विकास पर कर्जे का ऊपरी साया (भाग-एक)

विकास पर कर्जे का ऊपरी साया (भाग-एक)

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

हो सकता है कि आर्थिक मामलों पर केंद्रित यह आलेख आपको बहुत बोझिल लगे, लेकिन आप इसे अगर अर्थव्यवस्था की राजनीति के नज़रिए से देखने की कोशिश करेंगे, तो आप इन व्यापक प्रभावों को आसानी से समझ पायेंगे। बहरहाल इस विश्लेषण को पेश करने का मकसद आंकड़ों-सांख्यिकी की बौछार करना नहीं है। वास्तव में इसका मकसद मौजूदा संदर्भ में आम लोगों को, जो मानते हैं कि आर्थिक नीतियों से हमें क्या लेना देना, अर्थव्यवस्था के एक बेहद गंभीर पहलू से साक्षात्कार करवाना है।

हम सब लगातार आर्थिक विकास के पहलुओं के संदर्भ में सरकार के तरफ से एक वक्तव्य को बार-बार सुनते रहते हैं कि देश तरक्की कर रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि सड़कें बनी हैं, बिजली ज्यादा मिल रही है, अस्पताल भी ज्यादा बन गए हैं, इमारतें और भवन अब बहुतायत में हैं। अब सवाल यह है कि ये जो हासिल है, वह कैसे हासिल हुआ है? यह सब कुछ कितना स्थायी है? क्या एक व्यक्ति और सामाजिक प्राणी होने के नाते हम यह मानते हैं कि कर्ज़दार होकर सुविधाएं जुटा लेना एक अच्छी नीति है? कभी हमारी विकास दर 4 प्रतिशत हो जाती है, तो कभी 6 प्रतिशत, कभी 7 और 7.5 प्रतिशत। इसे ही वृद्धि दर (ग्रोथ रेट) भी कहा जाता है। वास्तव में यह वृद्धि दर होती क्या है?

अर्थव्यवस्था के सालाना आकार और स्वरूप का आकलन उस राशि से किया जाता है, जितना वित्तीय लेन-देन उस साल में किया गया; इसमें उत्पादन शामिल है। दूसरे रूप में कहें तो सभी तरह के सामानों और वस्तुओं की खरीद-बिक्री, सेवाओं के शुल्क (वकील, डॉक्‍टर, नल सुधरवाने, परामर्श लेने आदि), परिवहन, कृषि, उद्योग, खनन, बैंकिंग सरीखे क्षेत्रों में जितना लेन-देन का व्यापार होता है, उस राशि को जोड़कर यह देखा जाता है कि देश में कुल कितनी राशि का आर्थिक व्यवहार हुआ, यह उस साल का सकल घरेलू उत्पाद (यानी ग्रास डोमेस्टिक प्रोडक्ट-जीडीपी) माना जाता है।

इस साल का जीडीपी पिछले साल के जीडीपी से कितना ज्यादा हुआ, उस अंतर को ही जीडीपी में वृद्धि के तौर पर पेश किया जाता है। इस परिभाषा में यह तो देखा जाता है कि दवाईयों और अस्पतालों का बाज़ार कितना बढ़ा, किन्तु यह नहीं देखा जाता है कि लोगों का स्वास्थ्य कितना बेहतर हुआ। अब यदि लोगों का स्वास्थ्य बेहतर होगा तो संभव है कि दवाइयों और अस्पतालों का बाज़ार कम होता जाएगा। यदि ऐसा हुआ, तो जीडीपी में कमी आएगी, जिसे हमारी मौजूदा आर्थिक नीतियों और वृद्धि दर के नज़रिए से नकारात्मक माना जाएगा।

यही बात खनन पर भी लागू होती है। हम कुदरत के शरीर को यानी पहाड़ों, नदियों, जंगलों, मिट्टी को जितना ज्यादा खोदेंगे या उसका शोषण करेंगे, उतने समय के लिए “धन का आगमन” ज्यादा होगा। तब हम मानते हैं कि अपनी संपत्ति बढ़ गयी है। आंकड़े भी यही दिखाने लगते हैं, किन्तु “निजी सम्पत्ति” बढ़ाने के लिए हमने कितनी “प्राकृतिक सम्पदा” का विनाश किया, यह आर्थिक विकास के पैमानों में दर्ज नहीं होता है।

हमारे सामने चुनौती यह है कि दुनिया भर में आर्थिक विकास को ही जनकल्याण और मानवता का पैमाना माने जाने से इनकार किया जा रहा है, किन्तु हम, भारत के लोग अभी भी ऐसे विकास के लिए लाइ-लप्पा हुए जा रहे हैं, जो बीमारी बढ़ाता है। यह केवल शरीर की बीमारी नहीं बढ़ा रहा है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और संरचनात्मक बीमारियों को नया मुकाम दे रहा है।

हम यह नहीं सोच पा रहे हैं कि वृद्धि दर को विकास दर नहीं माना जाना चाहिए। वृद्धि दर केवल अर्थव्यवस्था के आकार को सांकेतिक रूप में प्रस्तुत करने के लिए गढ़ी गयी अवधारणा है। जबकि विकास को मापने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक-लैंगिक बराबरी, सामाजिक समरसता, शांति, संसाधनों का समान वितरण सरीखे पहलुओं का संज्ञान लिया जाना अनिवार्यता होती है। हम किसी भी स्तर पर उस अनिवार्यता का पालन नहीं करते हैं।

हमारे पिछड़ेपन का स्तर यह है कि अब तक इन मानकों के आधार पर मानवीय विकास को हर साल मापने का कोई पैमाना हम विकसित ही नहीं कर पाये हैं। यही कारण है कि भारत में पोषण और स्वास्थ्य से संबंधित अखिल-भारतीय आंकड़े 8 से 10 साल में एक बार जारी होते हैं। मातृत्व मृत्यु के स्तर को 5 से 6 साल में एक बार जांचा जाता है। शिशु मृत्यु दर के आंकड़े 2 से ज्‍यादा साल देरी से आते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मानवीय विकास के इन सूचकों का कोई खास महत्व “वृद्धि दर” में होता नहीं है।

हाल ही में बताया गया कि भारत अब भी उन देशों की सूची में शामिल है, जहां आर्थिक विकास की दर ज्यादा बनी हुई है। हम चीन से भी तेज गति से विकास कर रहे हैं। हम एक आर्थिक महाशक्ति हैं। कभी यह भी तो सोचना चाहिए कि पिछले 2-3 दशकों से हम जिन प्राकृतिक संसाधनों का “वहशियाना ढंग से दोहन” कर रहे हैं, वह इस “विकास” के चलते अगले 35 से 45 सालों में लगभग खतम हो जाएगा; तब क्या करेंगे? क्या विकास का जीवन केवल मानवों की एक पीढ़ी के बराबर होना चाहिए?

अब तक की बात आपको आदर्शवाद पर केंद्रित वक्तव्य लगा होगा। अब जरा इस बात पर गौर कीजिये कि हम जो विकास कर रहे हैं, यह तो तय है कि उसमें गरिमा और समानता तो नहीं ही है, किन्तु क्या उसमें आत्मनिर्भरता का एक भी अंश है? स्वतंत्रता के बाद देश के विकास के लिए सरकारों ने नीति का मार्ग अपनाया। विकास की नीति का मतलब होता है उपलब्ध संसाधनों (मानवीय-प्राकृतिक) का जिम्मेदार और जवाबदेय उपयोग करते हुए सम्मानजनक-गरिमामय और अपनी क्षमता का अधिकतम उपयोग करने की सामाजिक-आर्थिक-राजनीति स्थिति को हासिल करना; लेकिन क्या भारत ने ऐसी ही किसी सोच को अपनाया है? जवाब है - नहीं। वास्तव में अपने दैनिक जीवन की जरूरतों का विस्तार करते हुए हम इतना आगे बढ़ गए कि भारत को “कर्जे की अर्थव्यवस्था” को “विकास की अर्थव्यवस्था” के कपड़े पहनाना पड़े।

