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This Article is From Jan 15, 2016

ऑड-ईवन फॉर्मूले के अलावा कुछ और भी करने की जरूरत

Rajeev Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 18, 2016 14:03 pm IST
    • Published On जनवरी 15, 2016 18:14 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 18, 2016 14:03 pm IST
देश की राजधानी दिल्ली नए साल के पहले दिन एक प्रयोगशाला बनी। यह प्रयोग था दिल्ली को प्रदूषण के प्रकोप से बचाने के लिए। इसके लिए दिल्ली सरकार की ओर से निजी कारों के चलाने के लिए ऑड-ईवन नंबर का फॉर्मूला लागू किया। यह फॉर्मूला 15 दिन लागू रहा।

प्रदूषण से जुड़े आंकड़े तो आज तक यह नहीं साफ कह पाए कि यह फॉर्मूला दिल्ली के लिए कामयाब रहा, लेकिन मिशन का कुछ हिस्सा सफल जरूर हुआ। यानी सड़कों पर गाड़ियों की संख्या तो कुछ कम थी।

इस मामले में सीआरआरआई का रिसर्च बताता है कि इस फॉर्मूले के दौरान दिल्ली की ट्रैफिक में 35% की कमी आई और एक आदमी का ट्रैवेल टाईम औसतन 15 मिनट तक घट गया। संस्थान की ओर से कहा गया कि शुरुआती सर्वे के मुताबिक करीब 10-20% लोग इस दौरान पब्लिक ट्रांसपोर्ट की तरफ शिफ्ट हुए और 40% ने कार पूल का इस्तेमाल किया। अब यह सर्वे कितना सही है, मैं नहीं कह सकता। इस दौरान सड़कों पर मेरा अनुभव और जो तुजर्बा हुआ उसके आधार पर कह सकता हूं कि प्रदूषण के स्तर को कम करने में ज्यादा कामयाबी नहीं मिली होगी।

मेरे ज़हन में कुछ कारण आते हैं जिनकी वजह से ऐसा हुआ होगा और जिनका जिक्र करना चाहता हूं। मैंने औसतन 80 किलोमीटर के हिसाब से प्रतिदिन गाड़ी चलाई। इस दौरान करीब 40 किलोमीटर के एक तरफ के रास्ते पर मुझे चेकिंग करते हुए पुलिसवाले एक या दो बार ही दिखे। ऐसा ही कुछ नजारा सिविल डिफेंस के वॉलेंटियर्स का दिखा।

हां, इतना जरूर है कि मैंने रास्ते में गाड़ियों के नंबर पर गौर किया। इक्का-दुक्का को छोड़कर बाकी जो गाड़ियां सड़क पर थीं वह नियम के मुताबिक ही चल रहीं थी। इसलिए दिल्ली वालों को इसके लिए बधाई देनी ही चाहिए कि उन्होंने इस समस्या की गंभीरता को समझा और अपना पूरा साथ दिया।

मेरा एक अनुभव यह रहा कि सड़क पर ऑटो रोज की तुलना में ज्यादा चल रहे थे। यही वजह रही कि इन दिनों ऑटो वालों ने खूब चांदी काटी। दिल्ली वालों को एक बार फिर इन ऑटोवालों की मनमानी का सामना करना पड़ा। इतनी शिकायतें मिलीं कि सरकार को इसके लिए कदम उठाने की बात भी कहनी पड़ी। मीडिया में भी यह मामला उठा और सरकार सफाई देती रही।

इसके अलावा सड़क पर कैब सर्विस की गाड़ियां काफी दिखने लगी थीं और डीएल-वाई गाड़ियां सड़क पर और दिनों की अपेक्षा ज्यादा चलीं। प्रदूषण में सबसे ज्यादा अगर किसी का योगदान बताया जाता है तो वह डीजल की गाड़ियां और ऐसे में यह कैब सर्विस और डीएल वाई की गाड़ियां ज्यादा चलीं तो प्रदूषण को कम करने में तो यह कहीं से भी उचित नहीं है। ऐसा देखा गया है कि कैब सर्विस और डीएल वाई गाड़ियां डीजल पर ज्यादा दौड़ती हैं।

