मशहूर शायर मुनव्वर राना (फाइल फोटो)
लखनऊ:
मुल्क में मंदिर-मस्जिद का ‘सियासी शोर' बढ़ने के बीच मशहूर शायर मुनव्वर राना ने ताजा हालात पर टिप्पणी करते हुए कहा कि हिन्दुस्तान की मिट्टी की तासीर कुछ ऐसी है कि वह नफरत के बीज को गहरे तक नहीं उतरने देती और उन्हें उम्मीद है कि ऐसे हालात हमेशा नहीं रहेंगे. साहित्य अकादमी से पुरस्कृत शायर राना ने कहा कि मुल्क में आज फिर मंदिर-मस्जिद के नाम पर सियासी शोर शुरू हो गया है. जाहिर है कि एक शायर की हैसियत से मुझे इन हालात पर एक आम आदमी के मुकाबले कहीं ज्यादा तकलीफ होती है. शायर के गम को एक आम शख्स के गम के मुकाबले 10 से गुणा करना पड़ता है. लेकिन उम्मीद है कि ऐसे हालात हमेशा नहीं रहेंगे. उन्होंने कहा कि अभी तक तो यही देखा है कि इस मुल्क की मिट्टी ने नफरत के बीज को बहुत गहराई तक नहीं जाने दिया है. सियासी उलट-पुलट में यह खत्म हो जाएगा. अगर नहीं भी होता है तो भी यह मुल्क पाकिस्तान नहीं बनेगा, मगर हिन्दुस्तान में कई हिन्दुस्तान बन जाएंगे.
उन्होंने एक सवाल पर एक शेर कहा ‘‘शकर (मधुमेह) फिरकापरस्ती की तरह रहती है नस्लों तक, यह बीमारी करेले और जामुन से नहीं जाती.'' नफरतों का कारोबार भी वैसा ही है. बजाहिर है कि यह नफरत कभी कम हो जाती है तो कभी ज्यादा, लेकिन अगर हद से ज्यादा बढ़ गयी तो बंटवारे से कम पर नहीं छोड़ती. आजादी के फौरन बाद हुए हिन्दुस्तान के बंटवारे के वक्त भी नफरतें चरम पर थीं.
राना ने मुल्क के ताजा हालात पर एक शेर भी कहा, ‘‘सियासत बांधती है पांव में जब मजहबी घुंघरू, मेरे जैसे तो फिर घर से निकलना छोड़ देते हैं.'' उन्होंने कहा कि अगर उन्हें वक्त में पीछे जाकर कुछ बदलने का मौका मिले तो वह सामाजिक व्यवस्था को पहले जैसा करना पसंद करेंगे. जैसा कि 50-60 साल पहले मुहल्ले होते थे, कॉलोनियां नहीं. उन मुहल्लों में समाज के हर धर्म, वर्ग और तबके के लोग साथ रहते थे. आज कालोनियां बनाकर समाज को बांट दिया गया तो मुहब्बतें भी खत्म हो गयीं. आज हालात ये हैं कि एक मुल्क और शहर में रहकर जो लोग एक-दूसरे के त्यौहारों के बारे में नहीं जानते तो एक-दूसरे का गम कैसे जान पाएंगे.
VIDEO: साहित्य अकादमी से सम्मानित मुनव्वर राना से बातचीत
कैंसर से जूझ रहे राना ने अपनी आखिरी ख्वाहिश के बारे में किसी पत्रकार द्वारा अर्सा पहले पूछे गये सवाल का जवाब दोहराते हुए कहा ‘‘मरने से पहले हम असल में पूरा-पूरा हिन्दुस्तान देखना चाहते हैं. वह हिन्दुस्तान जो हमारे बाप, दादा की आंखों में बसा था. मगर यह ख्वाहिश कहां पूरी होगी. हर ख्वाहिश वैसे भी किसी की पूरी नहीं होती.''
(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
उन्होंने एक सवाल पर एक शेर कहा ‘‘शकर (मधुमेह) फिरकापरस्ती की तरह रहती है नस्लों तक, यह बीमारी करेले और जामुन से नहीं जाती.'' नफरतों का कारोबार भी वैसा ही है. बजाहिर है कि यह नफरत कभी कम हो जाती है तो कभी ज्यादा, लेकिन अगर हद से ज्यादा बढ़ गयी तो बंटवारे से कम पर नहीं छोड़ती. आजादी के फौरन बाद हुए हिन्दुस्तान के बंटवारे के वक्त भी नफरतें चरम पर थीं.
राना ने मुल्क के ताजा हालात पर एक शेर भी कहा, ‘‘सियासत बांधती है पांव में जब मजहबी घुंघरू, मेरे जैसे तो फिर घर से निकलना छोड़ देते हैं.'' उन्होंने कहा कि अगर उन्हें वक्त में पीछे जाकर कुछ बदलने का मौका मिले तो वह सामाजिक व्यवस्था को पहले जैसा करना पसंद करेंगे. जैसा कि 50-60 साल पहले मुहल्ले होते थे, कॉलोनियां नहीं. उन मुहल्लों में समाज के हर धर्म, वर्ग और तबके के लोग साथ रहते थे. आज कालोनियां बनाकर समाज को बांट दिया गया तो मुहब्बतें भी खत्म हो गयीं. आज हालात ये हैं कि एक मुल्क और शहर में रहकर जो लोग एक-दूसरे के त्यौहारों के बारे में नहीं जानते तो एक-दूसरे का गम कैसे जान पाएंगे.
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कैंसर से जूझ रहे राना ने अपनी आखिरी ख्वाहिश के बारे में किसी पत्रकार द्वारा अर्सा पहले पूछे गये सवाल का जवाब दोहराते हुए कहा ‘‘मरने से पहले हम असल में पूरा-पूरा हिन्दुस्तान देखना चाहते हैं. वह हिन्दुस्तान जो हमारे बाप, दादा की आंखों में बसा था. मगर यह ख्वाहिश कहां पूरी होगी. हर ख्वाहिश वैसे भी किसी की पूरी नहीं होती.''
(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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