रविवार को लखनऊ में अखिलेश और राहुल ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस की.
नई दिल्ली:
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और सपा नेता अखिलेश यादव जिस अंदाज में रविवार को लखनऊ में मीडिया से मुखातिब हुए, उससे कई चीजें साफ हो गई हैं. दोनों नेताओं ने परस्पर दोस्ती का हवाला देते हुए स्पष्ट कर दिया कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी. यानी कि यूपी विधानसभा चुनाव में तो साथ लड़ेंगे ही, उसके बाद तैयारी तो 2019 आम चुनावों की है. यानी कि यह गठबंधन विधानसभा के साथ-साथ लोकसभा आम चुनावों में भी जारी रहेगा. स्पष्ट है कि पिछले लोकसभा में सर्वाधिक 71 सीटें जीतने वाली बीजेपी को घेरने की तैयारी अभी से शुरू कर दी गई है.
दांव पर भविष्य
इस गठबंधन के तार दोनों नेताओं के सियासी भविष्य से भी जुड़े हैं. अखिलेश यादव ने जिस तरह पिता मुलायम सिंह यादव के खिलाफ जाते हुए यह गठबंधन किया है और जिस तरह से पिछले दिनों यादव परिवार में घमासान हुआ है, उससे साफ है कि उनके पास एकमात्र विकल्प चुनाव जीतना ही है. यदि वह चुनाव जीतते हैं तो सपा में निर्विवाद रूप से एकमात्र नेता होंगे और यदि हारते हैं तो उनको सियासी बियाबान में भी जाना पड़ सकता है क्योंकि तब उनके खिलाफ पार्टी के भीतर से उठ रही आवाजें मुखर होंगी. इस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह उनके जीवन का अब तक का सबसे बड़ा सियासी दांव है.
दूसरी तरफ राहुल गांधी के सामने चुनौती 44 सीटों पर सिमटी कांग्रेस को फिर से अपने पैरों पर खड़े करने की है. सूबे की सियासत में भी उनकी पार्टी चौथे नंबर पर खिसक चुकी है और कई बार से 25-30 सीटों पर टिकी हुई है. उन्होंने रविवार को लखनऊ में कहा भी है कि यह गठबंधन रणनीतिक रूप से कांग्रेस के लिए फायदेमंद है. अगर अखिलेश के नेतृत्व में इस गठबंधन को चुनावी जीत मिलती है तो निश्चित रूप से कांग्रेस को भी लाभ मिलेगा और कम से कम 105 सीटों पर वह मजबूत होकर उभरेगी. उस सूरतेहाल में सपा-कांग्रेस का गठबंधन 2019 के आम चुनावों में यूपी में बीजेपी को रोकने के लिए जमीन पर मजबूत दिखेगा. यानी कि गठबंधन के नफे-नुकसान से काफी हद तक दोनों नेताओं का राजनीतिक भविष्य दांव पर है.
मायावती की तारीफ के मायने
बीएसपी सुप्रीमो मायावती से जुड़े एक सवाल पर राहुल गांधी ने कहा कि वह मायावती की बेहद इज्जत करते हैं और बीएसपी कई मायनों में बीजेपी से भिन्न है. राजनीतिक विश्लेषक इसके दो निहितार्थ निकाल रहे हैं. पहला, यदि विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन सबसे बड़े धड़े के रूप में उभरता है लेकिन स्पष्ट बहुमत से दूर रहता है तो मायावती को भी अपने पाले में लाने की कोशिशें की जा सकती हैं.
दूसरा-यदि बीएसपी हारती है तो मायावती के सियासी भविष्य पर भी सवालिया निशान उठने लगेंगे क्योंकि 2014 के आम चुनावों में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुला था. उसके बाद अब करारी पराजय की स्थिति में मायावती के नेतृत्व पर सवाल खड़े होंगे. लेकिन यह भी सही है कि बसपा का अपना वोट बैंक है और बसपा के अभी पराभव की स्थिति में 2019 में यह गठबंधन उनको अपने पाले में लाने की कोशिश कर सकता है. यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के सामने यूपी में सपा-कांग्रेस-बीएसपी की चुनौती होगी. कमोबेश उसी स्थिति में जिस तरह बिहार में बीजेपी के समक्ष नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू-राजद-कांग्रेस की चुनौती होगी. इससे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस विपक्ष की धुरी बनकर उभर सकती है क्योंकि इन्हीं दोनों राज्यों में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें हैं.
