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This Article is From Jul 27, 2016

मैंने इस तरह जीती ब्रैस्ट कैंसर से जंग...

Anju Yadav
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    July 27, 2016 16:23 IST
    • Published On July 27, 2016 16:23 IST
    • Last Updated On July 27, 2016 16:23 IST
मैंने और मेरे दोस्त ने नए साल की शुरुआत बहुत ज़ोर-शोर से नहीं की - यानी दिल्ली की कंपकंपा देने वाली सर्दियों की रात में कानफोड़ू संगीत पर नाचते हुए नहीं की। इससे उसे परेशानी नहीं, बल्कि राहत थी, क्योंकि अब तक वह साल की शुरुआत में मेरे हैंगओवर झेलते-झेलते थक चुका था। वह शराब को हाथ नहीं लगाता और यह समझ नहीं पाता था कि इतने सालों तक यह रुटीन क्यों चलती रहा - इस साल, यानी 2016 को छोड़कर...

कुछ दिन पहले, मेरा ध्यान एक ख़ास बात पर गया था - अपने बाएं वक्ष के ऊपर एक छोटी-सी गांठ पर। मैंने इसे कुछ संदेह से देखा, फिर फौरन उड़ा दिया - ऐसे किसी खयाल को अपने दिमाग में जगह देने को मैं तैयार नहीं थी। कई दिन तक यह गांठ खतरनाक ढंग से मेरी ब्रा स्ट्रैप के नीचे दबी रही - यह मुझे भूलने नहीं दे रही थी - और फिर भी मैंने कुछ नहीं किया।

तो नए साल की शाम पर लौटें। दोस्त के साथ अच्छी कट रही थी। मैं अपनी पसंदीदा सिनामॉन व्हिस्की के घूंट भरती हुई, घिसे-पिटे चुटकुलों पर हंस रही थी। हां, तब मैंने बेपरवाही से इसे हल्का-सा फिसल जाने दिया। क्या यह एक गांठ है, मैंने उससे पूछा - या सिर्फ मच्छर के काटने का निशान जैसा कुछ...? वह बिल्कुल हैरान था और उसने सवालों की झड़ी लगा दी। मुझे उसकी चिंता से निबटने के लिए एक और ड्रिंक की ज़रूरत महसूस हुई।

जब मैं उसके सवालों से घिरी थी तो सोच रही थी कि मैंने यह जानते हुए भी कुछ किया क्यों नहीं, मुझे क्या करना चाहिए था। एक बिगड़े हुए बच्चे की तरह, क्या मैं सोच रही थी कि अगर मैं इसे नज़रअंदाज़ करूं तो गांठ गायब हो जाएगी...? क्या मैं ख़ुद को समझाने की कोशिश कर रही थी कि सब कुछ ठीक हो जाएगा - यह जानते हुए भी कि कुछ गड़बड़ है...?

नकार का इस्तेमाल ज़िन्दगी में मैंने पलायन के लिए भी किया है और चीज़ों पर काबू पाने के लिए भी। मैंने फिर उसी तरह जीवन शुरू कर दिया, जैसे यह बातचीत हमारे बीच कभी हुई ही नहीं थी। दिल्ली में सर्दियों की सुबह कुछ देर जॉगिंग से बेहतर क्या हो सकता है...? मेरा सुरूर तब कुछ उतर गया, जब मेरी बेस्ट फ्रेंड ने फोन करके पूछा कि क्या मैंने डॉक्टर से समय लिया है...? हम दोनों ने आपस में बात की थी कि साल की शुरुआत अपनी सेहत की जांच कराने के साथ करेंगे। बस यही कि अब मैं यह नहीं चाहती थी। फिर से नकार। मैंने सोचा और झूठ बोल दिया कि डॉक्टर बाहर गया हुआ है। लेकिन हमारे क़रीब के लोग हमें हमारे अनुमान से कहीं बेहतर समझते हैं। उसने ख़ुद डॉक्टर को फोन करने का फ़ैसला किया और गांठ की भी चर्चा की। मेरे दोस्त के अलावा वह अकेली लड़की थी, जिसे इसका पता था... तो अब हम तीन थे। डॉक्टर ने फौरन मैमोग्राफी कराने के लिए कहा। इससे मैं बचना चाहती थी, लेकिन इस बार मैंने सही काम किया।

मैं मैमोग्राफ़ी के लिए बहुत तेज़ धड़कते दिल और बहुत मद्धिम क़दमों के साथ गई। डॉक्टर एक रहमदिल बुज़ुर्ग जैसा था, जो मुझे लगता है, मेरी फ़िक्र महसूस कर चुका था। हम यूं ही बातचीत करते रहे। मैं आसानी से अपने जज़्बात प्रदर्शित करने वाली नहीं हूं, इसलिए बड़ी-बड़ी बहादुराना बातें करती रही। मैंने उसे बताया कि मुझे ऐसी गांठों और ब्रेस्ट कैंसर के बारे में सब पता है, क्योंकि बस साल भर पहले मैंने इस पर एक डॉक्यूमेंटरी बनाई है। हालांकि जो मैं उनसे कह रही थी और जो मेरे दिमाग में चल रहा था, उनमें कोई तालमेल नहीं था।

