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This Article is From Feb 23, 2015

रवीश कुमार : लोकतंत्र के दुर्लभ पदयात्री

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    फ़रवरी 23, 2015 15:20 pm IST
    • Published On फ़रवरी 23, 2015 14:29 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 23, 2015 15:20 pm IST

नई दिल्‍ली : रामलीला मैदान का क्षेत्रफल एक लाख साठ हज़ार वर्गफुट है। एक आदमी पालथी मारकर बैठता है तो चार फुट जगह लेता है इस हिसाब से रामलीला मैदान में अगर लोग बिठाए जाएं तो चालीस हज़ार से ज्यादा आ ही नहीं सकते। कुर्सियां लगाएंगे तो पैंतीस हज़ार से ज्यादा लोग नहीं आ सकते।

अगर आप खड़े कर देंगे तो अस्सी हज़ार ही लोग आ सकते हैं तब जब सारे लोग एक दूसरे से चिपके हों। एकता परिषद के रमेश भाई का यह हिसाब बता रहा था कि आंदोलन और सत्याग्रह मार्च को लेकर उनकी तैयारियां कितनी बारीक हैं। हम पत्रकार आज तक नहीं जान सके और रामलीला मैदान में कितने लोग आए या आ सकते हैं। बेवजह हम साठ या अस्सी हज़ार की दावेदारियों को भाव देते रहते हैं।

फरीदाबाद से दिल्ली की तरफ सत्याग्रहियों का मार्च चला आ रहा है। 17 राज्यों से आए किसान कतारबद्ध चल रहे हैं। हर दस बारह किलोमीटर पैदल चलने के बाद दस मिनट का विश्राम करते हैं। भूमि अधिग्रहण की नीति के खिलाफ इन किसानों के मार्च में आम शहरी को जाकर देखना चाहिए कि बिना पैसे के सिर्फ निष्ठा के दम पर आंदोलन कैसे तैयार होता है। मैं कैमरा लेकर भीड़ में इधर से उधर हो रहा था। एक भी किसान या भूमिहीन ने कैमरे में झांकने का प्रयास नहीं किया। सेल्फी तो छोड़ ही दीजिए। किसी ने अतिरिक्त प्रयास नहीं किये कि उनकी बात कैमरे में आ जाए। पांच हज़ार लोगों की भीड़ में हमें ऐसा कम ही देखने को मिलता है।

रमेश भाई बताने लगे कि हर व्यक्ति ने रोज़ एक रुपया और एक मुट्ठी चावल हमारे आंदोलन के लिए निकाला है। यही हमारी ताकत हैं। इनका सत्याग्रह समर्पण का सत्याग्रह है। खुद तकलीफ झेलकर आपको मजबूर करते हैं कि आप उनकी बात सुनें। 20 फरवरी से चल रहे हैं। हमने एक हज़ार लोगों पर एक किचन का प्रबंध किया है। केरल से आए किसान के लिए अलग खाना बनेगा तो बिहार वाले किसान के लिए अलग। 17 राज्य के लोग हैं तो उनके खानपान का भी ख्याल रखा गया है। ये किसान शहरी खाना नहीं खा सकते। इनकी आदत नहीं है।



और हां। जैसे ही रमेश भाई ने और हां कहा मैं चौंक गया। और क्या। रमेश भाई ने कहा कि जिनते भी लोग इस कतार में चल रहे हैं सब एक ही शाम का खाना खाते हैं। एक शाम का खाना खाकर ये दिन भर पैदल चलते हैं। दिल्ली की तरफ बढ़ रहे हैं। हमारे पास संसाधन सीमित हैं। एक महिला मेरे पास भी आई। उसके हाथ में एक मटका था। मैंने झांक कर देखा कि कुछ पैसे हैं। पैसा देने से पहले मैंने हाथ डालकर देखा कि सबसे बड़ा नोट कितने का है। आप पाठक हैरान हो जाएंगे। सबसे बड़ा नोट दस रुपये का था। मैंने भी अपनी हिस्सेदारी निभा दी। कितना दिया यह नहीं बताया जाता है।