सड़क पर कमर्शियल गाड़ियों पर कोई रोक नहीं थी। सरकार ने इन पर कुछ रोक के लिए ऐसा कुछ किया भी नहीं था। शायद इससे सीधे लोगों की कमाई पर असर पड़ेगा और सरकार ऐसा कदम उठाना नहीं चाहेगी।

जहां तक कार पूलिंग की बात है तो मेरी राय में यह दोस्तों, और एक ही ऑफिस में जाने वालों तक तो कामयाब हो सकती है लेकिन जमीनी स्तर पर कामयाब नहीं होती दिखती।

इस बीच 12 जनवरी को दिल्ली सरकार का दावा रहा कि दिल्ली में कल 17 में से 12 जगहों पर प्रदूषणकारी तत्वों (पीएम 2.5 और पीएम 10) पर निगरानी के दौरान आंकड़े दर्ज किए गए जो 200 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर थे। वहीं, ‘द एनर्जी एंड रिसॉर्सेस इंस्टीट्यूट’ (टेरी) ने दावा किया कि पिछले सप्ताहांत में सामूहिक रूप से उत्सर्जन और मौसम संबंधी कारणों से वायु प्रदूषण में आई कमी के बाद एक बार फिर प्रदूषण बढ़ना शुरू हो गया।

कैलिफोर्निया के चेपमैन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रमेश सिंह का कहना है कि सम-विषम प्रयोग से दिल्ली में ट्रैफिक तो कम किया जा सकता है, लेकिन इससे प्रदूषण में कमी नहीं लाई जा सकती। सिंह ने कहा, "मैंने नासा द्वारा जारी सैटेलाइट आंकड़ों के आधार पर ये बातें कही हैं।" सिंह इससे पहले आईआईटी कानपुर में सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर थे। सिंह ने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री ने सम-विषण फार्मूला बीजिंग से लिया है। वहां कुछ कारों को कुछ खास इलाकों में केवल निश्चित दिनों में ही जाने की अनुमति होती है। लेकिन वहां इसे ट्रैफिक में कमी लाने के लिए लागू किया गया है ना कि प्रदूषण रोकने के लिए।

सिंह ने कहा कि बीजिंग और दिल्ली दोनों ही जगहों पर प्रदूषण का प्रमुख कारण कोयले से चलनेवाले बिजलीघर, ईंट-भट्ठे और कल-कारखाने हैं। हालांकि बीजिंग और दिल्ली में कौन सा ज्यादा प्रदूषित शहर है इसकी तुलना हम नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों जगहों की भौगोलिक स्थिति बिल्कुल अलग है।

सिंह कहते हैं दिल्ली में प्रदूषण का प्रमुख कारण पश्चिम से पूरब की ओर के सभी शहरों में होने वाला प्रदूषण है। इसे सिर्फ दिल्ली में प्रदूषण रोकने से नहीं रोका जा सकता। हिमालय पर बसे इलाकों में जाड़े में लकड़ी जलाना बेहद आम है। उससे निकला प्रदूषण भी दिल्ली की हवा में घुलता है।

ऑड ईवन की इस योजना के मकसद की कामयाबी में जो बातें सबसे ज्यादा अड़चन पैदा करती हैं उनमें पेट्रोल से चलने वाली गाड़ियों के बजाय डीजल के वाहन, टू व्हीलर्स, कमर्शियल वाहन, ट्रक आदि की ज्यादा भूमिका दिखती है। इसलिए जरूरी है कि टू-व्हीलर चालकों को भी इस नियम के तहत लाया जाना चाहिए था। इनमें से ज्यादातर लोगों को बस से सफर करने में कोई दिक्कत नहीं होगी।

एक जरूरी बात राजधानी के करीब 400 पेट्रोल पंपों की बिक्री पर इसका असर जरूर पड़ा है। पंप मालिकों के मुताबिक ऑड-ईवन की वजह से पेट्रोल-डीजल की बिक्री मोटे तौर पर करीब 35 फीसदी तक औसतन घटी है। इतना ही नहीं कुछ व्यापारी भाईयों ने भी अपने शिकायत की कि इस फॉर्मूले से उनके धंधे पर नकारात्मक असर पड़ा।

