दिलीप कुमार पाठक की किताब ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया' की समीक्षा
सरल भाषा और देव आनंद की आरंभिक झलक
देव आनंद को पसंद करने और उनके बारे में जानने की इच्छा रखने वाले सिनेप्रेमियों के लिए इस वर्ष फिल्म समीक्षक दिलीप कुमार पाठक की पहली किताब ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया' शब्दगाथा अविरल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आई है. किताब की भाषा सहज और सरल है. लेखक शुरुआत में ही पाठकों को देव आनंद की मूल पृष्ठभूमि से परिचित कराते हैं. “देव साहब के पिता भाषण देने की कला में काफी दक्ष थे.” यह सहजता पुस्तक को पाठक के लिए तुरंत सुलभ बना देती है.
साक्षात्कारों के सहारे उभरता व्यक्तित्व, स्त्रोतों की पुष्टि
लेखक ने इस किताब में कई साक्षात्कारों का जिक्र किया है, जिनसे देव आनंद की सोच, व्यक्तित्व और फिल्मी दृष्टि परत दर परत खुलती जाती है. “उन्होंने सिमी ग्रेवाल के फेमस चैट शो में इस बारे में बात भी की थी.” ऐसी पंक्तियां पुस्तक को डॉक्यूमेंटरी जैसा असर देती हैं और पाठक को सीधे स्रोत से जोड़े रखती हैं. किताब में देव आनंद से जुड़ी अफवाहों का भी उल्लेख है और लेखक ने स्पष्ट रूप से अपने स्रोत दिए हैं. इससे पुस्तक की विश्वसनीयता बढ़ती है और यह गॉसिप से हटकर एक दस्तावेज जैसा प्रतीत होती है.

‘Romancing with Life' के अंश : अच्छी सामग्री, लेकिन संपादन कमजोर
किताब में देव आनंद की आत्मकथा से लिए गए कुछ लेख शामिल हैं. लेकिन इन लेखों के कुछ अंशों का दोहराव संपादन की कमी को दिखाता है. उदाहरण, पृष्ठ 198 और 208 पर देव साहब के रोने के दुर्लभ प्रसंग का पुनरावर्तन पाठक को रुकने पर मजबूर करता है. लेखक की कथात्मक शैली पुस्तक की बड़ी ताकत है. “देवानन्द साहब ने आजादी के ठीक बाद भाइयों के साथ मिलकर नवकेतन स्टूडियो की नींव डाली थी.” यह कथा शैली पाठक को देव आनंद के समय में ले जाती है और फिल्म उद्योग के शुरुआती वर्षों की झलक दिखाती है.
कल्ट गीतों से लेकर चार्ली चैपलिन तक : देव आनंद का विस्तृत रचनात्मक संसार
देव साहब के ‘कल्ट गीत' वाला अध्याय पाठक को संगीत निर्माण की दिलचस्प कहानियों से परिचित करता है. इसी तरह ‘कल्ट क्लासिक फिल्मों' वाला भाग सिनेमा के इतिहास को समझने में मदद करता है.“इस फिल्म के जरिए गुरुदत्त साहब वहीदा रहमान को हिंदी सिनेमा में लेकर आए थे.” ऐसे विवरण फिल्म इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए खास महत्व रखते हैं. पुस्तक में चार्ली चैपलिन, सुरैया और बलराज साहनी जैसी महान हस्तियों के साथ देव आनंद के संबंधों का विस्तार से वर्णन है. “अगर चार्ली चैप्लिन उन्हें अपने साथ काम करने का मौका देते, तो शायद देव साहब उनके साथ काम करने के लिए दौड़े चले जाते.” यहां लेखक ने देव साहब की विनम्रता और उत्साह दोनों को अच्छी तरह पकड़ लिया है.
अभिनेत्रियों के प्रति सम्मान और लेखक का पक्षपात
देव आनंद के समकालीन अभिनेत्रियों के साथ सम्मानजनक संबंधों का लेखक ने सुंदर वर्णन किया है.
फिर भी कुछ स्थानों पर लेखक का प्रशंसक वाला भाव उभर आता है, “जिन मैग्ज़ीनों में फूहड़ता बेची जाती थी, उनमें भी देव साहब और जीनत अमान जी के नाम पर वही स्तरहीनता मिलती है.” यह वाक्य समीक्षा को थोड़ी भावनात्मक दिशा में ले जाता है.
लेखक ने देव आनंद की फिल्मों पर टिप्पणी की है, “देव साहब की फिल्में संगीत प्रधानता पर टिकी होती थीं.” परंतु आलोचनात्मक गहराई कम दिखाई देती है. देव आनंद की छवि इतनी प्रभावशाली है कि लेखक कई बार उनसे पर्याप्त दूरी बनाकर विश्लेषण नहीं कर पाते. 'नवकेतन फिल्म्स' के विवरण का बार-बार लौट आना भी प्रवाह को कमजोर करता है.
गोल्डी अध्याय की मजबूती और भाषा की कमजोरी, साथ ही पुराने बॉलीवुड का समृद्ध दस्तावेज
यह अध्याय पुस्तक का शोध के लिहाज से सबसे मजबूत हिस्सा है. “इतनी दूरदर्शी सोच के बारे में सोचकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि गोल्डी फिल्म मेकिंग क्राफ्ट के कितने बड़े जीनियस थे.” लेकिन भाषा की कमजोरी यहां स्पष्ट दिखती है, “सोच के बारे में सोचकर” जैसे दोहराव पाठक को असहज करते हैं और अभिव्यक्ति की तीक्ष्णता कम कर देते हैं.
किताब में पुराने बॉलीवुड से जुड़े अनेक दुर्लभ और भावपूर्ण प्रसंग दर्ज हैं, “दोनों ने दिलीप साहब का हाथ पकड़कर उन्हें उनके कमरे तक छोड़ते हुए सारी रस्में निभाई थीं.” देव आनंद की कम चर्चित फिल्म ‘The Evil Within' पर दिया गया विस्तार पुस्तक को और भी महत्त्वपूर्ण बनाता है और पाठक को उत्सुक करता है.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं