मुंबई:
इस शुक्रवार रिलीज़ हुई हैं, दो−दो 'चश्मे बद्दूर', जिनमें से एक है, वर्ष 1981 में बनी सई परांजपे की असली 'चश्मे बद्दूर', जिसका डिजिटाइज़्ड रूप रिलीज़ किया गया है, और दूसरी है, फिल्मकार डेविड धवन की 'चश्मे बद्दूर', जो दरअसल रीमेक है... हम बात करेंगे रीमेक की...
यह फिल्म तीन दोस्तों की कहानी है - अली ज़फ़र, सिद्धार्थ नारायण और दिव्येंदु शर्मा - जो एक साथ, एक ही कमरे में रहते हैं... इनकी मकान मालकिन हैं लिलेट दुबे, जिन्हें ये तीनों वक्त पर किराया नहीं दे पाते... कहानी में ऋषि कपूर भी एक अहम भूमिका निभा रहे हैं, और चलाते हैं 'नॉस्टैल्जिया' नाम का कैफे... इस कैफे में भी इन तीनों दोस्तों का खाता चलता है, यानि ये तीनों ऋषि कपूर को भी वक्त पर पैसे नहीं देते...
बिल्कुल पुरानी 'चश्मे बद्दूर' की ही तरह इस फिल्म में भी इन तीनों दोस्तों की ज़िन्दगी में आती है एक लड़की, जिसका किरदार निभाया है तापसी पन्नू ने... सिद्धार्थ और दिव्येंदु अपने इश्क का जाल तापसी पर फेंकते हैं, लेकिन नाकाम हो जाते हैं, और फिर तापसी जब अपना दिल अली ज़फ़र को दे बैठती है तो दोनों ईर्ष्या से जल मरते हैं...
फिल्म में तापसी के पिता और चाचा का किरदार अनुपम खेर निभा रहे हैं, यानि फिल्म में उनका डबल रोल है... खैर, पुरानी 'चश्मे बद्दूर' कॉमेडी फिल्म थी, इसलिए नई 'चश्मे बद्दूर' भी हंसाती है... फिल्म के वन-लाइनर्स बहुत हंसाते हैं... सिद्धार्थ, दिव्येंदु और अली ज़फ़र, तीनों ने अच्छा अभिनय किया है, लेकिन कहीं-कहीं सिद्धार्थ थोड़ा निराश करते हैं... ऋषि कपूर और लिलेट दुबे के सीन्स बेहद खूबसूरत बन पड़े हैं, और इन दोनों के अलावा लिलेट दुबे का अभिनय भी अच्छा है... यह कहना गलत नहीं होगा कि ऋषि अपनी दूसरी पारी में ज्यादा चौके-छक्के लगा रहे हैं...
डायरेक्टर डेविड धवन ने पुरानी 'चश्मे बद्दूर' की 'मिस चमको' वाला सीक्वेंस फिल्म में बेहतरीन तरीके से फिट किया है... साजिद-वाजिद का संगीत खूबसूरत है... गाने अच्छे हैं और कहीं-कहीं पुराने गानों की याद दिलाते हैं... इस फिल्म में सिर्फ दोहरे अर्थ वाले डायलॉग खटकते हैं... डेविड धवन बेहतरीन एडिटर भी हैं... फिल्म ऐसी रफ्तार से चलती है कि शायद आपको गर्दन घुमाने का मौका भी नहीं मिलेगा...
बस, इस फिल्म में भी पुरानी 'चश्मे बद्दूर' की तरह थोड़ी सादगी होती, तो यह बेहतरीन फिल्म साबित हो सकती थी, लेकिन कुल मिलाकर नई 'चश्मे बद्दूर' जबरदस्त मनोरंजक फिल्म तो है ही... अगर इसकी तुलना पुरानी 'चश्मे बद्दूर' से करें तो शायद आपको थोड़ी खामियां मिलें, पर नई पीढ़ी आज के दौर में बनी इस नई 'चश्मे बद्दूर' को पसंद कर सकती है... इस फिल्म के लिए मेरी रेटिंग है 3 स्टार...
यह फिल्म तीन दोस्तों की कहानी है - अली ज़फ़र, सिद्धार्थ नारायण और दिव्येंदु शर्मा - जो एक साथ, एक ही कमरे में रहते हैं... इनकी मकान मालकिन हैं लिलेट दुबे, जिन्हें ये तीनों वक्त पर किराया नहीं दे पाते... कहानी में ऋषि कपूर भी एक अहम भूमिका निभा रहे हैं, और चलाते हैं 'नॉस्टैल्जिया' नाम का कैफे... इस कैफे में भी इन तीनों दोस्तों का खाता चलता है, यानि ये तीनों ऋषि कपूर को भी वक्त पर पैसे नहीं देते...
बिल्कुल पुरानी 'चश्मे बद्दूर' की ही तरह इस फिल्म में भी इन तीनों दोस्तों की ज़िन्दगी में आती है एक लड़की, जिसका किरदार निभाया है तापसी पन्नू ने... सिद्धार्थ और दिव्येंदु अपने इश्क का जाल तापसी पर फेंकते हैं, लेकिन नाकाम हो जाते हैं, और फिर तापसी जब अपना दिल अली ज़फ़र को दे बैठती है तो दोनों ईर्ष्या से जल मरते हैं...
फिल्म में तापसी के पिता और चाचा का किरदार अनुपम खेर निभा रहे हैं, यानि फिल्म में उनका डबल रोल है... खैर, पुरानी 'चश्मे बद्दूर' कॉमेडी फिल्म थी, इसलिए नई 'चश्मे बद्दूर' भी हंसाती है... फिल्म के वन-लाइनर्स बहुत हंसाते हैं... सिद्धार्थ, दिव्येंदु और अली ज़फ़र, तीनों ने अच्छा अभिनय किया है, लेकिन कहीं-कहीं सिद्धार्थ थोड़ा निराश करते हैं... ऋषि कपूर और लिलेट दुबे के सीन्स बेहद खूबसूरत बन पड़े हैं, और इन दोनों के अलावा लिलेट दुबे का अभिनय भी अच्छा है... यह कहना गलत नहीं होगा कि ऋषि अपनी दूसरी पारी में ज्यादा चौके-छक्के लगा रहे हैं...
डायरेक्टर डेविड धवन ने पुरानी 'चश्मे बद्दूर' की 'मिस चमको' वाला सीक्वेंस फिल्म में बेहतरीन तरीके से फिट किया है... साजिद-वाजिद का संगीत खूबसूरत है... गाने अच्छे हैं और कहीं-कहीं पुराने गानों की याद दिलाते हैं... इस फिल्म में सिर्फ दोहरे अर्थ वाले डायलॉग खटकते हैं... डेविड धवन बेहतरीन एडिटर भी हैं... फिल्म ऐसी रफ्तार से चलती है कि शायद आपको गर्दन घुमाने का मौका भी नहीं मिलेगा...
बस, इस फिल्म में भी पुरानी 'चश्मे बद्दूर' की तरह थोड़ी सादगी होती, तो यह बेहतरीन फिल्म साबित हो सकती थी, लेकिन कुल मिलाकर नई 'चश्मे बद्दूर' जबरदस्त मनोरंजक फिल्म तो है ही... अगर इसकी तुलना पुरानी 'चश्मे बद्दूर' से करें तो शायद आपको थोड़ी खामियां मिलें, पर नई पीढ़ी आज के दौर में बनी इस नई 'चश्मे बद्दूर' को पसंद कर सकती है... इस फिल्म के लिए मेरी रेटिंग है 3 स्टार...
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