स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1950-51 में भारत की सरकार पर कुल 3059 करोड़ रुपये का कर्जा था। जानते हैं वर्ष 2016-17 के बजट के मुताबिक भारत सरकार पर कुल कितना कर्जा है? यह राशि है 74.38 लाख करोड़ रुपये; सरकार पर अपने बजट से साढ़े तीन गुना ज्यादा कर्जा है।

पिछले 66 सालों में भारत की सरकार पर जमे हुए कर्जे में 2431 गुने की वृद्धि हुई है। और यह लगातार बढ़ता गया है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि यह कर्ज आगे न बढ़े और इसका चुकतान भी किया जाना शुरू किया जाए। जिस स्तर पर यह राशि पहुंच गयी है, वहां से इसमें कमी लाने के लिए देश के लोगों को कांटे का ताज पहनना पड़ेगा। सवाल यह है कि जब इतनी बड़ी मात्रा में कर्जा बढ़ा है, तो क्या लोगों की जिंदगी में उतना ही सुधार आया?

आंकड़े तो ऐसा नहीं बताते हैं। भारत के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 1950-51 में चालू कीमतों के आधार पर प्रतिव्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय 274 रुपये थी। जो वर्ष 2015-16 में बढ़कर 93,231 रुपये हो गई। यह वृद्धि है 340 गुने की। क्या इसका मतलब यह है कि जितना कर्जा सरकारों ने लिया, उसने बहुत उत्पादक भूमिका नहीं निभाई है। सरकार का पक्ष है कि देश में अधोसंरचनात्मक ढांचे के विकास, परिवहन, औद्योगिकीकरण, स्वास्थ्य, कीमतों को स्थिर रखने और विकास-हितग्राहीमूलक योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए उसे कर्जा लेना पड़ता है।

“वृद्धि दर को विकास दर” मानने वाले नज़रिए से यह तर्क ठीक हो सकता है, किन्तु जनकल्याणकारी और स्थायी विकास के नज़रिए से इस तर्क की उम्र बहुत ज्यादा नहीं होती है क्योंकि कर्जा लेकर शुरू किया गया विकास एक दलदल की तरह होता है, जिसमें एक बार आप गलती से या अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए उतरते हैं, और फिर उसमें डूबते ही जाते हैं। हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर कोई 6 से 8 प्रतिशत के बीच रहती है, किन्तु लोकऋण (केंद्र सरकार द्वारा लिए जाने वाला क़र्ज़) की वृद्धि दर 12 प्रतिशत प्रतिवर्ष है। यह बात दिखाती है कि एक तरफ तो प्राकृतिक संसाधनों का जो दोहन हो रहा है, वह समाज-मानवता के लिए दीर्घावधि के संकट पैदा कर रहा है, उस पर भी उसका लाभ समाज और देश को नहीं हो रहा है। उस दोहन से देश के 100 बड़े घराने अपनी हैसियत ऐसी बना रहे हैं कि वे समाज को अपना आर्थिक उपनिवेश बना सकें। इसमें एक हद तक वे सफल भी रहे हैं।

इसका दूसरा पहलू यह है कि आर्थिक उपनिवेश बनते समाज को विकास होने का अहसास करवाने के लिए सरकार द्वारा और ज्यादा कर्जे लिए जा रहे हैं। हमें इस विरोधाभास को जल्दी से जल्दी समझना होगा और विकास की ऐसी परिभाषा गढ़ना होगी, जिसे समझाने के लिए सरकार और विशेषज्ञों की आवश्‍यकता न पड़े। लोगों का विकास होना है तो लोगों को अपने विकास की परिभाषा क्यों नहीं गढ़ने दी जाती है?

