गांधी के देश में, गांधी के बाद, सबसे लंबी गांधीवादी लड़ाई

गांधी के देश में, गांधी के बाद, सबसे लंबी गांधीवादी लड़ाई

इस चेहरे को गौर से देखिए। इस ब्लॉग की तस्वीर के हर चेहरे को गौर से देखिए. यह चेहरा पिछले तीस-पैंतीस सालों से एक संघर्ष का प्रतीक है. इस जैसे पैंतीस-चालीस हजार आम चेहरों की सालों से एक छोटी सी लड़ाई है. लड़ाई है अपनी जमीन से न उजाड़े जाने की. लड़ाई है जमीन के बदले वाजिब जमीन पाने की. लड़ाई है जंगल-जमीन बचाने की.

इतने लंबे संघर्ष, बार-बार की निराशा और वक्त के बेरहम थपेड़े खाकर भी न इन्होंने बंदूक उठाई. न कभी कोई कानून तोड़ा. गांधी के देश में, गांधी के बाद गांधी के सत्याग्रह को सबसे बड़ी ताकत बना संभवत: सबसे लंबी लड़ाई। सत्याग्रह। एक बार फिर.

सवाल यह है कि चार दशकों के इस लंबे संघर्ष का आज भी क्या नतीजा है. सिफर. दावा है कि अब भी चालीस हजार परिवारों को उचित पुनर्वास नहीं मिला है. उनकी जिंदगी संकट में है. बावजूद उसके इनकी बात सुनने की फुर्सत सरकार के पास नहीं है. अचरज लगता है, इतने सालों तक बिना कोई गुस्सा किए लोग कैसे लड़ते रहते हैं. अचरज इस बात का भी है कि इतनी लंबी लड़ाई में लोग निराश क्यों नहीं होते? इनके चेहरे अब भी विश्वास से कैसे भरे हैं?

नर्मदा जल, जंगल, ज़मीन हक सत्‍याग्रह 30 जुलाई यानी आज से मध्यप्रदेश के एक छोटे से कस्बे बड़वानी की गांधी समाधि के से शुरू हो रहा है. सत्‍याग्रह में नर्मदा घाटी के लोग, उनके देश भर के समर्थक और आम नागरिक शामिल होकर सरदार सरोवर के नाम पर डूब प्रभावितों के साथ किए जा रहे अन्‍याय का विरोध कर रहे हैं.

 

2014 में सरदार सरोवर बांध के गेट लगाकर उसे पूर्ण जलाशय स्‍तर 138.68 मीटर तक भर देने का निर्णय लिया गया था. सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने इससे पहले आदेश दिया था कि बिना पुनर्वास के ही बांध को पूरा किया जा सकता है. पूर्ण स्‍तर तक भर जाने से गुजरात, महाराष्‍ट्र और मध्‍यप्रदेश के 244 गांवों के 40 हजार से अधिक परिवार प्रभावित होने वाले हैं. इनमें से अधिकांश आदिवासी हैं. इनकी खेती और घर डूब जाएंगे. डूब में मध्‍यप्रदेश का धरमपुरी कस्‍बा भी शामिल है.

इनकी लड़ाई छोटी सी है. बेहतर पुनर्वास की लड़ाई. लेकिन विस्थापन के जितने भी अनुभव रहे हैं, वे बेहद कड़वे हैं. व्यवस्था जिस चुस्ती से लोगों को हटाती है, उसी प्राथमिकता से उन्हें बसाती क्यों नहीं. याद आता है इंदिरा सागर बांध से प्रभावित हरसूद शहर. मंगल ग्रह की भौगोलिक परिस्थितियों में पुनर्वास किया गया यह बीस हजार की आबादी वाला कस्बा अब भी पूरी तरह नहीं बस सका है. एक पूरी की पूरी समृद्ध, हंसती-खेलती आबादी फिर वैसी नहीं बस सकी तो गांव और मजरों-टोलों की बात तो छोड़िए.

