सुनील बंसल के हाथों में बीजेपी के चुनाव प्रचार की कमान है
वाराणसी:
अगर बीजेपी उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जीत जाती है तो इस कामयाबी का श्रेय लेने वाले कई लोग सामने आ जाएंगे. पर एक शख्स ऐसा भी है जो शायद तब भी सामने न आए. इनका नाम है सुनील बंसल, जो बीजेपी के संगठन सचिव हैं और जिनके हाथ में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने यूपी में चुनाव प्रचार की कमान दे रखी है. सुनील बंसल को उनके जानने वाले सुनील जी कहकर पुकारते हैं. उनसे हमारी मुलाकात बनारस स्थित बीजेपी के मुख्यालय में हुई जहां वे हल्के गुलाबी रंग का कुर्ता पहने मिले. गौरतलब है कि पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में अंतिम चरण में मतदान होना है और यह क्षेत्र पार्टी के लिए नाक का सवाल बना हुआ है. बंसल बीजेपी से संबद्ध छात्र संघ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले भी 2014 के लोकसभा चुनाव में वह अमित शाह के सहायक के रूप में काम कर चुके हैं. लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यूपी की 80 सीटों में से 71 पर शानदार जीत दर्ज की थी.
अमित शाह के चुनाव प्रबंधन की शैली पर सुनील एक डायरी रखते हैं जिसके पन्ने पलटकर वह दिखाते हैं कि कब उन्हें 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार की कमान थमाई गई. (यूपी में बीजेपी के दूसरे प्रभारी राज्यसभा सांसद ओम माथुर हैं जो राजस्थान से हैं और सुनील बंसल जैसे ही हैं.)
बंसल कहते हैं, उन्हें तीन कमजोर कड़ियां दिखीं जिन्हें ठीक करने का प्रयास उन्होंने किया. पहली, गरीब ग्रामीणों तक पार्टी की पहुंच बनाने के उपाय करना. इसके तहत बीजेपी ने 2015 में यूपी में पंचायत चुनाव लड़ा, वह भी पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बड़े स्तर पर. करीब 3000 सीटों पर पार्टी ने उम्मीदवार खड़े किए.किए. हालांकि पार्टी करीब 350 सीटें ही जीत पाई लेकिन इस कवायद से पार्टी को ग्रामीण स्तर पर प्रतिभाओं को ढूंढने में मदद मिली जो बेहद महत्वपूर्ण साबित होंगे.
दूसरा, 2014 में उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रबंधन का आधार माने जाने वाले 1.40 लाख पोलिंग बूथों में से बीजेपी की उपस्थिति एक चौथाई से भी कम बूथों तक थी. लेकिन 2016 के अंत तक आक्रामक सदस्यता अभियान की मदद से पार्टी ने अपनी पहुंच करीब 1.28 लाख बूथों तक बना ली. बंसल ने बताया कि हर एक बूथ पर करीब 10 औसत कार्यकर्ता हैं. बीजेपी के विरोधी इन दावों पर संदेह व्यक्त करते हैं और कहते हैं कि इन बूथ कमेटियों में बहुत सारी ऐसी हैं जहां गलत जानकारी दर्ज की गई है. बंसल ने बताया कि लखनऊ स्थित एक कॉल सेंटर जिसमें 150 लोग कार्यरत हैं, लगातार कार्यकर्ताओं को फोन कर उनकी सत्यता की जांच करता रहता है, और जांच में जो सही नहीं मिलने उन्हें लिस्ट से बाहर कर दिया जाता है.
तीसरा, इस सारी कवायद ने बीजेपी को मुख्यत रूप से ऊंची जातियों की पार्टी होने की छवि तोड़ने में मदद मिली. वर्तमान में पार्टी दावा करती है कि यूपी में मध्य और निचले स्तर पर इसके कार्यकर्ताओं में से करीब 40 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातियों से हैं. (बंसल के अनुसार पहले यह आंकड़ा करीब 10 फीसदी था). आखिरी चुनौती थी उम्मीदवारों का चयन, जिसके लिए बीजेपी की आलोचना भी हुई, विशेषकर दूसरी पार्टी से आए नेताओं को टिकट देने को लेकर जिनकी संख्या करीब 80 है.
बंसल कहते हैं, यह भी एक योजना के तहत किया गया. उन्होंने कहा कि यूपी में करीब 67 सीटें ऐसी हैं जिन पर बीजेपी को कभी जीत नहीं मिली. (इनमें से ज्यादातर उन जिलों में हैं जहां यादव और मुस्लिम या दलित और मुस्लिम मतदाता बड़ी संख्या में हैं और जो क्रमश: समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का मुख्य आधार हैं.) एक शरारती मुस्कान के साथ बंसल बताते हैं कि दूसरी पार्टियों से आए नेताओं में से जिन 80 को टिकट मिला है, उनमें 67 को इन्हीं सीटों पर खड़ा किया गया है. उन्होंने कहा, 'यूपी के हर जिले में आप पाएंगे कि चुने गए उम्मीदवार बीजेपी के सामाजिक समीकरण को दर्शाते हैं जिनमें ठाकुर, ब्राह्मण, ओबीसी और दलित सभी शामिल हैं.'
