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This Article is From Jan 15, 2015

रवीश कुमार की कलम से : भाजपा की किरण - बल्ले बल्ले बेदी बेदी

Ravish Kumar, Vivek Rastogi
  • Blogs,
  • Updated:
    जनवरी 15, 2015 18:27 pm IST
    • Published On जनवरी 15, 2015 18:24 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 15, 2015 18:27 pm IST

गूगल हमारे सार्वजनिक जीवन का सबसे अच्छा पहरेदार हो सकता है। जैसे ही घोषणा हुई कि किरण बेदी भाजपा में शामिल होने जा रही हैं, 28 अगस्त, 2013 की तारीख को छपा उनका एक बयान मिलता है। आम आदमी पार्टी ने किरण बेदी को टिकट देने और मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाने का प्रस्ताव किया था। इसे ठुकराते हुए किरण बेदी ने कहा था कि मैं ऐसी पेशकश का सम्मान करती हूं। पूरी तरह से उन संभावनाओं को भी समझती हूं, जिनके कारण मुझे पेशकश हो रही है, लेकिन मैं अस्वीकार करती हूं, क्योंकि मैं गैर-राजनीतिक शख्सियत हूं। किरण बेदी ने यह बात ई-मेल के जरिये फर्स्टपोस्ट से कही थी।

आज 15 जनवरी, 2015 है। किरण बेदी राजनीतिक व्यक्ति हो चुकी हैं। यह बदलाव कैसे आया, इसका जवाब उनके बयानों से ज़्यादा भाजपा की राजनीतिक संभावनाओं से मिलेगा, जिसकी सदस्य आज वह बन गई हैं। 22 नवंबर, 2014 को किरण बेदी का एक और बयान गूगल से निकलता है, जिसमें वह कहती हैं कि अटकलें चलती रहेंगी। मैं सार्वजनिक व्यक्ति तो हूं, लेकिन मैं राजनीतिक नहीं हूं। सार्वजनिक और राजनीतिक होने में फर्क है। मैं बीजेपी में शामिल होने की तमाम खबरों से इनकार करती हूं। मैंने कब कहा कि किसी पार्टी की सदस्य बन जाऊंगी। मैंने कभी नहीं कहा कि मैं बीजेपी ज्वॉइन करूंगी।

कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के समर्थक गूगल से ऐसे बयान निकालकर ट्विटर पर किरण बेदी को घेर रहे हैं। अरविंद केजरीवाल ने किरण बेदी की तारीफ करते हुए कहा कि मैं हमेशा कहता रहा कि राजनीति में आइए और आज वह राजनीति में आ गई हैं। आम आदमी पार्टी ने भी स्वागत किया है। किसी भी व्यक्ति के पास किसी भी दल में कभी भी शामिल होने के पक्ष में हज़ार तर्क होते हैं। देश की सेवा से लेकर विचारधारा और व्यक्ति से प्रभावित होने के तर्कों का एक फॉरमेट हमारे सार्वजनिक जीवन में तैयार रहता है, लेकिन बीजेपी ने अपनी तरफ से उपलब्ध विकल्पों में सबसे बेहतर विकल्प का इस्तेमाल किया है। तुरुप का पत्ता चलना कहते हैं। यह उपलब्धि बीजेपी की भी है कि उसने किरण बेदी को तैयार कर लिया।

लोकसभा चुनाव, 2014 की तरह अब कोई वैसी परिस्थिति भी नहीं है, जिससे देश के उबारने के नाम पर कांग्रेस से लेकर तमाम दलों के लोग बीजेपी में आ गए। किरण बेदी तब भी बीजेपी में नहीं आई थीं। ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करती थीं, मगर इससे ज्यादा कुछ नहीं। अरविंद केजरीवाल पर भी कभी व्यक्तिगत हमला नहीं किया। इस मामले में उन्होंने कभी भी शाज़िया इल्मी की तरह नहीं कहा कि वह आम आदमी पार्टी के खिलाफ खुलासे करने वाली हैं। वैसे इन दोनों नेताओं से भी पूछा जाना चाहिए कि सूचना के अधिकार, पार्टी फंड और लोकपाल के मामले में उनकी राय अब अपनी है या वही है, जो बीजेपी की होगी। कांग्रेस और बीजेपी ने अपने पैसे का हिसाब सूचना के अधिकार के जरिये देने से इनकार कर दिया था कि वे चुनाव के बाद चुनाव आयोग को रिपोर्ट सौंपते ही हैं। क्या अब भी लोकसभा चुनाव जैसी कोई स्थिति है, जिससे उबारने के लिए किरण बेदी भाजपा में आ गई हैं।

