...कहीं 'नवरुणा कांड' न बन जाए मुजफ्फरपुर बालिका गृह रेप कांड

बिहार का मुजफ्फरपुर विरले ही राष्ट्रीय मीडिया में अपनी जगह बना पाता है, मगर 29 बच्चियों से बलात्कार की खबरों से यह राष्ट्रीय फलक पर इस तरह के निगेटिव हेडलाइन्स से शहर का छीछालेदर करवाएगा, इसकी उम्मीद तो हमें कतई नहीं थी.

...कहीं 'नवरुणा कांड' न बन जाए मुजफ्फरपुर बालिका गृह रेप कांड

बिहार का मुजफ्फरपुर विरले ही राष्ट्रीय मीडिया में अपनी जगह बना पाता है, मगर 29 बच्चियों से बलात्कार की खबरों से यह राष्ट्रीय फलक पर इस तरह के निगेटिव हेडलाइन्स से शहर का छीछालेदर करवाएगा, इसकी उम्मीद तो हमें कतई नहीं थी. लीचियों के लिए फेमस बिहार का मुजफ्फरपुर इस बार बालिका गृह में बच्चियों के साथ घिनौने कृत्य का गवाह बना हुआ है. असहाय, मजबूर बच्चियों से बलात्कार का गवाह बना मुजफ्फरपुर काफी समय से चीख-चीख कर अपनी दास्तां सुना रहा था, मगर इसकी गूंज को, तंत्र और अपराधियों के षड्यंत्र ने ऐसे दबाए रखा कि महीनों-महीनों तक मीडिया को इसकी भनक तक न लगी. मगर अफसोस, मुजफ्फरपुर की जुर्म की दीवारें इतनी ऊंची हो चुकी हैं कि लाख पुलिसिया मुस्तैदी के बाद भी उसमें दरार पड़ने का नाम नहीं ले रही. बहरहाल, इस बार का मामला नवरुणा कांड से भी ज्यादा सिहरन पैदा करने वाला है. नवरुणा कांड का तो अभी तक स्पष्ट कुछ पता ही नहीं, मगर यहां 29 बच्चियों से बलात्कार हुआ है, इस बात की पुष्टि हो चुकी है. 29 बच्चियों से रेप की घटना ऐसी जगह पर हुई है, जहां अनाथ, भूली-भटकी और बेसहारा बच्चियों को रखा जाता है. बालिका आश्रय गृह ऐसी बच्चियों का एक ऐसा ठौर-ठिकाना होता है, जहां सरकार और एनजीओ की मदद से उसे जीवन का सहारा दिया जाता है, मगर मुजफ्फरपुर की घटना ने कई तरह के सवाल खड़े कर दिये हैं. अब जरा सोचिये, जहां समूह में रह रहीं बच्चियां भी सुरक्षित नहीं हैं, वहां सड़क पर चलती एक बच्ची कैसे सुरक्षित रहेगी?

हैरान करने वाली बात है कि इस आश्रय गृह में 42 बच्चियां थीं, जिनमें से 29 के साथ बलात्कार की पुष्टि की गई है. यानी इस शेल्टर में बच्चियों की अस्मत को लूटने का इन दरिंदों ने जो घिनौना खेल रचा है, वह सभ्य समाज के मुंह पर किसी काले धब्बे से कम नहीं है. मुजफ्फरपुर को बौद्धिक लोगों का शहर कहा जाता है, मगर उनकी बौद्धिकता पर सवाल उस वक्त खड़े हो जाते हैं, जब शहर के बीचो-बीच स्थित एक शेल्टर होम में 29 बच्चियों के साथ बलात्कार होता है. उन मासूमों की आवाजों से दीवारें भी सहम उठती हैं, मगर उनकी गूंज वहां के समाज को नहीं सुनाई देती. जब इन मासूमों की गूंज एक-दो खबरों और रिपोर्टों के आधार पर सुनाई भी देती है तो वहां के लोगों को इस बात पर हैरानी, बेचैनी नहीं होती? स्थानीय मीडिया को इस बात की बेचैनी क्यों नहीं होती कि 29 बच्चियों से बलात्कार हुआ और अपराधी कानून की गिरफ्त से आजाद हैं. जिस शहर के लोग अन्य शहर की बेटियों की सुरक्षा के सवाल पर चुप नहीं होते, वह अपनी बेटियों के बलात्कार पर ऐसे खामोश क्यों हैं? जो छेड़खानी और बलात्कार की घटना पर सबसे आगे आकर कैंडल मार्च निकालता रहा है, जो बहन-बेटी की सुरक्षा के लिए आवाज बुलंद करने के लिए अकसर मुखर रहा, वह अपने ही आंगन में हुए इस कांड पर आखिर इतने दिनों तक चुप कैसे रहा? आखिर क्यों शहर बेचैन और व्याकुल नहीं हुआ, आखिर क्यों 29 बच्चियों की सिसकी शहर के कानों में नहीं पड़ी. अगर पड़ी भी तो क्या वह अपराधियों और जुर्म के आाकाओं के आगे इतने बेबस हो चुके थे, कि वे मौन धारण कर नतमस्तक हो गये.

