यह ख़बर 08 मई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

चुनाव डायरी : पलटवार के लिए ज़रूरी है भाषा की धार...

अमेठी से उमाशंकर सिंह:

'जाति नीची नहीं होती, सोच नीची होती है, कर्म नीचे होते हैं...', राहुल गांधी का यह सधा हुआ बयान नरेंद्र मोदी के लिए है, और इसकी पृष्ठभूमि 'मोदी बनाम गांधी परिवार' की है। अमेठी में मोदी ने जब राजीव गांधी समेत गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों को निशाना बनाया तो प्रियंका ने 'नीच राजनीति' वाला बयान जारी किया। मोदी ने 'नीच राजनीति' को 'नीची जाति' से जोड़ दिया। जातिवादी राजनीति के मैदान में मोदी के दांव को देखकर बारी राहुल के पलटवार की थी, सो, उन्होंने कर दिया।

राहुल गांधी के बयानों को लेकर शुरुआत में राय बनी कि उन्हें बोलना नहीं आता। या यूं कह लें कि उनमें राजनीतिक भाषा की गहराई नहीं है। यूपीए सरकार की उपलब्धियों से लेकर कांग्रेस की सेक्युलर विचारधारा की दुहाई तक... बस वह कुछ ही बातों को दोहराते रहते हैं। राजनीतिक हमले के लिए उनके पास भाषा का वह भंडार नहीं है, जिसे कारगर हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाए। राहुल को लेकर यह धारणा बनी तो इसके पीछे कई कारण रहे।

राहुल की परवरिश एक बिल्कुल अलग माहौल में हुई है। दादी इंदिरा गांधी भी प्रधानमंत्री थीं और उनके बाद पिता राजीव गांधी भी। पिता की जब हत्या हुई, तब तक राहुल ने बमुश्किल 20 बसंत देखे थे। फिर वह दौर आया, जब मां सोनिया गांधी राजनीति से दूर रहीं, लेकिन कांग्रेस की राजनीति के केंद्र में बनी रहीं। पति की हत्या का अवसाद और बच्चों के भविष्य की चिंता ने उनके अंदर की राजनीतिक शख़्सियत को दबाए रखा। परिवार अपने में सिमटा रहा। राहुल की पढ़ाई देश-विदेश दोनों जगह हुई। वह जब देश में होते थे, तब भी सुरक्षा के कड़े घेरे में होते थे।

कुल मिलाकर यह कि उन्हें देश की आम जनता, उसकी ज़िंदगी, उसके रहन-सहन, उसकी ज़रूरतों से दो-चार होने का मौक़ा 'नहीं के बराबर' मिला। जब वह राजनीति में उतरे तो अपनी मां और 10, जनपथ के आसपास के नेताओं की नसीहत-सलाह ही उनकी राजनीतिक समझ थी, जबकि दूसरी ओर मोदी जैसे नेता सालोंसाल तक उस सामाजिक परिवेश से जूझते रहे, जो राजनीति के केन्द्र में होता है। संघ प्रचारक और मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी के अनुभवों की वजह से मोदी-राहुल की तुलना नहीं हो सकती। लेकिन वर्ष 2014 की लड़ाई में क्योंकि ये दोनों चेहरे आमने-सामने हैं, इसलिए मोदी-राहुल की तुलना हर स्तर पर होने लगी। मोदी का सामाजिक-राजनीतिक अनुभव उनके लिए एडवांटेज है, इसलिए उनका घेरा अलग है, जबकि राहुल एक अलग दायरे में सिमटे नज़र आते हैं।

वर्ष 2004 में जब राहुल पहली बार अमेठी से सांसद बने तो इसलिए नहीं कि उन्हें अमेठी की जनता के पास जाकर उनसे संवाद स्थापित करना पड़ा, उनकी बातें सुननी पड़ीं और उन्हे वोट देने के लिए तैयार करना पड़ा, बल्कि इसलिए कि अमेठी दशकों से गांधी परिवार का गढ़ रहा है। सोनिया ने यह सीट बेटे को दी, और बेटा जीत गया।