किरण बेदी तरह-तरह से इसकी सफाई देंगी, लेकिन बीजेपी ने किरण बेदी के सहारे अरविंद केजरीवाल को मज़बूत चुनौती दी है। दरअसल बीजेपी यही करती है। जब केजरीवाल अपने खुलासों से बीजेपी को नेता बदलने पर मजबूर कर देते हैं, तब बीजेपी उनकी छवि वाला कोई नेता ले आती है। पिछली बार विजय गोयल को हटाकर हर्षवर्द्धन को ले आई। इससे केजरीवाल की सरकार बनते-बनते रह गई और बीजेपी भी बराबरी पर आ गई। इस बार जब गुरुवार का दिन बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय पर लगे आरोपों और उसके जवाबों में गुज़रता, बीजेपी ने किरण बेदी को उतारकर उपाध्याय पर लगे आरोपों की राजनीति की हवा निकाल दी। आज मीडिया में किरण बेदी ही होंगी। यह और बात है कि डाक्टर हर्षवर्द्धन इस एक साल में ईमानदार और पोलियो के नायक की छवि से कहीं दूर चले गए हैं। वह अब स्वास्थ्य मंत्री भी नहीं हैं, जिसके लिए उनकी तारीफ होती थी।

किरण बेदी के आते ही बीजेपी की रणनीति पिछले एक साल में पहली बार बदली है। लोकसभा चुनावों में शानदार जीत हासिल करने के बाद बीजेपी ने विधानसभा का हर चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नाम और चेहरे से ही लड़ा और जीता भी। बीजेपी के नेता कहते रहे कि राज्यों में भी मोदी की सरकार बनेगी। मुख्यमंत्री कौन होगा, जनता नहीं, मोदी चुनेंगे या पार्टी चुनेगी। क्या दिल्ली में किरण बेदी के आने से यह रणनीति बदल रही है। क्या बीजेपी किरण बेदी को अरविंद केजरीवाल के सामने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उतारेगी। हर सर्वे में व्यक्तिगत तौर पर केजरीवाल को काफी बढ़त हासिल थी। अब सर्वे के हर दौर में दो नेता आमने-सामने होंगे। इसमें कांग्रेस के अजय माकन भी होंगे, लेकिन उनकी स्थिति को लेकर ज्यादा अटकल लगाने की ज़रूरत नहीं दिखती है।

दिल्ली में लगे भाजपा के तमाम पोस्टरों पर किसी दिल्ली के नेता का भी फोटो नहीं है। हर स्लोगन और वादे के साथ सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं... तो क्या इस बार दिल्ली के पोस्टरों में भी बदलाव होगा। नरेंद्र मोदी की जगह या उनके साथ-साथ किरण बेदी पोस्टरों में होंगी। बीजेपी की यह तय रणनीति है। लोकसभा से लेकर हर जगह वह अपने विरोधी दल के नेता, उम्मीदवार और उससे जुड़े चेहरे को शामिल करा लेती है। वह कई जगहों पर अपनी ताकत विरोधी की ताकत को मिलाकर बढ़ा लेती है। यानी अपने पास नेता नहीं हैं तो उनके नेता को अपना बना लो। किन परिस्थितियों में इतने सारे नेताओं का दलबदल होता है, इसे आप सिर्फ राष्ट्रवादी व्याख्या से नहीं समझ सकते। राजनीति भी कोई चीज़ होती है।

