरेलू संघर्ष के बढ़ने की आशंका बनी हुई है. वहां भी आतंकी हमले जारी हैं. भारत के लिए पाकिस्तान एक स्थायी विषय है. खास तौर पर शांति और आतंकवाद के संदर्भ में. स्थितियां बताती है कि पाकिस्तान खुद आतंकवाद का बहुत बड़ा शिकार है. अमेरिका ने पाकिस्तान की राजनीतिक दुर्भावना का इस्तेमाल किया और भारत को निशाने पर रखा. यदि पाकिस्तान के हाथ में आतंकवाद की चाबी होती, तो वह खुद इस तरह आतंकवाद का स्‍थायी शिकार नहीं बनता. पिछले 3 सालों में भारत से ज्यादा आतंकी हमले पाकिस्तान के भीतर ही हुए हैं. भारत आतंकवाद से प्रभावित है, पर आर्थिक-राजनीतिक-सशस्‍त्र संघर्ष यानी नक्सलवाद का असर भी गहरा है. बार-बार यह माना जाता रहा है कि सैन्य हमलों से नक्सलवाद की समस्या का निदान नहीं हो सकता है. इसके लिए सामाजिक-आर्थिक-संसाधन आधारित समानता लानी होगी.

मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका शांति से बहुत दूर होता जा रहा है. पिछले सालों में इजिप्ट (मिस्र) और ट्यूनीशिया में राजनीतिक-घरेलू उठापटक शुरू हुई. संघर्ष लोकतंत्र के लिए हो रहा था. उसे आंतरिक युद्ध में बदलने की कोशिशें भी हईं, पर राजनीतिक पहलों से संकट बढ़ा नहीं. इसके दूसरी तरफ लीबिया, यमन, इराक और सीरिया में अशांति की आग बढ़ती गई है. संसाधनों पर कब्ज़े, खास तौर पर तेल के लिए अमेरिका जैसे देशों के लोभ ने व्यापार को युद्ध के बराबर ला खड़ा किया. तर्क यह दिया कि हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं जबकि लक्ष्य तो तेल पर कब्ज़ा करना और आर्थिक उपनिवेशवाद कायम करना था. हम सब जानते हैं कि पिछले 5 सालों में अरब देशों में सत्ता परिवर्तन, नेतृत्व परिवर्तन, व्यवस्था परिवर्तन और लोकतंत्र के लिए संघर्ष हुए. इन संघर्षों में नागरिकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, किन्तु लोकतंत्र के संघर्ष का इस्तेमाल उपनिवेशवाद (धार्मिक-राजनीतिक रास्तों से आर्थिक उपनिवेशवाद स्थापित करना) स्थापित करने के लिए किया गया. अब अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष को सुन कर यह साफ़ पता चल जाता है कि वहां इस्लाम और अल्प-विकसित देशों के प्रति किस तरह का राजनीतिक-सामाजिक नजरिया बन रहा है!
अगर गौर से देखें तो हमें पता चल जाएगा कि किसी भी युद्ध में कम से कम दो देश बर्बाद होते है–एक वह देश जिसके खिलाफ अमेरिका लड़ता है और दूसरा वह देश, जिसकी धरती से अमेरिका लड़ता है. इससे कई देशों में सशस्त्र टकराव बढे, गृह युद्ध के हालात बने. इससे कुछ देशों को फायदा हुआ. उन्हें सस्ता पेट्रोल मिला और आर्थिक रूप से मज़बूत अरब देश बेहद कमज़ोर हो गए.    

हिंसा की कीमत
केवल एक साल (वर्ष 2014) में दुनिया के छह देशों के उदाहरण से अशांति के असर का अंदाजा लगाया जा सकता है. सीरिया में एक साल में 71667 लोग मरे, 95.50 लाख लोग विस्थापित हुए. 30.29 लाख लोग शरणार्थी बने. 56.73 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। यह सरिया से सकल घरेलू उत्पाद का 42 प्रतिशत हिस्सा है. इराक में 18489 लोग मरे. 23.30 लाख लोग विस्थापित हुए. 1.52 खरब डॉलर की कीमत चुकानी पड़ी. यह राशि इराक के सकल घरेलू उत्पाद का 31 प्रतिशत है. यमन में 3836, लीबिया में 3060, इजराइल में 2414, लेबनान में 360 लोग मरे. इन छः देशों ने युद्धों के लिए 271.55 अरब डॉलर की कीमत चुकाई. हमें यह याद रखना होगा कि युद्ध किसी मकसद से रचे जाते हैं. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लगभग सभी युद्ध हथियारों की बिक्री, तेल पर कब्ज़े और एक खास समुदाय के अस्तित्व को खत्‍म करने के मकसद से रचे गए.
 
वर्ष 2001 के बाद 15 सालों में युद्धों में अमेरिका ने 4.79 ट्रिलियन डॉलर (4.79 के बाद 12 शून्य) का निवेश किया है. यह निवेश शांति  के लिए नहीं प्रभुसत्ता के लिए किया गया निवेश था। सहमत न हों तो, एक बार फिर से शान्ति की आधुनिक परिभाषा पढ़िए! अमेरिका डॉलर छाप कर दूसरे देशों की मुद्रा को कमज़ोर करता है और दूसरे देशों के संसाधन को अपने हितों में इस्तेमाल करके उन्हें खोखला करता जाता है. आखिर में दो-चार देशों को छोड़कर बाकी दुनिया अमेरिका के सामने हर कोण से झुक जाती है.

सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं...

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