आरक्षण को लेकर कुछ समय से एक नए तरह की बेचैनी देश के कई हिस्सों में देखी जा रही है। खासकर उन समुदायों में, जो पहले कभी उसकी जरूरत महसूस नहीं करते थे या एक मायने में आरक्षण से बिदकते तक थे क्योंकि वह उन्हें समाज में अपनी हैसियत कमतर होने का एहसास दिला जाता था। फिलहाल हरियाणा के जाटों का आरक्षण के लिए आंदोलन उग्र हो गया है। अभी कुछ समय पहले, अचानक आंध्र प्रदेश के कापू समुदाय में यह चिंगारी भड़की थी। पिछले साल गुजरात में पटेल समाज का आरक्षण के लिए आंदोलन सियासी पंडितों को भी चक्कर में डाल गया था। उसके नेता हार्दिक पटेल अब राजद्रोह के कई आरोपों में गिरफ्तार हैं। ऐसे में सवाल है कि क्या गुजरात में पाटीदार, उत्तर भारत में जाट, और आंध्र प्रदेश में कापू समूदाय की आरक्षण को लेकर उपद्रव तक करने की बेताबी किसी और सामाजिक सच्चाई की ओर इशारा कर रही है? क्या इसका रिश्ता बदलती आर्थिक स्थितियों और खेती-किसानी के संकट से है? कहीं यह किसी बड़े संकट का लक्षण तो नहीं है? कहीं यह आर्थिक तथा दूसरी तरह की तंगहाली का परिणाम तो नहीं है जो आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से पैदा हो रही है?
आखिर अब आरक्षण की मांग करने वाले ये सभी खेतिहर समुदाय रहे हैं और अपने-अपने इलाकों में अच्छा दबदबा भी रखते आए हैं। जाट समुदाय तो आज भी बड़े पैमाने पर खेतिहर समाज ही है। उसी तरह गुजरात का पाटीदार और आंध्र प्रदेश का कापू समाज खेती-किसानी में अपने इलाकों में अव्वल रहा है। इन समुदायों का सियासी असर भी काफी रहा है और इनके नेता आला पदों पर पहुंचते रहे हैं। आंध्र में कापू और रेड्डियों की लंबे समय तक राज्य की राजनीति में तूती बोलती रही है। लेकिन वहां एनटी रामाराव के नेतृत्व में तेलुगुदेशम के साथ कम्मा समुदाय के उदय के बाद राजनीति में उनका दबदबा कुछ घटा है। मौजूदा मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू भी कम्मा हैं। इसी तरह पटेलों की गुजरात में और हरियाणा तथा पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों की सियासी अहमियत ऊंची रही है। हालांकि हाल के दौर में सत्ता में उनकी भागीदारी या रुतबा कुछ घटा है।
इससे एक नतीजा निकालना तो आसान है कि सियासत में इन समुदायों के कुछ पिछड़ने से ये चिंगारियां फूट रही हैं। लेकिन यह बेहद सरलीकरण होगा और इससे सामाजिक सच्चाइयों का खुलासा नहीं होता। दूसरे, कुछ लोग यह दलील भी दे सकते हैं कि मोटे तौर पर ये आंदोलन आरक्षण की व्यवस्था पर ही सवाल उठा रहे हैं और निचली जातियों के कुछ ऊपर पहुंचने से इनमें रोष दिख रहा है। लेकिन आंकड़े इसकी गवाही नहीं देते। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, अभी भी अफसरशाही और उच्च संस्थानों में अनुसूचित जाति-जनजाति या पिछड़ी जातियों के लोग बमुश्किल 3-4 प्रतिशत ही पहुंच पाए हैं। देश में खरबपतियों की फेहरिस्त दुनिया के अमीर देशों से होड़ लेने लगी है लेकिन ऊपरी हलकों में इन जातियों की पहुंच नहीं हो पाई है। सरकारी ही नहीं, गैर-सरकारी संस्थानों में अभी भी बेहद थोड़े लोग ही निचली जातियों से पहुंच पाते हैं। उच्च शिक्षा संस्थानों में भी इनकी पहुंच गिनती की है। यह अवस्था कई दशकों की आरक्षण व्यवस्था के बाद है। इसलिए अटकलों को छोड़ दें तो इस दलील में दम नहीं दिखता।