बारीकी से मुआयने के बाद उन्होंने मुझे अल्ट्रासाउंड और एफएनसीए (गांठों की जांच के लिए होने वाली एक प्रक्रिया) के लिए भेजा और दो दिन बाद आकर रिपोर्ट ले लेने को कहा। अगले 48 घंटे 'क्या-कैसे' से भरे हुए थे।

मैं जिस्मानी तौर पर फिट थी, बिल्कुल पूजा की तरह एक्सरसाइज़ करती थी, अनुशासित जीवन जीती थी (इस हद तक कि दूसरे झल्ला जाएं), अच्छी खुराक लेती थी और अपने भावनात्मक, आध्यात्मिक और मानसिक स्व को संतुलित रखती थी - यह कैसे संभव था कि मेरे साथ कोई गड़बड़ी हो जाए...?

दो दिन बाद, जब डॉक्टर के सहायक का फोन आया कि उन्होंने मुझे मिलने को बुलाया है, तो मैं समझ गई कि क्या होने वाला है। ख़ुशक़िस्मती से, मै टूटी हुई नहीं थी और मैंने यह खबर बड़ी सहजता से ली - मेरा दोस्त और डॉक्टर दोनों हैरान थे। इस बार, उन्होंने सोचा कि मैं नकार की मुद्रा में हूं, लेकिन सच से इससे ज़्यादा दूर कुछ नहीं हो सकता था। इस बार मैं समस्या की आंख में आंख डालकर देख रही थी और मैंने कहा - तो यह है सच। मेरी छोटी-मामूली-सी गांठ कैंसरग्रस्त है। मुझे ब्रेस्ट कैंसर है।

इस निदान से निबटने लायक कुछ मजबूती मैंने बचा रखी थी, लेकिन मुझे अपनी मां और बाकी परिवार को यह जानकारी देने के लिए और हिम्मत जुटानी पड़ी। मां को जब मैंने पहली बार फोन किया तो उस सुबह थोड़ी-थोड़ी देर पर उसका फोन आता रहा - हर बार उसकी आवाज़ पहले से ज़्यादा भारी होती। 'क्या तुम रो रही हो, मां', मैंने उससे पूछा... 'नहीं', उसने कहा, 'बस, प्रार्थना कर रही हूं...' फिर उसने कहा कि वह बस उसे बताएगी, जिसे बताना ज़रूरी होगा। मैं इन सबको एक बहुत मज़बूत और निरंतर बौद्ध अभ्यास से मिले फायदे के तौर पर देखती हूं, जो हमें समस्याओं में डूब जाने की इजाज़त नहीं देते - चाहे वे कितनी भी बड़ी हों।

मेरी ख़ुशक़िस्मती से मेरा कैंसर स्टेज 1 का था। इस सबसे जो सबसे बड़ा सबक मैंने सीखा - हम औरतों को अपनी जांच ज़रूर करानी चाहिए - ख़ासकर 40 के बाद। हम सब ख़तरे में हैं - भले हमारी जीवन शैली जो भी हो, कैंसर या किसी और बीमारी का पारिवारिक इतिहास हो या नहीं। 40 के पार की औरतें, जिनके चक्र जारी हैं, बच्चे नहीं हैं, जो उन्हें दूध नहीं पिलाती हैं। ये सब ख़तरा बढ़ाते ही हैं। मैं इसी श्रेणी में आती थी। अपनी जांच को गंभीरता से लें। इसमें बहुत वक़्त नहीं लगता।

अजीब बात यह है कि कैंसर पकड़े जाने से पहले भले यह डर हो सकता है, जिसने मुझे मैमोग्राफी कराने से रोके रखा, लेकिन जब मुझे पता चल गया कि कुछ गड़बड़ है तो फिर मैं कतई डरी हुई नहीं थी। यह साफ नहीं है कि मेरी उम्मीद किस बात पर टिकी थी। क्या ये नई तकनीकें थीं...? डॉक्टर थे...? ख़ुद मैं थी...? मेरा सपोर्ट सिस्टम था...? हो सकता है, ये सब हो, लेकिन इससे भी ज़्यादा था। हम जो कैंसर के बारे में सोचते हैं, शायद वह वास्तविक कैंसर से बड़ा होता है।

नतीजे आने के पांच दिन के भीतर मेरी सर्जरी हुई। गांठ जा चुकी थी। मैंने जीवन में कुछ नहीं बदला। काम करती रही, दोस्तों के साथ घूमती रही, सफ़र किया और रोज़ योग करती रही। मैं चाहती थी कि घर पहले की तरह जीवंत रहे, रोज़ होने वाली झिकझिक चलती रहे और सारी बातचीत जितनी संभव हो, उतनी सामान्य रहे।

