चीज़ें फॉर्वड करते-करते खुद बैकवर्ड होते जा रहे हैं हम...
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का,
अब ऊंगली 'क्लिक' करने से बस इक,
झपकी गुज़रती है,
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर,
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है.
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर.
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से,
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी.
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
और महके हुए रुक्क़े,
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे,
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !
-गुलज़ार
अब पूरे परिवार के साथ बैठकर महाभारत कौन देखता है? अब दोस्तों के साथ मिलकर शक्तिमान जैसे सुपरहीरो के मूव्ज कॉपी करने के खेल कौन खेलता है? अब आप और हम कितनी दफा किसी को खत पोस्ट करते हैं? न्यू ईयर या जन्मदिन पर आजकल के बच्चे ग्रीटिंग कार्ड भेजते हैं क्या?
इन सबका जवाब 'ना' है.
फॉर्वड करते-करते खुद बैकवर्ड होते जा रहे हैं हम...
अब तो 'गो सोलो' का जमाना है. अकले इंटरनेट पर शो और फिल्म देखो. फोन पर ही सुपरहीरो वाले गेम्स खेल लो. ईमेल के जमाने में चिट्ठी कौन लिखता है यार, व्हॉट्सऐप के जमाने में जिफ इमेज के ज़रिये ही बधाई देने का रिवाज है. कभी आपने गौर किया कि हमारी इस वर्चुअल ज़िंदगी में इतने आलसी हो गए हैं कि मैसेज फॉर्वर्ड करते-करते रिश्ते में पिछड़ते जा रहे हैं, शब्दों से दूर होते जा रहे हैं...
होके मजबूर, चला दुनिया दूर...!!!
सारा दिन इंटरनेट में बिजी रहने की वजह से हम असल ज़िंदगी से दूर चले जा रहे हैं. सस्ते फोन और टेलकॉम कंपनियों की ओर से लोकलुभावन दर पर डाटा पैक हमें वर्चुअल दुनिया में जीने को और भी प्रोत्साहित कर रही हैं. लेकिन अगर आप इंटरनेट के गुलाम नहीं बनना चाहते और 'असल ज़िंदगी' जीना चाहते हैं तो कम से कम हफ्ते में एक बार ये काम ज़रूर करें...
ऑनलाइन शॉपिंग को कहें ना
ये हमें आलसी बनाते जा रहे हैं. इसकी लच न लगने दें. दोस्तों के साथ शॉपिंग पर जाएंऔर मौज-मस्ती करें. सुपरमार्केट जाकर मां के साथ राशन खरीदें, काफी कुछ सीखने को मिलेगा. वक्त की कमी का बहाना बनाने की ज़रूरत नहीं.
डिजिटल डिटॉक्स
दुनिया इंतज़ार कर सकती है, पहले आप अपने चाय का लुत्फ उठाएं. खाना खाते वक्त, चलते-फिरते या किसी से बात करते वक्त बीच-बीच में अलर्ट्स और नोटीफिकेशंस चेक करना न तो आपकी सेहत के लिए सही है न ही रिश्ते के लिए. दिन के कुछ घंटे डिजिटल दुनिया से खुद को दूर रखने की कोशिश करें. यकीन मानिए बहुत सुकून मिलेगा.
किताबे पढ़ें, 'डिजिटल कॉन्टेंट' नहीं
माना कि इंटरनेट पर हर टॉपिक पर ढेर सारी सामग्री मौजूद है. लेकिन एक हाथ में चाय और दूसरी में अखबार का होना अलग ही रोमांच पैदा करता है. हफ्ते में कम से कम कुछ देर बालकनी में आरामकुर्सी पर लेटकर किताबें पढ़ें. एक बार फिर 'पुराने जमाने' की अच्छी आदत अपना लें.
खुद पर लगाएं कर्फ्यूं
आज की तारीख में हम और आप अपना वॉलेट घर पर ज़रूर भूल सकते हैं, लेकिन फोन के बिना एक पल भी जीने की सोच नहीं कर सकते. माना कि ये बेहद उपयोगी यंत्र है. लेकिन आपको खुद पर कर्फ्यू लगाना ही होगा. कुछ नहीं, तो घर के आस-पास के इलाके में थोड़े वक्त के लिए आप निकलते हैं तो फोन साथ न ले जाएं. धीरे-धीरे इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लें.