अब बीजेपी की तरफ से भी अन्ना आंदोलन से निकली टीम आम आदमी पार्टी का मुकाबला करेगी। पुराने नेता सारथी की तरह लड़ाई लड़वाएंगे। शाज़िया इल्मी, बिन्नी, उपाध्याय बीजेपी की तरफ से मोर्चा संभालेंगे। बीजेपी में आम आदमी पार्टी से कुछ और नेता भी आ गए तो क्या अचरज। आज ही खबर आई है कि ममता बनर्जी सरकार के एक मंत्री बीजेपी में शामिल हो गए, पर यह सब करने का मौका सारी पार्टियों के पास मौजूद रहता है और सबने ऐसा किया है।

बीजेपी को दिल्ली के लिए नेता मिल गया है। किरण बेदी पर भी कोई दाग नहीं है। अन्ना आंदोलन के समय अरविंद केजरीवाल की तरह किरण बेदी पर भी आरोप लगे थे। एक एनजीओ ने आरोप लगाया था कि वह बिजनेस क्लास के टिकट लेकर इकोनॉमी क्लास में चलती हैं। इस तरह के आरोपों से अन्ना आंदोलन को कमज़ोर करने का खूब दौर चला था। किरण बेदी पर कोई इससे ज्यादा गंभीर आरोप तो नहीं हैं, हां, उन्होंने आरटीआई कानून के संदर्भ में बीजेपी की खिंचाई भी की थी। दंगों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर सवाल ज़रूर दागे थे।

दिल्ली के मतदाताओं का भी इम्तिहान है। वे किसे चुनते हैं। एक तरफ अरविंद केजरीवाल हैं, जो लोगों के बीच हैं। अपनी गलती के लिए माफी मांग रहे हैं। सभाएं कर रहे हैं। दूसरी तरफ चुनाव से 15-20 दिन पहले आईं किरण बेदी हैं। वह चुनावी राजनीति में नहीं हैं, लेकिन सार्वजनिक जीवन में काफी दिनों से हैं। मुकाबला इतना कांटेदार होगा कि मतदाता के लिए फैसला करने में कम तनाव नहीं होगा। अब देखना होगा कि आम आदमी पार्टी किरण फैक्टर का कैसे मुकाबला करती है। बीजेपी से लड़ना इतना आसान नहीं है। आज वह एक पेशेवर और ताकतवर पार्टी है।

दिल्ली चुनावों को लेकर गला-काट प्रतियोगिता चल रही है। कुमार विश्वास ने आज ट्वीट किया है, 'युद्धों में कभी नहीं हारे, हम डरते हैं छल-छन्दों से, हर बार पराजय पाई है, अपने घर के जयचन्दों से...' कवि विश्वास का यह तुक नहीं, तीर है। ऐसे तीर दोनों तरफ से चलेंगे। बस आप बचकर रहिएगा। दो ईमानदार नेताओं के बीच की लड़ाई में दांव पर ईमानदारी ही है। सियासत में हार ईमानदारी की होती है। आगे भी होगी।

अन्ना आंदोलन का वैसे भी फलूदा निकल चुका है। अब इसके बाकी बचे अवशेषों की भी चीर-फाड़ होगी। लोकपाल का मरा-मरा-सा कानून कहीं मूर्छित पड़ा है। कोई गला नहीं फाड़ेगा कि लोकपाल कहां है, क्योंकि लोकपाल के दोनों योद्धा एक-दूसरे का गला काटने मैदान में जंग लड़ रहे होंगे। इस आंदोलन को अपने पक्ष में मोड़ने में नरेंद्र मोदी तब भी सफल हो गए थे और आज भी। राजनीति में जो चालाक होता है, वह मारा जाता है। जीतता वह है, जो चालें चलता है, मगर चालाक नहीं लगता। दिल्ली के चुनाव की इस दमदार लड़ाई का मज़ा लीजिए। हां, सांस रोके रहिएगा और नाखूनों को मत चबा जाइएगा।

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