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This Article is From Feb 02, 2018

एक बार फिर से मुग़ले आज़म

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 02, 2018 22:50 pm IST
    • Published On फ़रवरी 02, 2018 22:50 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 02, 2018 22:50 pm IST
के आसिफ़ ने 'मुगले आज़म' एक ऐसे दौर में बनाई थी जब हिंदुस्तान का दिल टूटा हुआ था. देश ने आजादी की एक बड़ी क़ीमत चुकाई थी और देश की दो आंखें कहलाने वाली हिंदू-मुस्लिम आबादी एक दूसरे को शक, शिकायत, नफरत सब तरह से देख रही थी. बेशक, आज़ादी के साथ देश को नए सिरे से बनाने का एक रचनात्मक जज्बा भी था जो उस दौर में बनी कई फिल्मों में लगातार दिखता रहा. कह सकते हैं, ये रोमानी फिल्में थीं, इनमें उस दौर की लहूलुहान सियासत की हक़ीक़त नहीं थी, लेकिन इन फिल्मों ने बहुत सारे ज़ख़्मी दिलों और लोगों के लिए एक फाहे का काम किया.

'मु़ग़ले आज़म' भी उस दौर में ऐसा ही फाहा थी- एक उजड़ी हुई तहज़ीब की याद जिसे गीत, संगीत और अदब के अनूठे मेल ने एक यादगार अनुभव में बदल डाला. हिंदुस्तान की बादशाहत के ख़िलाफ़ बगावत और मोहब्बत की वह लरजती हुई कहानी अब भी अगर दिलों को छूती है तो शायद इसलिए भी एक भावुक हिंदुस्तान अब भी बचा हुआ है जिसे तमाम तरह की नफ़रत और हसरत के बावजूद मोहब्बत की क़ीमत मालूम है.

हालांकि हमारे आसपास वह दुनिया बड़ी हो रही है जिसमें गोरक्षा के नाम पर सड़कों पर बिखरता ख़ून है, छोटे-छोटे उकसावों पर बड़े होते दंगे हैं, तिरंगे को भी राजनीति का सामान बनाने का दुस्साहसिक यत्न है और कासगंज है.

लेकिन इन्हीं दिनों एक और 'मुग़ले आज़म' चल रहा है. बीते कुछ अरसे से के आसिफ़ की इस फिल्म पर आधारित एक नाटक ने देश के कई शहरों में धूम मचा रखी है. कहना मुश्किल है- मंचन के लिए इस फिल्म का चयन करने की प्रेरणा निर्देशक फ़िरोज़ अब्बास ख़ान को कहां से मिली- यह फिल्म की भव्यता को मंच पर उतारने की चुनौती का आकर्षण था या इस दौर में फिर से उस मुगलिया दौर की तहज़ीब को फिर से मंच पर उतारने की चाहत- लेकिन इसमें संदेह नहीं कि भारत के रंगमंच में यह एक बड़ी घटना है. एक फिल्म को लगभग उसकी चाक्षुष भव्यता के साथ देखने का अपना सुख है. बेशक, यह बहुत ख़र्चीला उपक्रम रहा हो, लेकिन सिर्फ़ पैसे से यह भव्यता हासिल करना संभव नहीं था. अपनी कल्पनाशीलता में यह पूरी प्रस्तुति कई स्तरों पर कलात्मक बन पड़ी है. मंच परिकल्पना लगभग हैरान करने वाले ढंग से अनूठी है. राजदरबार, अंतःपुर, बागीचे. युद्ध का मैदान- सब बड़ी सहजता से मंच पर उतरते चलते हैं. प्रकाश-व्यवस्था इस मंच योजना को साकार करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. युद्ध के दृश्य के लिए इस्तेमाल प्रतीकात्मकता को छोड़ दें तो बाकी सारे दृश्य पूरी तरह यथार्थवादी हैं और अपना प्रभाव छोड़ने में सक्षम. इस बहुत जटिल और लंबे मंचन में तालमेल ऐसा है कि एकबारगी भरोसा नहीं होता कि हम नाटक देख रहे हैं, फिल्म नहीं.

यही बात कलाकारों के अभिनय के बारे में कही जा सकती है. 'मुग़ले आज़म' एक संगीत प्रधान फिल्म भी थी. उसके कालजयी गीत आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं. ख़ास बात यह है कि मंच पर यह सारे गीत अभिनेता ख़ुद गाते हैं. गीतों के साथ ज़रूरी नृत्य संरचनाएं इतनी सघन हैं कि वे भी फिल्म के प्रभाव की बराबरी करती हैं. इस लिहाज से अभिनेताओं के काम को सराहना उनके वास्तविक योगदान को छोटा भर करना होगा.

यह सच है कि भव्यता आपको क्षण भर के लिए भले अभिभूत करे, वह बड़ा कलात्मक प्रभाव पैदा नहीं करती. लगभग इसी दौर में लगी और सामंती मूल्यों को हतप्रभ करने वाले ढंग से प्रोत्साहित करती फिल्म 'पद्मावती' इसकी मिसाल है. लेकिन यह शायद के आसिफ़ का करिश्मा था कि इस भव्यता का निर्वाह करते हुए भी उन्होंने विषय-वस्तु की मार्मिकता को बचाए रखा था- मोहब्बत की कहानी अपने पूरे उरूज के साथ अपनी बात कह रही थी.

फिरोज़ अब्बास शाह की मंचीय प्रस्तुति 'मुग़ले आज़म' भी अपनी भव्यता के बावजूद अपनी कलात्मक मार्मिकता बचाए रखती है. इसका श्रेय़ फिर उस पूरी कल्पनाशीलता को देना होगा जिसमें मंचसज्जा, प्रकाश-व्यवस्था, कलाकारों का अभिनय, ध्वनि, संगीत- सब इस तरह गुंथे हुए हैं कि एक सामूहिक प्रभाव पैदा करते हैं- खुद को थोपते नहीं.

बेशक. यह प्रस्तुति जितनी भव्य है, उसके टिकट उतने ही महंगे भी हैं. बहुत सारे लोग शायद इस वजह से देखने की इच्छा रहते हुए भी इसे देख नहीं पा रहे. संभव है, इसकी ज़्यादा से ज्यादा प्रस्तुतियां शायद दरों को कुछ कम करे. लेकिन ज्यादा बड़ी बात दूसरी है. जब राजनीति, समाज, जीवन- सबकुछ को लगभग विषाक्त बनाने की तैयारी है तब संस्कृति-सााहित्य-संगीत, कला वे माध्यम हैं जो इस जीवन की सुंदरता को, इसके मूल्य को बचाए रखने के जतन में हैं. यह बात 'मुग़ले आज़म' की रंगमंचीय प्रस्तुति के सिलसिले में ही नहीं कही जा रही, इसका वास्ता उन छोटे-बड़े तमाम सांस्कृतिक-सामाजिक उपक्रमों से है जिनका मकसद एक बड़े दिल वाले हिंदुस्तान को बचाना है. वरना संगतराश 'मुग़ले आज़म' में जो कहता है, वह हमारी मौजूदा सत्ता व्यवस्था पर पूरी तरह खरा लगता है- 'शाहंशाहों के इंसाफ़ और ज़ुल्म में किस क़दर कम फ़र्क होता है.'

प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं

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