इसका असर पड़ा - टुकड़े-टुकड़े में। फिर कीमोथैरेपी शुरू हुई। यह बात सतही लग सकती है, लेकिन यह पहली चीज़ थी, जिसने कैंसर से मेरे मुक़ाबले में पहली बार मेरे भीतर असली डर पैदा किया। मेरे बाल जा रहे थे और यह बदला हुआ रूप था, जो मुझे डरा रहा था। और हां, मैं अपनी ही प्रतिक्रिया से निराश थी।

मैं खुद को एक मज़बूत और तार्किक इंसान मानती हूं और यहां मैं सोच रही थी कि कीमो से कैसे बचा जाए, ताकि मैं अपनी तरह दिखती रहूं - कैंसर को परास्त करने की मेडिकल ज़रूरत का जो भी हो।

मैंने परिवार से, अपने दोस्त से, डॉक्टरों से भी बहस की, लेकिन आखिरकार हथियार डाल दिए।

कीमो बहुत मुश्किल हो सकता है। शारीरिक तौर पर यह आपको कई तरह से बिल्कुल तहस-नहस कर डालता है। मेरे पहले ही सेशन के दो हफ़्ते के भीतर मेरी प्यारी लटें लट्ठे की तरह गिरने लगीं। यह वह दृश्य था, जिसके लिए किसी ने मुझे तैयार नहीं किया था। जहां भी मैं सिर रखती - अपनी मां की गोद में भी - मुझे अपनी लटें मिलतीं। जितनी बार कुछ बाल झड़ते, मेरा अपना चेहरा कुछ कम अपना रह जाता। जैसे यह काफी न हो, मैं मोटी होने लगी। अचानक मेरा ध्यान अपनी बीमारी से लड़ने की जगह उन बाहरी नतीजों की तरफ चला गया, जिन्हें मुझे नज़रअंदाज़ करना चाहिए था।
 
कीमोथैरेपी से पहले, और बाद में लेखिका...

मैंने फिर अपने बौद्ध अभ्यास की शरण ली। बौद्ध स्त्रोतों के जाप से फिर मेरा ध्यान मूल चीज़ों की तरफ गया। मैंने अपनी नई शक्ल को अपनी अस्थायी पहचान के तौर पर स्वीकार कर लिया। मैंने एक विग लगवाया और हल्के बंदने लिए। मैं धीरे-धीरे अपने गंजेपन को स्वीकार करने लगी थी। धीरे-धीरे इसे छिपाने की ज़रूरत नहीं थी। लोग मुझे देखकर जान जाते थे कि मैं कैंसर से जूझ रही हूं। मुझे इसे छिपाने या अपने में रहने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं हुई। मैंने जांच की सलाह देनी शुरू की और कई महिलाओं ने मेरी सलाह मानी।

कीमो के बाद चार हफ़्ते लंबा रेडिएशन चला। हर किसी ने कहा कि यह तो बहुत आसान होने वाला है, और जो सबसे बुरा था, वह पीछे छूट चुका है। यह सच नहीं था। यहीं मेरे जीवट, निश्चय और मज़बूती का असली इम्तिहान हुआ। ये चार हफ्ते मेरे ऊपर जिस्मानी तौर पर सबसे भारी पड़े। मेरी मिचली अपने चरम पर थी और हर रोज़ मैं कमज़ोर होती जा रही थी। मेरा पेट जैसे जवाब दे चुका था। (यह कीमो का विलंबित असर भी हो सकता था) मेरा जिस्म दुखता था। मैं थकी हुई थी, सांस लेना मुश्किल हो जाता था।

लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मेरे आसपास खड़े लोग मुझे हारने नहीं देते। एक दोस्त मेरे साथ पार्क में योग करने को तैयार हो गई, सहकर्मियों ने कहा कि मुझे ऑफिस आने की ज़रूरत नहीं, मैं घर से काम करूं। हर समस्या का कोई न कोई समाधान था।

...तो अपनी ज़िन्दगी या दिनचर्या को बहुत बदले बिना मैं इससे पार पाने में कामयाब रही - इसकी वजह से मैंने नाउम्मीदी के एहसास के आगे घुटने नहीं टेके। मैंने अपने निश्चय पर भरोसा किया। आज यह मेरे पास है।

मैं जानती हूं, यह मेरे नियंत्रण में है। मुझे उन लोगों पर भरोसा है, जो मुझे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तौर पर कमज़ोर पड़ने नहीं देंगे। मुझे यकीन है कि जब भी मेरे जिस्म पर हमला होगा, यह लड़ लेगा। अब मुझे अपने छोटे बाल भी अच्छे लगते हैं।

अंजू यादव NDTV में सीनियर कन्टेंट प्रोड्यूसर हैं...

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