दिल्ली की तरफ आ रही इस भीड़ से बहुत कुछ सीखने के लिए है। ये बहुत सुन्दर गाने गा रहे हैं। इनके नारे किसी को धमकाते नहीं हैं। समझा रहे हैं कि बदल जाओ। हमें सुने। आपका विकास हमारे लिए नहीं तो फिर किसके लिए हो सकता है। ये लोग आपसे धन दौलत नहीं मांग रहे हैं। अपनी ज़मीन अपना सहारा मांग रहे हैं।

रमेश भाई अपने आंदोलन की बात बताने में व्यस्त थे। कोई भी आदमी अगर कतार से इधर से उधर हुआ तो हमें ठीक दस मिनट के भीतर पता चल जाता है कि कहां गया या उसके साथ क्या हुआ। हमने एकता परिषद के राजगोपाल के बारे में जानना चाहा। राजगोपाल 19 साल की उम्र से ज़मीन और उससे प्रभावित संबंधों को लेकर लोगों के बीच काम कर रहे हैं। जब मैंने उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया तो हंस पड़े कि अरे भाई मद्रासी हिन्दी चाहिए तो मुझे बोलो लेकिन धाराप्रवाह हिन्दी चाहिए तो रमेश भाई से बात कर लो।

राजगोपाल कमाल के नेता हैं। आज जब संगठन और संसाधन की बात होती है हम किसी मज़बूत नेता, संसाधनों से लैस उसकी टीम और हज़ारों लैपटाप लिये युवाओं का ही ध्यान करने लगे है जो मिनटों में हैशटैग से मुद्दे को ट्रेंड करा देता हो। मगर राजपाल इन सब के बिना ही हज़ारों लोगों को साथ लिये चल रहे हैं। इनके साथ चल रहे लोगों की आवाज़ ट्वीटर पर नहीं है मगर इनकी आवाज़ अभी इतनी भी कमज़ोर नहीं पड़ गई है कि कोई सरकार सुने ही न।

सरकार भी इनकी ताकत जानती है। इनकी सादगी की ताकत से डरती भी होगी। इसलिए दिल्ली पहुंचने से पहले इन्हें सरकार से बातचीत का न्यौता मिल गया है। पिछली सरकार में मंत्री दिल्ली से बहुत पहले ही उनके बीच चले गए हैं। ये लोग आप मध्यमवर्गीय चेतना वाले लोगों को यकीन दिलाना चाहते हैं कि आपके दुश्मन नहीं हैं। देश और विकास के दुश्मन नहीं हैं। बस आपसे संवाद करना चाहते हैं। विकास के मुद्दे पर आपकी समझ के सामने अपनी समझ रखना चाहते हैं।

इनका प्रभाव हमेशा अच्छा पड़ा है। इन लोगों की सादगी में दम नहीं होता तो 121 साल बाद भी भूमि अधिग्रहण का कानून नहीं बनता। आज उस कानून में हुए संशोधन के बाद जो अध्यादेश आया है उसे लेकर विवाद हो रहा है। रमेश भाई ने बताया कि हम संस्थाओं को भी संवेदनशील बनाते हैं। 2007 में हमारे लोगों की सादमी और अनुशासन से दिल्ली पुलिस भी प्रभावित हुई थी। दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने हमें धन्यवाद पत्र दिया था। ऐसा आपने कब सुना हो कि कोई रैली आई हो और उसके शांतिपूर्ण वापसी के बाद पुलिस धन्यवाद पत्र लिख रही हो। यही नहीं दिल्ली पुलिस के अफसरों ने रात अंधेरे में सत्याग्रहियों में मौजूद महिलाओं के लिए आठ हज़ार साड़ियां बांटी थीं। हरियाणा पुलिस ने खुद से पैसे देकर उन किसानों के लिए चंदा दिया था जिनकी पदयात्रा के दौरान मौत हो गई थी।

मीडिया में इस आंदोलन को कई चश्मे से देखा जाएगा लेकिन बेहतर होगा कि आप चश्मा उतार कर अपने ही देश के दूर दराज़ के इलाकों से आए लोगों के साथ थोड़ी दूर चलकर महसूस कीजिए। आपको अपने ही देश के लोकतंत्र का दूसरा चेहरा दिखेगा। अच्छा लगेगा।

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