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This Article is From Jul 29, 2016

एक ‘बैड एक्टर’ राजेश खन्ना का ‘भगवान’ बनना

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 29, 2016 13:08 pm IST
    • Published On जुलाई 29, 2016 01:01 am IST
    • Last Updated On जुलाई 29, 2016 13:08 pm IST
नसीरुद्दीन शाह ने हिन्दुस्तानी सिल्वर स्क्रीन के पहले सुपर स्टार के बारे में कुछ नकारात्मक टिप्पणी करके दरअसल कला, कलाकार और समाज के बारे में एक बहस को जन्म दिया है। यह विषय वैसे तो काफी पुराना हो चुका है, लेकिन विषय ऐसा है, जो समकालीनता के संदर्भ में हमेशा विचार किये जाने की मांग करता रहता है। तो पहले हम नसीरुद्दीन के उन वक्तव्यों को देखते हैं, जो इस बहस के लिए तथ्य उपलब्ध कराते हैं।

- सातवें दशक से फिल्में औसत श्रेणी की (मेडियोक्रेसी) बननी शुरू हुईं। (इसी समय राजेश खन्ना फिल्मों में आये)
- वे (राजेश खन्ना) बहुत ही सीमित क्षमता वाले अभिनेता (वेरी लिमिडेट एक्टर) थे। सच तो यह है कि वे एक कमजोर अभिनेता (पुअर एक्टर) थे। एक चैनल ने ‘पुअर’ का अनुवाद ‘घटिया’ किया है, जो अपने-आप में एक घटिया अनुवाद है।
- बौद्धिक दृष्टि से वे एक अत्यंत सतर्क व्यक्ति (मोस्ट एलर्ट पर्सन) नहीं थे।
- उनकी शैली (टेस्ट) ने सिने उद्योग पर राज किया
- वे उन दिनों के भगवान बन गये।


सिनेमा के इतिहास में आमतौर पर छठवें-सातवें दशक को सिनेमा तथा उसके संगीत का ‘स्वर्णयुग’ (गुप्तकाल की तरह) माना जाता है। हां, यह जरूर है कि इस काल में समानांतर सिनेमा मुख्यधारा में नहीं आ पाया था, लेकिन उसके बारे में सुगसुबगाहट जरूर होने लगी थी। शाह यदि फिल्मों की एकमात्र कसौटी मार्क्‍सवाद को मानते हैं, तो वे सही हो सकते हैं। लेकिन यदि उनका जरा भी विश्‍वास भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ के सिद्धांतों में है, तो उन्हें अपने इस  विश्‍लेषण पर पुनर्विचार करना चाहिए।

शाह साधारणीकरण के सिद्धांत से परिचित नहीं होंगे, इसके बारे में सोचना तक पाप होगा। एक की आकांक्षा को अपनी कला के माध्यम से अभिव्यक्ति देकर उसे सबका बना देना ही साधारणीकरण है। जाहिर है कि यहां ‘सबका’ से मतलब समाज से है। और इस बात से भी है कि यह जन आकांक्षा समय के साथ-साथ बदलती भी रहती है। अपने समय में सुपर हिट रहने वाली फिल्म ‘संतोषी माता’ को शायद आज बंद डिब्बे से बाहर आना तक नसीब न हो।

राजेश खान्ना आये, और उन्होंने अपने समय के लोगों की अनाभिव्यक्त इच्छाओं को रुपहले परदे पर चित्रित करना शुरू कर दिया। उनकी ‘अ’ की त्रयी ने तहलका मचा दिया - 'अमर प्रेम', 'आराधना' और 'आनंद'। प्रेम से लेकर परिवार तथा उल्लास से लेकर अवसाद (आनंद) तक की रेंज को उन्होंने कवर करके लोगों का ‘केथारसिस’ (ग्रीक नाटकों के बारे में दार्शनिक अरस्तू का सिद्धांत) कर दिया। राजेश खन्ना में उस समय के लोगों ने अपनी जुबान पाई, अपना प्रतिनिधि पाया। और फिर देखते ही देखते उसे अपना ‘भगवान’ मान लिया।

यहां विशेष रूप से गौर करने की बात यह है कि वह भगवान अमिताभ बच्चन (फिल्म ‘दीवार’ और ‘जंजीर’) तथा रजनीकांत (फिल्म ‘कबाली’) वाला तारणहारनुमा भगवान नहीं था। वह असाधारण शक्तियों से सम्पन्न इच्छापूर्ति करने वाला कोई सुपरमैन नहीं था। वह भगवान अपनी साधारण-साधारण क्षमताओं को सही दिशा देकर कुछ असाधारण-सा कर जाने वाला एक आम आदमी ही था। क्या बिना कलात्मक क्षमता के ऐसा कर पाना संभव था?

जहां तक बात बौद्धिकता की है, तो एक अभिनेता में उच्च स्तरीय बौद्धिकता के गुण तलाशने की कोशिश करना उसके साथ घोर अन्याय करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। बल्कि इसके उलट यह बौद्धिकता कभी-कभी कला की सहजता की बाधक ही बन जाती है। बहुत पहले श्याम बेनेगल ने एक बहुत बड़ी बात कही थी कि ‘‘शबाना दिमाग से अभिनय करती हैं, और स्मिता दिल से।’’ और दोनों हमारी सिनेमा की श्रेष्ठ अभिनेत्रियां रही हैं। दरअसल बुद्धि का पिघलना ही उसका कला बनना होता है, और पिघले हुए का संघनन उसका बौद्धिक होना है। यदि टॉलस्टॉय, चेखव और दास्तोवस्की महान साहित्यकार हैं, तो ओ हेनरी, कालिदास और प्रेमचन्द भी।

यदि हम नसीरुद्दीन शाह के इस विचार को मान भी लेते हैं, तो उनसे यह एक प्रश्‍न तो पूछना ही चाहूंगा कि ‘‘फिर आप हमारे लोक कलाकारों को क्या कहेंगे।’’ तब तो पूरी की पूरी हमारी लोक-परम्परा को ही खारिज करना पड़ेगा। इसलिए जरूरत क्षमा मांगने की उतनी नहीं है, जितनी कि अपनी सोच पर पुनर्विचार करने की है।

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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