मेरा मानना है कि जो लोग पेट्रोल पर गाड़ी ज्यादा चलाते हैं उनके पास एक से ज्यादा गाड़ियां होंगी, कम से कम दिल्ली के लिए तो यह अंदाजा सही होगा। और जिनके पास दूसरी गाड़ी नहीं होंगी वे अब तक गाड़ी को सीएनजी पर कनवर्ट करवा चुके होंगे। जो डीजल की 10 लाख से ज्यादा की गाड़ियां रखते होंगे, उनके पास भी और गाड़ियां होंगी। इन लोगों पर ऐसे फॉर्मूले कामयाब नहीं होंगे।

इसके अलावा जो छोटी गाड़ी वाले लोग पेट्रोल पर गाड़ी चलाते हैं वे जरूरत पर गाड़ी का प्रयोग ज्यादा करते हैं और पारिवारिक उपयोग के मौके पर गाड़ी चलाते हैं। ऐसे लोगों पर यह फॉर्मूला सबसे ज्यादा भारी पड़ा होगा।

मेरा मानना है कि सरकार को चाहिए कि वह ऐसी किसी गाड़ी को नहीं रोके जिसमें तीन या तीन से ज्यादा लोग सवार हैं। यह गाड़ी वाले की जरूरत भी हो सकती है। ऐसा नियम होने पर हो सकता है कि चालान से बचने के लिए तमाम कार चालक लोगों की मदद भी कर दें। इससे कई लोगों का दोहरा भला होगा। एक जेब का खर्च बचेगा दूसरा प्रदूषण नियंत्रण भी, सड़क पर गाड़ी भी कम होगी, बसों में भीड़ भी कम।

मैंने सड़क पर पाया है कि दोनों ओर सड़क किनारे मिट्टी और बालू जमा रहती है। मिट्टी से ज्यादा बालू पायी जाती है। सरकार को चाहिए कि रात में सड़कों पर फर्राटे से बालू ओवरलोड कर दौड़ रहे ट्रकों पर नकेल लगाई जाई। ओवरलोड रहने के साथ-साथ ये दूसरों की जान पर भी खतरे की तरह प्रतीत होते हैं। सड़क पर फिसलन, सड़क पर गाड़ियों के परिचालन से उड़ती धूल और बालू बहुत नीचे ही रहती है और सांस लेने में ज्यादा दिक्कत इसकी वजह से होती है। बाइक सवारों, साइकिल चलाने वालों और खिड़की खोलकर गाड़ी चलाने वालों को इससे काफी दिक्कत होती है। वैसे बालू उड़ाते दौड़ते ट्रक या ट्रैक्टर सड़कों पर दिख ही जाते हैं।

वैसे मैंने पाया है कि काफी देर तक यह बालू बाइक सवार, और छोटी गाड़ी चलाने वालों के लिए दिक्कत का सबब बनती है। वह सड़क पर उड़ती रहती है। सुबह तक यह बालू सड़क किनारे लग जाती है। रोज सफाई नहीं होने के कारण यह बालू नालियों में पहुंचती है और वहां भी नाली जाम की समस्या का कारण बनती है। हाल के एक सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि इन बालू के कणों के बाहर जहरीली गैस और कैमिकल जमा हो रहे हैं और लोगों के स्वास्थ्य पर भारी संकट की तरह मंडरा रहे हैं।

बसों को लेकर भी एक सुझाव है। बस टर्मिनल न हो तो एक सड़क से दूसरी सड़क पर बस पकड़ने के लिए काफी पैदल चलना पड़ता है। सरकार को चाहिए कि फ्लाईओवर के करीब बसों के स्टॉप को इतना दूर रखा जाए जिससे बस से चलने वालों को बस बदलते समय दिक्कत का सामना न करना पड़े।

(राजीव मिश्रा khabar.ndtv.com में चीफ सब एडिटर हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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