क्या ऐसा किया नहीं जा सकता कि विशाल बांध और विकास परियोजनाएं बनाने वाली सरकार इस आबादी को पहले से अधिक जीवंत बसाकर विरोध कर रहे इन लोगों को चुप करा दे. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जमीन से जमीन मांगने वाले इन विकास विरोधियों को सरकार जमीन देकर मुंह चुप करा दे. उद्योगपतियों को सस्ते दामों पर हजारों एकड़ जमीन निवेश के नाम पर बांट देने वाली व्यवस्था आखिर इन लोगों के लिए दो इंच अच्छी जमीन भी क्यों नहीं निकाल पाती? यह तो केवल उन चालीस हजार लोगों की जिंदगी भर का सवाल है. जिन्होंने अपनी जायज मांगों के लिए कभी अहिंसक बनने का रास्ता नहीं चुनाए (जो हमें देश के कई दूसरे हिस्सों में विकास के नाम पर दिखाई देता है). ये लोग आज भी गांधी के देश में गांधीवादी तौर-तरीकों से साल-दर-साल सत्याग्रह करते हैं. पर क्या आज अहिंसक आंदोलनों का कोई असर व्यवस्था पर होता है या नहीं, सोचना होगा. आखिर इरोम शर्मिला को सोलह सालों के बाद अपना अनशन तोड़ना पड़ता है. पर इससे कितने सवाल हल हो पाए और इतने सालों का एक विरोध किसी अंजाम तक पहुंचा भी या नहीं? क्या हम एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में असहमतियों की समृद्ध परम्परा को बचाकर रखना चाहते हैं या नही.
 
नर्मदा बचाओ आंदोलन का सीधा आरोप है कि सरदार सरोवर बांध से सिंचाई और पेयजल उपलब्ध कराने के जो दावे किए गए हैं, वे खोखले इसलिए हैं क्योंकि अब तक नहरों का काम 30 सालों में मात्र 30.35 प्रतिशत हो पाया है. उनका यह भी आरोप है कि दिल्‍ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे के तहत आने वाले उद्योगों को पानी देने के लिए गुजरात सरकार सरदार सरोवर के कुल कमाण्‍ड क्षेत्र में से 4 लाख हेक्‍टेयर कम करने का निर्णय ले चुकी है. गुजरात सरकार के इस निर्णय के प्रथम लाभांवितों में कई कॉरपोरेट घराने शामिल हैं. गुजरात सरकार द्वारा सरदार सरोवर की नहर से हर दिन 30 लाख लीटर कोका कोला को और 60 लाख लीटर प्रति दिन आणंद स्थित कार कंपनी को दिए जाने का अनुबंध किया गया है, इससे जाहिर होता है कि बांध का असली लाभ लेने वाले लोग कौन हैं.

गुजरात के आरटीआई कार्यकर्ता भारत सिंह झाला कहते हैं कि गुजरात के गांवों को सिंचाई मिलेगी, लेकिन हमने देखा है नर्मदा का पानी किसानों के पहले उद्योगपतियों को दिया जा रहा है. संभव है पानी कच्‍छ तक भी पहुंच जाए, लेकिन ये किसानों और आदिवासियों के लिए नहीं बल्कि उद्योगों के लिए होगा. गुजरात में 2 हजार से अधिक गांव साल दर साल लगातार पूर्ण या आंशिक सूखे की समस्‍या से ग्रसित हैं लेकिन उन तक नर्मदा का पानी नहीं पहुंचाया गया है.

तो सवाल केवल मंशा का है. इतने कड़े और लगातार उदासीन रवैये के चलते लोगों को अब व्यवस्था पर भरोसा नहीं रहा. उन्हें लगता है कि व्यवस्था के एजेंडे में वे नहीं कोई और हैं. सबसे बड़ा संकट भरोसे का न बन पाना है. भरोसा बन गया होता तो संभवत: इतना लंबा संघर्ष भी न होता. न सरदार सरोवर परियोजना की लागत 4 हजार 200 करोड़ से बढ़ कर 90 हजार करोड़ रुपए हो चुकी होती. लेकिन 21 गुना वृद्ध‍ि का आरोप विकास विरोधियों पर जड़ दिया जाता है.

राजघाट में शुरू हुए सत्‍याग्रह की मांगों पर एक नजर गौर कर लीजिए, बगैर पुनर्वास के सरदार सरोवर के गेट बंद नहीं करना. खेती की जमीन देकर पुनर्वास करना. आवश्‍यक सुविधायुक्‍त पुनर्वास स्‍थलों का निर्माण करना. पुनर्वास स्‍थलों पर आजीविका के साधन उपलब्ध करवाना. 1000-1500 करोड़ रुपए के पुनर्वास घोटाले की जांच वाली झा आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक करना और उसकी सिफारिशों पर कार्रवाई करना.

इसमें से एक भी मांग आप बता दीजिए. जो आपको नाजायज लगती है. यह केवल लोगों के सवाल हैं, प्रकृति और पर्यावरण के सवाल तो अलग ही हैं. कुदरत अपना हिसाब अपने तरीके से कर भी लेती है, कर ही रही है, आप गुरूर मत पालिए. फ़िलहाल तो लोग जो सवाल कर रहे हैं उनका जवाब दीजिए...

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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