बीते कुछ दशकों में भारत में विज्ञापनों की जिस चमचमाती-बोलती दुनिया को गढ़ने में पीयूष पांडे का भी हिस्सा था, उसमें वे बिल्कुल खामोशी से चले गए. वे बीस दिन कोमा में रहे, कहीं खबर नहीं आई. आई तो बाद में बहन की रुलाई जैसी पोस्ट आई- एक्स पर इला अरुण की- कि भाई नहीं रहा. उन्होंने याद किया कि इस राखी पर जब गोवा में बड़े भाई को ऑनलाइन राखी भेजने की सारी कोशिशें नाकाम हो गईं तो उनकी दोस्त क्रिस्टीना ने उनकी ओर से राखी खरीदी और पीयूष पांडे की कलाई पर बांधी. तो असल दुनिया चुप्पियों की है. असल संवेदना शब्दों के पार जाकर, शोर के पार जाकर बची रहती है. हम सब शोर से घिरे लोग हैं. खुशी पर तो शोर करते ही हैं, शोक भी शोर करके मनाते हैं.
बहरहाल, विडंबना यही है. जो दुनिया हम खड़ी करते हैं, उससे बाहर खड़े रहते हैं. हमारा समय प्रचार और विज्ञापनों का है. पीयूष पांडे इस दुनिया के चमकते सितारे थे. नब्बे के दशक में जब भारत दुनिया भर के लिए खुल रहा था तो इस भारत को दुनिया के सामने रखने और दुनिया भर के उत्पादों को भारत के सामने रखने की कोशिश में कई नए सितारे सामने आए जिन्हें हमने विज्ञापन गुरु का नाम दिया. इनमें पीयूष पांडे, एलेक पद्मसी, प्रसून जोशी, प्रह्लाद कक्कड़, सोहेल सेठ, दिलीप चेरियन आदि के नाम फौरन याद आते हैं. और याद आते हैं वे मुहावरे जो इन्होंने विज्ञापनों के रूप में गढ़े. प्रसून जोशी का ठंडा मतलब कोकोकोला इसी दौर की उपज था. जबकि पीयूष पांडे एशियन पेंट्स को सामने रखते हुए याद दिला रहे थे कि 'हर घर कुछ कहता है.'
ये वे लोग थे जो बदलते हुए भारतीय मध्यवर्ग की आकांक्षाओं को सबसे अच्छे ढंग से पहचानते थे. इनमें लेकिन पीयूष पांडे कुछ मायनों में अलग थे. कई दूसरे सितारों की तरह इस चमकीली दुनिया की चमक को उन्होंने अपने व्यक्तित्व पर नहीं ओढ़ा था. जब वे दिखते थे, एक अजब सी सादगी के साथ मिलते थे. एनडीटीवी के शुरुआती वर्षों में वे 'मुकाबला' नाम के साप्ताहिक कार्यक्रम में कई बार मेहमान की तरह आए- मैंने हमेशा उन्हें बहुत शालीनता और सलीके से अपनी बात कहते देखा. वे विज्ञापन की दुनिया के आदमी थे, लेकिन उन्हें पता था कि सच विज्ञापनों के पार जाकर मिलता है.
लेकिन विज्ञापनों में उन्होंने भारतीय मन और भारत की पारिवारिक संस्कृति का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया. फेविकोल और फेविक्विक के विज्ञापनों में रिश्तों की मजबूती की याद दिलाई और तोड़ने की जगह जोड़ने का संदेश दिया. मिठाइयों की मारी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में कैडबरी जैसे चॉकलेट को जगह दिलाई और बताया कि इसमें कुछ खास है.
दरअसल फिर दुहराने की इच्छा होती है कि बीते तीन-चार दशकों में जो नया भारत बनता रहा और अब भी बन रहा है, उसे समझने की, उसकी नब्ज पर हाथ रखने की जिन लोगों ने सटीक और कामयाब कोशिश की, उनमें पीयूष पांडे भी रहे. वे उन लोगों में रहे जिन्होंने बदलती हुई भारतीय स्त्री और उसकी शक्ति को समझा. कैडबरी के विज्ञापन के लिए कहा-गोवा से उन्नाव तक की लड़कियों को ये लुभाता है. एसबीआई लाइफ इन्श्योरेंस के लिए किया गया उनका यह विज्ञापन दिलों को छूने वाला था जिसमें एक बुजुर्ग अपनी पत्नी को हीरा भेंट करते हुए कहता है- हीरे को क्या पता, तुम्हारी उम्र क्या है. दरअसल जिसे 'वन लाइनर' कहते हैं, पीयूष पांडे उसके उस्ताद थे. अस्सी के दशक में, जब भारत मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींद में कुछ खोया हुआ ही था, तब उन्होंने एक छोटी सी मोपेड के लिए कहा था- 'चल मेरी लूना', और जिन लोगों को वह दौर याद होगा, उन्हें यह भी याद होगा कि उन दिनों छोटे शहरों में किस तरह लूना नाम की एक छोटी सी मोपेड सड़कों पर दौड़ा करती थी जिसे पैडल मार कर भी इमरजेंसी में चलाया जा सकता था.