आर्थिक विकास की मौजूदा परिभाषा बहुत गहरे तक फंसाती है। यह पहले उम्मीद और अपेक्षाएं बढ़ाती है, फिर उन्हें पूरा करने के लिए समाज के बुनियादी आर्थिक ढांचे पर समझौते करवाती है, शर्तें रखती और समाज के संसाधनों पर एकाधिकार मांगती है। इसके बाद भी मंदी आती है और उस मंदी से निपटने के लिए और रियायतें मांगती है; तब तक राज्य और समाज इसमें इतना फंस चुका होता है कि वह बाज़ार की तमाम शर्तें मानने के लिए मजबूर हो जाता है क्योंकि तब तक उत्पादन, जमीन, बुनियादी सेवाओं से जुड़े क्षेत्रों पर निजी ताकतों का कब्ज़ा हो चुका होता है।

जरा इस उदाहरण को देखिये। वर्ष 2008 में, जब वैश्विक मंदी का दौर आया तब भारत के बैंकों के खाते में 53,917 हज़ार करोड़ रुपये की “अनुत्पादक परिसंपत्तियां” (नान परफार्मिंग असेट) दर्ज थीं। ये वही कर्जा होता है, जिसे चुकाया नहीं जा रहा होता है या समय पर नहीं चुकाया जाता है। तब यह नीति बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी कि मंदी से निपटने के लिए बैंकों से ज्यादा से ज्यादा ऋण दिए जाएं। यह कभी नहीं देखा गया कि जो ऋण दिया जा रहा है, वह कितना उत्पादक, उपयोगी और सुरक्षित होगा। वर्ष 2011 से जो ऋण बंटे, उनमें से बहुत सारे अनुत्पादक साबित हुए।

सितंबर 2015 की स्थिति में बैंकों के खाते में 3.41 लाख करोड़ रुपये की “अनुत्पादक परिसंपत्तियां” दर्ज हो गईं। अब इस खाते की राशि, यानी जो ऋण वापस नहीं आ रहा है, को सरकारी बजट से मदद लेकर बट्टे खाते में डालने की प्रक्रिया शुरू हो गयी या उन पर समझौते किये जा रहे हैं। इस तरह की नीतियों ने भारत सरकार के आर्थिक संसाधनों के दुरुपयोग की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। इनके कारण भी सरकार ने नया कर्जा लेने की प्रक्रिया जारी रखी।
 

क्षेत्रवर्ष 1950-51वर्ष 2015-16वृद्धि
प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय (वर्तमान/चालू कीमतों पर)274 रूपए93231 रूपए340 गुना
अंतिम निजी उपभोग व्यय (उत्पादन, जरूरत, प्रक्रियागत, उपभोग समेत सभी व्यय)9934 करोड़ रूपए8111993 करोड़ रूपए817 गुना
सकल घरेलु उत्पाद10401 करोड़ रूपए13567192 करोड़ रूपए1304 गुना
भारत सरकार का ऋण3059 करोड़ रूपए6892214 करोड़ रूपए2253 गुना
ऋण के ब्याज का भुगतान39 करोड़ रूपए442620 करोड़ रूपए11349 गुना

पिछले 66 साल का आर्थिक नीतियों का अनुभव बताता है कि भारत की प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय 340 गुना बढ़ी है, किन्तु लोक ऋण के ब्याज के भुगतान में 11349 गुना वृद्धि हुई है। कहीं न कहीं यह देखने की जरूरत है कि लोक ऋण का उपयोग संविधान के जनकल्याणकारी राज्य के सिद्धांत को मजबूत करने के लिए हो रहा है या नहीं? यह पहलू तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब देश में 3 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हों और 20 करोड़ लोग हर रोज भूखे रहते हों।

(आग्रह-आपने विश्लेषण का पहला हिस्सा पढ़ा है। निवेदन है कि विषय को पूरी तरह से समझने के लिए इसका दूसरा हिस्सा भी जरूर पढ़ें।)

सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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