अजित सिंह की रालोद ने पिछली बार नौ सीटें जीती थीं.
नई दिल्ली:
उत्तर प्रदेश के चुनावों में पहले चरण (11 फरवरी) के चुनाव की तारीखें जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही हैं, वैसे-वैसे एक दल को छोड़कर बाकी दलों की धड़कनें तेज होती जा रही हैं. दरअसल माना जा रहा है कि यह दल बाकियों के समीकरणों को खासा प्रभावित कर सकता है. कई सीटों पर मजबूत होने के साथ-साथ अन्य सीटों पर बाकी दलों के वोटों में सेंधमारी भी कर सकता है. यहां बात पश्चिम यूपी में प्रभाव रखने वाले राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) की हो रही है. इसकी कुछ खास वजहें हैं:
1. पश्चिम यूपी के 12 जिलों की 60 विधानसभा सीटों पर जाटों का बाहुल्य है. पिता चौधरी चरण सिंह की छवि के कारण पार्टी के नेता अजित सिंह का जाटों पर अच्छा असर माना जाता रहा है. इस कारण परंपरागत रूप से इनको रालोद का वोट बैंक माना जाता रहा है. पिछली बार रालोद ने यहां से नौ सीटें जीती थीं. इस बार इस पार्टी ने किसी के साथ गठबंधन नहीं किया है. इसलिए माना जा रहा है कि पहले चरण में होने जा रहे मतदान में यह बाकी दलों के लिए चुनौती का सबब बन सकती है.
2. सपा-कांग्रेस गठबंधन के साथ रालोद के भी गठजोड़ बनाने की संभावना थी लेकिन इन दलों ने 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों की पृष्ठभूमि में अल्पसंख्यक वोट बैंक की नाराजगी के भय के चलते रालोद के साथ गठजोड़ नहीं किया. माना जा रहा है कि ऐसा होने पर ध्रुवीकरण के आसार बढ़ते और उसका फायदा बीजेपी को मिलता. इसलिए रालोद के साथ गठबंधन नहीं किया गया. अब ऐसा नहीं होने पर सभी दलों की एक जैसी स्थिति है और नतीजतन जाट बाहुल्य इलाकों में रालोद को फायदा हो सकता है.
3. पश्चिम यूपी में जाटों के बाद मुस्लिम एक बड़ा वोट बैंक हैं. इस बार मुस्लिमों को आकर्षित करने के लिए बसपा ने तकरीबन 100 प्रत्याशियों को उतार दिया है. ऐसे में सपा-कांग्रेस गठबंधन और बसपा के बीच इन वोटों का बंटवारा हो सकता है. उसका लाभ भी रालोद को मिल सकता है.
4. हालांकि यह भी सही है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में रालोद को एक भी सीट नहीं मिल सकी. यह भी माना जाता है कि एक दशक पहले जैसा प्रभाव अजित सिंह का इस क्षेत्र में नहीं रहा. लेकिन विधानसभा चुनावों के लिहाज से अजित सिंह की पार्टी रालोद के प्रभाव को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता.
5. जिन सीटों पर रालोद के अलावा अन्य दलों के बीच नजदीकी मुकाबला होने की संभावना है, उनके साथ-साथ अन्य जगहों पर भी यह वोटों में सेंधमारी कर 'वोटकटवा' की भूमिका निभा सकती है.
1. पश्चिम यूपी के 12 जिलों की 60 विधानसभा सीटों पर जाटों का बाहुल्य है. पिता चौधरी चरण सिंह की छवि के कारण पार्टी के नेता अजित सिंह का जाटों पर अच्छा असर माना जाता रहा है. इस कारण परंपरागत रूप से इनको रालोद का वोट बैंक माना जाता रहा है. पिछली बार रालोद ने यहां से नौ सीटें जीती थीं. इस बार इस पार्टी ने किसी के साथ गठबंधन नहीं किया है. इसलिए माना जा रहा है कि पहले चरण में होने जा रहे मतदान में यह बाकी दलों के लिए चुनौती का सबब बन सकती है.
2. सपा-कांग्रेस गठबंधन के साथ रालोद के भी गठजोड़ बनाने की संभावना थी लेकिन इन दलों ने 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों की पृष्ठभूमि में अल्पसंख्यक वोट बैंक की नाराजगी के भय के चलते रालोद के साथ गठजोड़ नहीं किया. माना जा रहा है कि ऐसा होने पर ध्रुवीकरण के आसार बढ़ते और उसका फायदा बीजेपी को मिलता. इसलिए रालोद के साथ गठबंधन नहीं किया गया. अब ऐसा नहीं होने पर सभी दलों की एक जैसी स्थिति है और नतीजतन जाट बाहुल्य इलाकों में रालोद को फायदा हो सकता है.
3. पश्चिम यूपी में जाटों के बाद मुस्लिम एक बड़ा वोट बैंक हैं. इस बार मुस्लिमों को आकर्षित करने के लिए बसपा ने तकरीबन 100 प्रत्याशियों को उतार दिया है. ऐसे में सपा-कांग्रेस गठबंधन और बसपा के बीच इन वोटों का बंटवारा हो सकता है. उसका लाभ भी रालोद को मिल सकता है.
4. हालांकि यह भी सही है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में रालोद को एक भी सीट नहीं मिल सकी. यह भी माना जाता है कि एक दशक पहले जैसा प्रभाव अजित सिंह का इस क्षेत्र में नहीं रहा. लेकिन विधानसभा चुनावों के लिहाज से अजित सिंह की पार्टी रालोद के प्रभाव को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता.
5. जिन सीटों पर रालोद के अलावा अन्य दलों के बीच नजदीकी मुकाबला होने की संभावना है, उनके साथ-साथ अन्य जगहों पर भी यह वोटों में सेंधमारी कर 'वोटकटवा' की भूमिका निभा सकती है.
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