समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई, 'मुख्तार से आई, अफजाल से आई...'

समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई, 'मुख्तार से आई, अफजाल से आई...'

अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव (फाइल फोटो)

मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय की खबरों से यादव खानदान की फूट फिर सामने आ गई है. मुलायम और उनके भाई शिवपाल विलय चाहते हैं, जबकि उनके बेटे अखिलेश इसके सख्त खिलाफ हैं. अब कोशिश यह है कि विलय कुछ इस तरह हो कि काम भी हो जाए और अखिलेश की बेइज्जती भी ना हो, क्योंकि पार्टी उनके चेहरे के साथ ही चुनाव में उतरेगी.

जून की गर्मी में माफिया डॉन मुख्तार की पार्टी के विलय ने सपा में गर्मी बढ़ा दी थी. 'भाई' के दोनों भाई- अफजाल और सिबगतुल्लाह तो सपा दफ्तर में समाजवादी बने, जबकि भाई ने जेल के अंदर समाजवाद कबूल कर लिया था. लेकिन अखिलेश गुस्सा हुए तो वे सब समाजवाद से बेदखल कर दिए गए. अब मुलायम सिंह फिर विलय चाहते हैं. ये बात उन्होंने पार्टी ऑफिस में कुछ लोगों को कही है.

कहते हैं कि मुलायम सियासी गुणा-भाग कर दुबारा विलय करने के नतीजे पर पहुंचे हैं. उन्हें लगता है कि मुख्तार के खानदान का गाजीपुर, बलिया, मऊ और वाराणसी की करीब 20 सीटों पर मुसलमानों में कमोबेश असर है. पार्टी का विलय कर फिर इसे खारिज करने से संदेश गया कि उन्हें घर बुलाया फिर ज़लील करके निकाला. मायावती खतरा बन रही हैं, क्योंकि उन्होंने 100 से ज्यादा टिकट मुसलमानों को दे दिए हैं. ऐसे में मुस्लिम वोटों को टूटने से बचाना है. लेकिन सवाल यह है कि एक बार अखिलेश यादव के स्टैंड लेने से तोड़े गए रिश्ते को फिर कैसे जोड़ा जाए कि अखिलेश की बेइज्जती न हो.

बीबीसी के पूर्व संवाददाता रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "अखिलेश यादव को लगता है कि वो अपनी साफ इमेज से चुनाव जीत जाएंगे. सियासत में एक अच्छी इमेज की अहमियत भी है...लेकिन मुलायम सिंह अखाड़े में कई बार हारे और जीते हैं तो शायद वह ज्यादा बेहतर समझते हैं." अखिलेश यादव ने पिछले चुनाव के वक्त डीपी यादव की एंट्री का विरोध किया तो काफी वाहवाही मिली थी. उन्हें लगता है कि इससे पूर्वांचल में चंद सीटें भले मिल जाएं, लेकिन देशभर में इमेज को नुकसान होगा, जबकि मुख्तार के बिना भी मुस्लिम ज्यादातर सपा के साथ हैं. यही नहीं मुख्तार को एक 'हेट सिम्बल' बनाकर बीजेपी पूर्वांचल में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश कर सकती है. साथ ही अखिलेश को लगता है कि इससे उनका विकास का एजेंडा पीछे चला जाएगा.

लेकिन सियासत के जानकार कहते हैं कि परिवार की पोलिटिक्स की वजह से ही इस मामले ने ज्यादा तूल पकड़ा है. रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, 'इसकी बुनियाद में यादव परिवार के अंदर का सत्ता संघर्ष भी है. मुझे लगता है कि मुख्तार की पार्टी का विलय अगर अखिलेश यादव के जरिये होता तो शायद यह नौबत नहीं आती. लेकिन चूंकि इसमें शिवपाल यादव आगे हैं इसलिए इसने इतना तूल पकड़ लिया.'

अखिलेश यादव की शिवपाल से पटरी नहीं बैठने की कई वजहें हैं. चूंकि शिवपाल बड़े जनाधार वाले नेता हैं इसलिए कहा जाता है कि अखिलेश उन्हें एक संभावित खतरे के तौर पर देखते हैं. इसके पहले अमर सिंह भी अखिलेश की मर्जी के खिलाफ समाजवादी पार्टी में वापस आ गए. उनकी वापसी के पीछे भी शिवपाल यादव थे. अखिलेश को यह भी नागवार गुजरा होगा.

जनवादी कवि गोरख पांडेय की समाजवाद के भटकाव पर एक कविता है, "समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई...हाथी से आई, घोड़ा से आई...लाठी से आई, डंडा से आई...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई..." अब नए हालात में उसमें यह जोड़ा जा सकता है, "मुख्तार से आई, अफजाल से आई...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई!."

(कमाल खान एनडीटीवी में रेजिडेंट एडिटर हैं)

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