खैर, जब 29 बच्चियों से बलात्कार पर मीडिया की कलम ही नहीं चल पा रही थी, तो आखिर आम इंसान के कदम भय के माहौल में कैसे आगे बढ़ते.  लोगों की चुप्पी, तंत्र, षडयंत्र और दंबग के सामने समझ आती है, मगर मीडिया की चुप्पी अभी भी समझ से परे है. काफी समय से यह खेल चल रहा था, मगर मीडिया चुप्पी का नकाब ओढ़े रहा. सिस्टम में लगे दीमक से मीडिया भी डरता रहा या जानबूझकर उसने सरोकार का समाचार नहीं समझा. दरअसल, इस पूरे मामले में मीडिया की चुप्पी भी हमें डराती है. यह उस समाज को डराती है, जो यह मानकर चलता है कि कम से कम मीडिया में उसकी आवाज को तरजीह दी ही जाएगी. मगर भला हो सोशल मीडिया और कुछेक पत्रकारों का कि इस मुद्दे को दबाने के लाख प्रयासों के बाद भी यह आखिरकार सामने आ ही गया. दरअसल, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस ने 23 अप्रैल को बिहार समाज कल्याण विभाग को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी. फिर भी कोई एक्शन नहीं हुआ. कुछ स्थानीय मीडिया को अगर उन बच्चियों की चीखें सुनाई नहीं देती और कुछ-एक मीडिया इसकी रिपोर्ट न छापता तो शायद यह भयावह आंकड़ा और भी भयावह होता. इस मामले पर से धीरे-धीरे पर्दा हटने लगा, मगर बावजूद इसके प्रशासन की सक्रियता अपने चीर-परिचित अंदाज में दिखा.

अब जब मामला सामने आ गया है तो इसकी गूंज संसद तक सुनाई दी. चारों ओर से सीबीआई जांच की मांग की जा रही है, केंद्र ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि अगर बिहार सरकार चाहे तो वह इस मामले में सीबीआई जांच के आदेश दे सकता है. मगर अब यहां सवाल उठता है कि मुजफ्फरपुर के ही नवरुणा कांड का मसला इतने सालों से सीबाआई नहीं सुलझा पाई है तो यह क्यों न समझा जाए कि इस मामले की हालत कुछ वैसी ही होगी. 12 साल की नवरुणा का अपहरण 18 सितंबर 2012 को हो जाता है, लेकिन इतने साल बाद भी अभी तक इस मामले का निपटारा नहीं हो पाया है. हैरान करने वाली बात है कि नवरुणा कांड का मामला सुप्रीम कोर्ट में है. मुजफ्फरपुर का चर्चित नवरुणा कांड भले ही सीबीआई के पास है, लेकिन अभी तक यह उलझा पड़ा है. पहले स्थानीय पुलिस, फिर सीआईडी और फरवरी 2015 में सीबीआई ने मामले की जांच को अपने हाथ में लिया. मामला सुप्रीम कोर्ट में है और अभी तक सीबीआई किसी अंतिम निष्कर्ष की ओर जाती दिख भी नहीं रही है.

खैर, मुजफ्फरपुर में प्रशासन और अपराधियों की मिली-भगत किसी से छुपी नहीं है. मगर इस बलात्कार कांड ने एक बार फिर से इस बात को पुष्ट कर दिया है कि सिस्टम किस कदर बर्बाद हो चुका है. हैरान करने वाली बात है कि इसमें अभी तक जो मुख्य आरोपी का नाम सामने आया है, वह पेशे से एक पत्रकार भी रह चुका है. तो अब सवाल उठता है कि क्या पत्रकार बिरादरी से होने के नाते स्थानीय मीडिया ने इस मामले पर शुरुआत में उस तरह से दिलचस्पी नहीं ली, जिस तरह से पत्रकारिता धर्म इजाजत देता है? या फिर यह मामला इस वजह से इतने दिनों तक दबाया गया क्योंकि इसमें बड़े-बड़े बाबुओं से लेकर नेताओं तक के हाथ सने हुए हैं? या फिर इसलिए क्योंकि इससे हर उस चेहरे से नकाब उठ जाता, जिसे वहां की जनता भगवान मानती है? कुछ तो है जिसकी वजह से इस मामले को दबाने की भरपूर कोशिश हुई. मगर अब यह मामला संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि दोषियों को सजा जरूर मिलेगी. मगर इस बात के लिए हम सबको ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि इसका हाल नवरुणा कांड की तरह न हो जाए...

(शंकर पंडित Khabar.NDTV.com में सीनियर सब एडिटर हैं...)

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