इसलिए मजबूत खेतिहर समाजों की ओर से आरक्षण की मांग की असलियत कुछ दूसरे तनाव और दबाव हो सकते हैं, जो अब बड़े पैमाने पर महसूस किए जाने लगे हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के 70वें दौर के आंकड़े जाहिर करते हैं कि ग्रामीण आमदनी में हाल के दौर में भारी कमी आई है। किसानी और खेती का संकट इतना बढ़ गया है कि किसानों की रुचि अब इसमें नहीं रह गई है। ये आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में खेती में कुल 13 लाख हेक्टेयर की कमी आई है। इसी सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि इस दौर में छोटे उद्योग-धंधों की हालत भी खस्ता हुई है। इस सर्वेक्षण से नीति आयोग में भी हड़कंप मच गया है और इसके आंकड़ों को लेकर बहस शुरू हो गई है।
इससे अब इनकार करना मुश्किल है कि किसानी अब घाटे का सौदा हो गई है या कहिए, बना दी गई है। उसके मुकाबले औद्योगिक उत्पादों की कीमत कई गुना बढ़ा दी गई है। दाम में कोई संतुलन नहीं है। सरकार कृषि जिंसों के दाम पर नियंत्रण रखती है लेकिन कारखानों के उत्पादों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता। इसी तरह बड़े उद्योगों को तरजीह देने से छोटे उद्योग मरते जा रहे हैं। छोटी पूंजी का कोई अर्थ नहीं रह गया है। गुजरात के पाटीदार समुदाय के उदाहरण से इस संकट को आसानी से समझा जा सकता है। पाटीदार या पटेल समुदाय खेतिहर होने के अलावा बड़े पैमाने पर उद्योग-धंधों में लिप्त रहा है लेकिन पिछले दशक में बड़े कारोबारियों ने छोटे धंधों को तबाह कर दिया। पहली बार जब हार्दिक पटेल ने ये बातें कहीं तो विकास के गुजरात मॉडल के बारे में बहस शुरू हो गई। इसके अलावा खासकर उच्च शिक्षा के लगातार निजीकरण और इसके खर्चीली होते जाने से इन समुदायों के बच्चों की उन्नति भी प्रभावित हो रही है। दक्षिण गुजरात में करीब एक दशक तक अध्ययन करने वाले समाजशास्त्री जेन बेरमैन अपनी हालिया किताब ‘ऑन पॉपरिज्म इन प्रेजेंट ऐंड पास्ट’ में बताते हैं कि मौजूदा स्थितियों से हुनरमंद लोग भी बड़े पैमाने पर गैर-हुनरमंद होते जा रहे हैं और आमदनी में कमी का दंश झेल रहे हैं। इससे रसूखदार खेतिहर समुदाय दोहरे संकट में हैं। शायद इस संकट को जाहिर करने का आरक्षण बहाना बन रहा है। किसान आंदोलन तो अब रहे नहीं कि उनके जरिए इसकी अभिव्यक्ति होती। जहां किसान असहाय महसूस करता है, वहां आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है। इसलिए संकट को सही परिप्रेक्ष्य में देखना जरूरी है।
जहां तक इन समुदायों को पिछड़े वर्गों में शामिल करने और उन्हें आरक्षण का लाभ देने का मामला है, उसकी संवैधानिक व्यवस्था है और न्यायपालिका की वह शर्त भी है कि आरक्षण पचास फीसदी से अधिक नहीं हो सकता। इसलिए इस पूरे मामले में गहरे विचार-विमर्श की दरकार है। दरअसल गहराता आर्थिक संकट और विकास का मौजूदा मॉडल उन समुदायों को भी आरक्षण की मांग की ओर धकेल रहा है जो पहले इसकी जरूरत नहीं महसूस करते थे।
हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Feb 22, 2016
आरक्षण की मांग के पीछे कहीं गहराता आर्थिक संकट तो नहीं !
Harimohan Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 22, 2016 18:27 pm IST
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Published On फ़रवरी 22, 2016 18:17 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 22, 2016 18:27 pm IST
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