23 मई को जो भी नतीजे आएं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की स्टेटस रिपोर्ट तैयार है - उनका कद घटा दिया गया है.
68 वर्षीय नीतीश कुमार को लगातार साझीदार बदलते रहने की वजह से भारतीय राजनीति में बेहद कमतर माना जाने लगा है. भले ही वो अब भी बिहार के मुख्यमंत्री हैं लेकिन पिछले महीने के आखिर में पीएम मोदी के साथ एक ही मंच पर उनके बुझे हुए चेहरे ने उनकी दशा जाहिर कर दी. नीतीश ने 'भारत माता की जय' के नारे नहीं लगाए और मंच पर खामोश बैठे रहे. पीएम मोदी की बिहार रैली में नीतीश कुमार शांत बैठे रहे जबकि बाकी लोग वंदे मातरम के नारे लगाते रहे.
नीतीश अपने भावशून्य चेहरे पर गर्व करते हैं. एक बार पटना में मुख्यमंत्री आवास पर एक टीवी इंटरव्यू के दौरान मुझे उन्हें रोकते हुए कहना पड़ा था कि उनके जवाबों में पंच की कमी है. नीतीश तुरंत ही समझ गए और बोले 'दोबारा शूट करते हैं' लेकिन ये भी कहा कि मैं दूसरे बिहारी राजनेताओं की तरह नहीं हूं, जो हंसी ठिठोली करते हैं. उनका इशारा लालू यादव की तरफ था जो अपनी पंचलाइनों के लिए जाने जाते हैं और जो कभी सियासत में उनके साझेदार रहे तो कभी दुश्मन.
इस टिप्पणी से ये भी पता चलता है कि कैसे नीतीश हमेशा खुद को अपने प्रतिद्वंदियों से अलग रखते हैं. उस समय उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंदी गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी थे. 2015 में कुमार ने लालू के साथ प्रतिद्वंदिता को खत्म करते हुए उनके और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया. 2017 में वे वापस बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल हो गए.
बिहार में अंतिम चरण के मतदान से पहले सोमवार को जारी एक खुले खत में लालू ने उन्हें 'अवसरवादी' करार दिया है. ये ऐसा आरोप है जिस पर कई लोग असहमत नहीं होंगे.
मोदी और शाह के साथ समझौते की वजह से भले ही नीतीश भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे यादव कुनबे को मात देने में कामयाब हुए हों, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा जिसे वो दशकों तक पालते रहे, को भी तिलांजलि दे दी. तब तक नीतीश कुमार को विपक्ष में प्रधानमंत्री पद का ऐसा दावेदार माना जाता रहा जिसे लेकर सभी सहमत होते. लेकिन अब वो बीजेपी के कई सहयोगियों में से एक हैं.
अमित शाह जिन्हें भारतीय राजनीति में सबसे सख्त मोलभाव करने वाला माना जाता है, ने भले ही नीतीश के लिए बीजेपी जितनी यानी 17 सीटें छोड़ी हों, लेकिन यह केवल राजनीतिक फायदे के लिए है न कि एनडीए में नीतीश कुमार के बढ़े हुए दर्जे का प्रतिबिंब है.
लालू की पार्टी के एक नेता कहते हैं, ''नीतीश बिहार में अपना रुतबा खो चुके हैं. अब उनकी वह दबंग छवि भी नहीं बची, जो बिहार की राजनीति में बहुत मायने रखती है.'' उन्होंने कहा, ''लालू को साजिशन जेल में डालकर चुनाव लड़ने से रोका गया है लेकिन आश्चर्य है कि वह अब भी दबंग हैं. लोग ये भी जानते हैं कि नीतीश मोदी से अपनी लड़ाई हार चुके हैं. और मतदाता हारे हुए लोगों को पसंद नहीं करता.''
नीतीश कुमार, जो कुर्मी जाति से आते हैं, जो कि बिहार के जटिल जातीय समीकरण में 4 फीसदी की हिस्सेदारी रखता है, सालों तक यादव जैसे राजनेताओं के पिट्ठू बने रहे, जिनका काफी बड़ा जातीय आधार है. सत्ता के लिए अपनी सारी कलाबाजियों में कुमार को भ्रष्टाचार के विरुद्ध ईमानदार राजनीतिज्ञ की अपनी छवि धूमिल होती नहीं दिखी. परिश्रम से गढ़ी हुई सुशासन बाबू की उनकी छवि जिसने लालू यादव के 'जंगल राज' को खत्म किया, ने उनके लिए वो जगह बनाई कि सत्ता के लिए किए गए उनके अनैतिक कार्यों को भी अनुकूल व्याख्या मिली.
हालांकि इस बार उनकी इस सौम्य छवि को धक्का लगा है. खास तौर पर लालू के बेटे तेजस्वी यादव बड़ी रैलियों में बेहद चपलता से हास्य के साथ उनको निशाना बनाते रहते हैं और उन्हें 'चच्चा' कहकर पुकारते हैं.
2016 में नीतीश कुमार ने राज्य में शराब पर प्रतिबंध लगा दिया जो शायद गुजरात से प्रेरित था और संभवत: गलत फैसला रहा. नीतीश का आकलन था कि इससे पूरे राज्य से अपने कुर्मी जनाधार में महिला मतदाताओं को जोड़ पाएंगे. हालांकि हकीकत कुछ और है. शराबबंदी की वजह से शराब का काला कारोबार पूरे राज्य में फला-फूला और पुलिस थाने आपूर्ति केंद्र बने. नीतीश शराब माफिया पर लगाम नहीं लगा सके. नीतीश के अच्छे प्रशासक की छवि को तब और बड़ा धक्का लगा जब उनकी ही पार्टी के कई लोग शराब की कालाबाजारी में लिप्त पाए गए.
बिहार में नीतीश की कीमत पर बीजेपी आगे बढ़ी है. कुमार को लगा कि वह लालकृष्ण आडवाणी के समय की बीजेपी के साथ डील कर रहे हैं जो उन्हें पसंद करते थे, लेकिन अब वो खुद को अमित शाह के सामने पाते हैं जो बेहद कुशल राजनीतिज्ञ हैं. अविश्वसनीय रूप से उन्होंने एक बार फिर पाला बदलने की सोची और बीजेपी के साथ सीटों के समझौते से पहले विपक्ष को एक संदेश दिया. कांग्रेस को उनसे कुछ हद तक सहानुभूति थी लेकिन यादव परिवार ने दोबारा रिश्ता जोड़ने से साफ इनकार कर दिया.
उनके जैसे व्यक्ति के लिए जो अपनी छवि को लेकर बेहद सतर्क रहते हैं, उनके नेतृत्व का माखौल उड़ना निश्चित रूप से उनके लिए कष्टदायी है. कोई आश्चर्य नहीं है कि उनका चेहरा ऐसा बुझा दिखता है.
स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो 'इंडियन एक्सप्रेस', 'द स्टेट्समैन' तथा 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' के साथ काम कर चुकी हैं...
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