बंसल ने कैमरे के सामने इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया. वे कहते हैं कि चुनावी नतीजों की घोषणा के बाद भी वे अपने इस रुख पर कायम रहेंगे. लेकिन हमारी बातचीत के दौरान उनके कमरे के बाहर की भीड़, जिनमें से कई लोग बार-बार अंदर भी आ जा रहे थे, उन्हें देखकर तो यही संकेत मिलता है कम से कम बीजेपी के भीतर ही सही, एक नए अमित शाह तैयार हो रहे हैं.
अमित शाह के चुनाव प्रबंधन की शैली पर सुनील एक डायरी रखते हैं जिसके पन्ने पलटकर वह दिखाते हैं कि कब उन्हें 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार की कमान थमाई गई. (यूपी में बीजेपी के दूसरे प्रभारी राज्यसभा सांसद ओम माथुर हैं जो राजस्थान से हैं और सुनील बंसल जैसे ही हैं.)
बंसल कहते हैं, उन्हें तीन कमजोर कड़ियां दिखीं जिन्हें ठीक करने का प्रयास उन्होंने किया. पहली, गरीब ग्रामीणों तक पार्टी की पहुंच बनाने के उपाय करना. इसके तहत बीजेपी ने 2015 में यूपी में पंचायत चुनाव लड़ा, वह भी पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बड़े स्तर पर. करीब 3000 सीटों पर पार्टी ने उम्मीदवार खड़े किए.किए. हालांकि पार्टी करीब 350 सीटें ही जीत पाई लेकिन इस कवायद से पार्टी को ग्रामीण स्तर पर प्रतिभाओं को ढूंढने में मदद मिली जो बेहद महत्वपूर्ण साबित होंगे.
दूसरा, 2014 में उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रबंधन का आधार माने जाने वाले 1.40 लाख पोलिंग बूथों में से बीजेपी की उपस्थिति एक चौथाई से भी कम बूथों तक थी. लेकिन 2016 के अंत तक आक्रामक सदस्यता अभियान की मदद से पार्टी ने अपनी पहुंच करीब 1.28 लाख बूथों तक बना ली. बंसल ने बताया कि हर एक बूथ पर करीब 10 औसत कार्यकर्ता हैं. बीजेपी के विरोधी इन दावों पर संदेह व्यक्त करते हैं और कहते हैं कि इन बूथ कमेटियों में बहुत सारी ऐसी हैं जहां गलत जानकारी दर्ज की गई है. बंसल ने बताया कि लखनऊ स्थित एक कॉल सेंटर जिसमें 150 लोग कार्यरत हैं, लगातार कार्यकर्ताओं को फोन कर उनकी सत्यता की जांच करता रहता है, और जांच में जो सही नहीं मिलने उन्हें लिस्ट से बाहर कर दिया जाता है.
तीसरा, इस सारी कवायद ने बीजेपी को मुख्यत रूप से ऊंची जातियों की पार्टी होने की छवि तोड़ने में मदद मिली. वर्तमान में पार्टी दावा करती है कि यूपी में मध्य और निचले स्तर पर इसके कार्यकर्ताओं में से करीब 40 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातियों से हैं. (बंसल के अनुसार पहले यह आंकड़ा करीब 10 फीसदी था). आखिरी चुनौती थी उम्मीदवारों का चयन, जिसके लिए बीजेपी की आलोचना भी हुई, विशेषकर दूसरी पार्टी से आए नेताओं को टिकट देने को लेकर जिनकी संख्या करीब 80 है.
बंसल कहते हैं, यह भी एक योजना के तहत किया गया. उन्होंने कहा कि यूपी में करीब 67 सीटें ऐसी हैं जिन पर बीजेपी को कभी जीत नहीं मिली. (इनमें से ज्यादातर उन जिलों में हैं जहां यादव और मुस्लिम या दलित और मुस्लिम मतदाता बड़ी संख्या में हैं और जो क्रमश: समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का मुख्य आधार हैं.) एक शरारती मुस्कान के साथ बंसल बताते हैं कि दूसरी पार्टियों से आए नेताओं में से जिन 80 को टिकट मिला है, उनमें 67 को इन्हीं सीटों पर खड़ा किया गया है. उन्होंने कहा, 'यूपी के हर जिले में आप पाएंगे कि चुने गए उम्मीदवार बीजेपी के सामाजिक समीकरण को दर्शाते हैं जिनमें ठाकुर, ब्राह्मण, ओबीसी और दलित सभी शामिल हैं.'
बंसल ने कैमरे के सामने इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया. वे कहते हैं कि चुनावी नतीजों की घोषणा के बाद भी वे अपने इस रुख पर कायम रहेंगे. लेकिन हमारी बातचीत के दौरान उनके कमरे के बाहर की भीड़, जिनमें से कई लोग बार-बार अंदर भी आ जा रहे थे, उन्हें देखकर तो यही संकेत मिलता है कम से कम बीजेपी के भीतर ही सही, एक नए अमित शाह तैयार हो रहे हैं.
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