सांसद के तौर पर राहुल ने कोई सक्रियता नहीं दिखाई। गांधी परिवार की राजनीतिक स्थिति की उच्चता उनके लिए कवच का काम करती रही। वह सहूलियत के दायरे में ही रहे। संसद में भी चुप रहे। जब वह विपक्ष के निशाने पर आने लगे तो उनकी सक्रियता बढ़ी। उनका यूपी के दौरे पर निकलना सबको याद होगा।

जब उन्होने लोगों के बीच घूमना शुरू किया, गांव-देहात व कस्बों को देखना शुरु किया तो वहां से चीज़ों को उठाना भी शुरू किया। यह राजनीति की उनकी प्रैक्टिकल पाठशाला थी। दिक्कत यह थी कि अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और परवरिश के कारण जानने-समझने की जो उनकी दुनिया थी, और जिनके बीच वह राजनीति करने निकले, उन दोनों में भारी अंतर था। ख़ैर, जब वह आम आदमी से मिलने लगे तो उनके सुख-दुख को भी जानने लगे। वह गांव-देहात की भाषा से भी परिचित होने लगे, उसे पिक करने की कोशिश भी करने लगे। लेकिन चूंकि वह उस भाषा में रचे-बसे नहीं थे, लिहाज़ा जब बोलते थे तो गंभीरता कम और हास्य ज़्यादा पैदा करने लगे। संसद में बोलते हुए जब उन्होंने कलावती का उदारहण दिया तो याद होगा कि कैसे उसका असर सतही साबित हुआ।

कुछेक मौक़े को छोड़कर राहुल के भाषण भी नीरसता ही पैदा करते नज़र आए। उनके बयान कई बार सुर्खियों में इसलिए भी रहे कि 'अप-टु-द-मार्क' नहीं माने गए। राहुल की हैसियत को बड़ी राजनीतिक शख़्सियत में बदलने के लिए अगर यह मतलब रखता है कि वह क्या सोचते हैं, तो यह उससे कहीं ज़्यादा अहमियत रखता है कि वह कैसे बोलते हैं, और अपनी सोच को किस भाषा में सामने रखते हैं।

वर्ष 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान राहुल ने न सिर्फ भारतीय जनजीवन के अलग-अलग पहलुओं को छूने की कोशिश की, बल्कि सीधे उनसे संवाद स्थापित करने का एक कस्टमाइज़्ड तरीका निकाला। रिक्शावाले से लेकर कुली तक, बड़े शहरों से लेकर सुदूरवर्ती गांव की महिलाओं तक, सबसे बात की। इस तरह की कोशिशों पर बेशक कई तरह के सवाल उठाए जा सकते हों, लेकिन इन सब से राहुल को अपनी राजनीतिक समझ को मज़बूती देने में ज़रूर मदद मिली होगी। कुछ वह ख़ुद भी सीख रहें हैं, कुछ उन्हें वक्त भी सिखा रहा है।

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मां ने, जो अपने बेटे को प्रधानमंत्री देखना चाहती है, भी काफी मेहनत की होगी कि राहुल राजनीतिक भाषा की गहराई को पकड़ें, ताकि वह न सिर्फ अपने, अपनी पार्टी और सरकार पर लगने वाले आरोपों का सटीक भाषा में जवाब दे सकें, बल्कि अपने बयानों से विरोधी दलों पर धारदार हमला भी बोल सकें। 'जाति नीची नहीं होती, बल्कि सोच नीची होती है, कर्म नीचे होते हैं...', यह बेशक छोटी-सी बानगी हो, जिसने बड़ी हेडलाइन्स बना दीं, लेकिन यह राहुल की गहरी होती राजनीतिक भाषा का नमूना है। कुछ वैसी ही भाषा का, जिस पर राहुल की छोटी बहन प्रियंका का अधिकार है। याद होगा, वर्ष 2009 का वह लम्हा, जब मोदी ने कांग्रेस को सवा सौ साल पुरानी पार्टी कहकर संबोधित किया था। प्रियंका से जब इस बाबत पूछा गया था तो उन्होंने पत्रकारों से प्रतिप्रश्न किया था, 'क्या मैं आपको बूढ़ी लगती हूं!'