उसके अलावा राज्यसभा का अंकगणित भी तब विपक्ष के ही अनुकूल होगा. अभी तो वहां बीजेपी का बहुमत नहीं है और 2018 से पहले वह तस्वीर नहीं बदलेगा. तब तक कांग्रेस यदि अपनी इस रणनीति में सफल होती है तो बीजेपी को राज्यसभा में अपनी ताकत बढ़ाने में दिक्कत आएगी और 2019 में उसकी राह इन चुनौतियों के चलते बहुत आसान नहीं होगी.
दांव पर भविष्य
इस गठबंधन के तार दोनों नेताओं के सियासी भविष्य से भी जुड़े हैं. अखिलेश यादव ने जिस तरह पिता मुलायम सिंह यादव के खिलाफ जाते हुए यह गठबंधन किया है और जिस तरह से पिछले दिनों यादव परिवार में घमासान हुआ है, उससे साफ है कि उनके पास एकमात्र विकल्प चुनाव जीतना ही है. यदि वह चुनाव जीतते हैं तो सपा में निर्विवाद रूप से एकमात्र नेता होंगे और यदि हारते हैं तो उनको सियासी बियाबान में भी जाना पड़ सकता है क्योंकि तब उनके खिलाफ पार्टी के भीतर से उठ रही आवाजें मुखर होंगी. इस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह उनके जीवन का अब तक का सबसे बड़ा सियासी दांव है.
दूसरी तरफ राहुल गांधी के सामने चुनौती 44 सीटों पर सिमटी कांग्रेस को फिर से अपने पैरों पर खड़े करने की है. सूबे की सियासत में भी उनकी पार्टी चौथे नंबर पर खिसक चुकी है और कई बार से 25-30 सीटों पर टिकी हुई है. उन्होंने रविवार को लखनऊ में कहा भी है कि यह गठबंधन रणनीतिक रूप से कांग्रेस के लिए फायदेमंद है. अगर अखिलेश के नेतृत्व में इस गठबंधन को चुनावी जीत मिलती है तो निश्चित रूप से कांग्रेस को भी लाभ मिलेगा और कम से कम 105 सीटों पर वह मजबूत होकर उभरेगी. उस सूरतेहाल में सपा-कांग्रेस का गठबंधन 2019 के आम चुनावों में यूपी में बीजेपी को रोकने के लिए जमीन पर मजबूत दिखेगा. यानी कि गठबंधन के नफे-नुकसान से काफी हद तक दोनों नेताओं का राजनीतिक भविष्य दांव पर है.
मायावती की तारीफ के मायने
बीएसपी सुप्रीमो मायावती से जुड़े एक सवाल पर राहुल गांधी ने कहा कि वह मायावती की बेहद इज्जत करते हैं और बीएसपी कई मायनों में बीजेपी से भिन्न है. राजनीतिक विश्लेषक इसके दो निहितार्थ निकाल रहे हैं. पहला, यदि विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन सबसे बड़े धड़े के रूप में उभरता है लेकिन स्पष्ट बहुमत से दूर रहता है तो मायावती को भी अपने पाले में लाने की कोशिशें की जा सकती हैं.
दूसरा-यदि बीएसपी हारती है तो मायावती के सियासी भविष्य पर भी सवालिया निशान उठने लगेंगे क्योंकि 2014 के आम चुनावों में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुला था. उसके बाद अब करारी पराजय की स्थिति में मायावती के नेतृत्व पर सवाल खड़े होंगे. लेकिन यह भी सही है कि बसपा का अपना वोट बैंक है और बसपा के अभी पराभव की स्थिति में 2019 में यह गठबंधन उनको अपने पाले में लाने की कोशिश कर सकता है. यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के सामने यूपी में सपा-कांग्रेस-बीएसपी की चुनौती होगी. कमोबेश उसी स्थिति में जिस तरह बिहार में बीजेपी के समक्ष नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू-राजद-कांग्रेस की चुनौती होगी. इससे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस विपक्ष की धुरी बनकर उभर सकती है क्योंकि इन्हीं दोनों राज्यों में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें हैं.
उसके अलावा राज्यसभा का अंकगणित भी तब विपक्ष के ही अनुकूल होगा. अभी तो वहां बीजेपी का बहुमत नहीं है और 2018 से पहले वह तस्वीर नहीं बदलेगा. तब तक कांग्रेस यदि अपनी इस रणनीति में सफल होती है तो बीजेपी को राज्यसभा में अपनी ताकत बढ़ाने में दिक्कत आएगी और 2019 में उसकी राह इन चुनौतियों के चलते बहुत आसान नहीं होगी.
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