वैसे पीयूष पांडे को उनके जिस विज्ञापन के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है, वह 2014 का मोदी सरकार के प्रचार अभियान के लिए निकला था- अबकी बार मोदी सरकार. हालांकि पीयूष पांडे का मानना था कि यह वाक्य इसलिए हिट हुआ कि इसके लिए एक बहुत मजबूत 'प्रोडक्ट' या 'ब्रांड' उनके पास था- नरेंद्र मोदी. राजनीति और विचार की दुनिया को, नेतृत्व और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी प्रोडक्ट या ब्रांड या प्रचार की तरह देखने की यह तटस्थता अपने-आप में प्रश्नवाचक हो सकती है, लेकिन बाजार को ऐसी प्रश्नवाचकता की परवाह कब रही है? वैसे जहां तक स्मृति जाती है, विज्ञापनों से बाहर पीयूष पांडे ने कभी अपने वैचारिक रुझान स्पष्ट किए हों, ऐसा कुछ याद नहीं आता. फिर भी यह बात भारत के बदलते मानस को समझने के लिहाज से, हमारे नए बन रहे राजनीतिक तंत्र की थाह लेने के लिहाज से महत्वपूर्ण हो सकती है कि कोई भी चीज हो, विचार हो, सरकार हो, अंततः उसे विज्ञापन और प्रचार का सहारा लेना है. यह अनायास नहीं है कि इन वर्षों में सरकारी विज्ञापनों का बाजार बड़ा हुआ है और दुनिया भर की सोशल साइट्स पर तरह-तरह के प्रचार युद्ध जारी हैं. दुर्भाग्य से इसी के साथ हमारी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं संदेह और गैरसंजीदगी के गर्त में गिरती चली गई है.
वैसे मिले सुर मेरा तुम्हारा वह नायाब तोहफ़ा है जो पीयूष पांडेय ने दूरदर्शन और भारतीय मनोरंजन उद्योग को दिया. भारत को सुरों में बांधने वाली ऐसी सुंदर प्रस्तुतियां कम याद आती हैं. इसके अलावा पोलियो के खिलाफ मुहिम में उनका विज्ञापन दो बूंद जिंदगी के खासा असरदार रहा जिसमें अमिताभ बच्चन, जैकी श्राफ और ऐश्वर्या रॉय जैसे सितारे दिखते रहे. इसी तरह निवेशकों को जागरूक करने वाला सेबी के लिए बनाया उनका विज्ञापन ख़ासा दिलचस्प था.
वैसे पीयूष पांडे ने सिर्फ दो-चार पंक्तियों वाले विज्ञापन ही नहीं लिखे, करीब ढाई सौ पृष्ठों की एक किताब भी लिखी- 'पैंडिमोनियम' जो उनके हिसाब से बदलते भारत का बयान थी. 2015 में इस किताब का लोकार्पण सचिन तेंदुलकर और अमिताभ बच्चन ने किया था- इस बात से उनकी हैसियत समझी जा सकती है- या जो सम्मान उन्हें अपनी बिरादरी में अर्जित किया था, उसका कुछ अनुमान लगाया जा सकता है.
पीयूष ने भरी-पूरी जिंदगी जी. जयपुर में सांस्कृतिक रूप से एक समृद्ध परिवार में पैदा हुए- नौ भाई-बहनों के बीच. सात बहनों के बाद आठवें भाई के रूप में. इन बहनों में गायिका-अभिनेत्री इला अरुण भी थीं. वे कहते भी थे कि उन्हें दुनिया को समझने का जरिया परिवार के भीतर से मिला- बहनों से भी मिला. 'टेलीग्राफ' को दिए एक इंटरव्यू में वे कहते हैं कि उनका जन्म एक रचनात्मक कारखाने में हुआ था. वे क्रिकेट के भी बड़े खिलाड़ी हो सकते थे. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर से भी क्रिकेट खेली और राजस्थान की टीम से भी. वे रणजी मैच तक खेलते रहे. 'टेलीग्राफ' को दिए इसी इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि ये उनके क्रिकेटर दोस्त मदनलाल थे जिन्होंने उन्हें उनके चुटीले वाक्यों की वजह से विज्ञापनों की दुनिया में जाने की सलाह दी थी.
हालांकि मृत्यु की कोई उचित उम्र नहीं कही जा सकती, लेकिन आज की दुनिया में 70 साल बहुत कम लगते हैं. खास तौर पर रचनात्मता के संसार में यह अपने-आप को कई बार पुनर्परिभाषित करने की- नए सिरे से गढ़ने की- उम्र होती है. इस उम्र में टैगोर ने पेंटिंग शुरू की थी और लेखक के अलावा चित्रकार के रूप में भी अंतरराष्ट्रीय मान्यता और कीर्ति अर्जित की थी. तो कह सकते हैं कि पीयूष जल्दी चले गए. उनको इस बदलती दुनिया को नए सिरे से पहचानना था, कुछ नए मुहावरे गढ़ने थे.
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