अब ऊंगली 'क्लिक' करने से बस इक,
झपकी गुज़रती है,
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर,
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है.
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर.
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से,
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी.
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
और महके हुए रुक्क़े,
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे,
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !
-गुलज़ार
अब पूरे परिवार के साथ बैठकर महाभारत कौन देखता है? अब दोस्तों के साथ मिलकर शक्तिमान जैसे सुपरहीरो के मूव्ज कॉपी करने के खेल कौन खेलता है? अब आप और हम कितनी दफा किसी को खत पोस्ट करते हैं? न्यू ईयर या जन्मदिन पर आजकल के बच्चे ग्रीटिंग कार्ड भेजते हैं क्या?
इन सबका जवाब 'ना' है.
फॉर्वड करते-करते खुद बैकवर्ड होते जा रहे हैं हम...
अब तो 'गो सोलो' का जमाना है. अकले इंटरनेट पर शो और फिल्म देखो. फोन पर ही सुपरहीरो वाले गेम्स खेल लो. ईमेल के जमाने में चिट्ठी कौन लिखता है यार, व्हॉट्सऐप के जमाने में जिफ इमेज के ज़रिये ही बधाई देने का रिवाज है. कभी आपने गौर किया कि हमारी इस वर्चुअल ज़िंदगी में इतने आलसी हो गए हैं कि मैसेज फॉर्वर्ड करते-करते रिश्ते में पिछड़ते जा रहे हैं, शब्दों से दूर होते जा रहे हैं...
होके मजबूर, चला दुनिया दूर...!!!
सारा दिन इंटरनेट में बिजी रहने की वजह से हम असल ज़िंदगी से दूर चले जा रहे हैं. सस्ते फोन और टेलकॉम कंपनियों की ओर से लोकलुभावन दर पर डाटा पैक हमें वर्चुअल दुनिया में जीने को और भी प्रोत्साहित कर रही हैं. लेकिन अगर आप इंटरनेट के गुलाम नहीं बनना चाहते और 'असल ज़िंदगी' जीना चाहते हैं तो कम से कम हफ्ते में एक बार ये काम ज़रूर करें...
ऑनलाइन शॉपिंग को कहें ना
ये हमें आलसी बनाते जा रहे हैं. इसकी लच न लगने दें. दोस्तों के साथ शॉपिंग पर जाएंऔर मौज-मस्ती करें. सुपरमार्केट जाकर मां के साथ राशन खरीदें, काफी कुछ सीखने को मिलेगा. वक्त की कमी का बहाना बनाने की ज़रूरत नहीं.
डिजिटल डिटॉक्स
दुनिया इंतज़ार कर सकती है, पहले आप अपने चाय का लुत्फ उठाएं. खाना खाते वक्त, चलते-फिरते या किसी से बात करते वक्त बीच-बीच में अलर्ट्स और नोटीफिकेशंस चेक करना न तो आपकी सेहत के लिए सही है न ही रिश्ते के लिए. दिन के कुछ घंटे डिजिटल दुनिया से खुद को दूर रखने की कोशिश करें. यकीन मानिए बहुत सुकून मिलेगा.
किताबे पढ़ें, 'डिजिटल कॉन्टेंट' नहीं
माना कि इंटरनेट पर हर टॉपिक पर ढेर सारी सामग्री मौजूद है. लेकिन एक हाथ में चाय और दूसरी में अखबार का होना अलग ही रोमांच पैदा करता है. हफ्ते में कम से कम कुछ देर बालकनी में आरामकुर्सी पर लेटकर किताबें पढ़ें. एक बार फिर 'पुराने जमाने' की अच्छी आदत अपना लें.
खुद पर लगाएं कर्फ्यूं
आज की तारीख में हम और आप अपना वॉलेट घर पर ज़रूर भूल सकते हैं, लेकिन फोन के बिना एक पल भी जीने की सोच नहीं कर सकते. माना कि ये बेहद उपयोगी यंत्र है. लेकिन आपको खुद पर कर्फ्यू लगाना ही होगा. कुछ नहीं, तो घर के आस-पास के इलाके में थोड़े वक्त के लिए आप निकलते हैं तो फोन साथ न ले जाएं. धीरे-धीरे इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लें.
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