दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में छात्रसंघ चुनाव के लिए वोटिंग हो रही है, जिसके बाद नतीजे सामने आएंगे. बताया गया है कि इस बार 9 हजार से ज्यादा छात्र इस प्रक्रिया में हिस्सा ले रहे हैं. लेफ्ट छात्र संगठन इस बार एक साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं, ऐसे में मुकाबला काफी ज्यादा दिलचस्प हो गया है. दूसरी तरफ एबीवीपी और एनएसयूआई की तरफ से भी जमकर प्रचार किया गया. अब देखना होगा कि इस बार जेएनयू छात्र संघ चुनाव में कौन बाजी मारेगा. जेएनयू छात्र संघ पर ज्यादातर लेफ्ट छात्र संगठनों का ही कब्जा रहा है, ऐसे में आज हम आपको जेएनयू में वामपंथ की शुरुआत और इस यूनिवर्सिटी की पूरी कहानी बताने जा रहे हैं.
हर मामले में आगे है JNU
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी यानी जेएनयू की स्थापना 1969 में हुई थी, इसके साथ ही यहां वामपंथी छात्र संगठनों का उदय हुआ और उनका ही एकछत्र राज था. इसीलिए इसे वामपंथ का गढ़ कहा जाता है. इमरजेंसी से लेकर तमाम बड़ी राजनीतिक घटनाओं में जेएनयू ने सक्रिय भूमिका निभाई और यही वजह है कि आज भी इस यूनिवर्सिटी को इसी बात के लिए जाना जाता है. जेएनयू अपनी शानदार पढ़ाई के लिए भी मशहूर है. NIRF की बेस्ट यूनिवर्सिटी कैटेगरी में इसे देशभर में दूसरी रैंकिंग दी गई है.
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इमरजेंसी में उठी आवाज
जेएनयू की स्थापना भले ही कांग्रेस की सरकार ने की हो, लेकिन जब इंदिरा गांधी ने 1975 में इमरजेंसी लगाई तो यही जेएनयू सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर उभरने लगा. जेएनयू में छात्रों ने इस फैसले का खूब विरोध किया और इस दौरान कई छात्र नेता उभरकर सामने आए. डीपी त्रिपाठी जैसे छात्र नेताओं ने इंदिरा सरकार की नाक में दम कर दिया था. इसके बाद कई छात्र नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार भी किया और पूरी यूनिवर्सिटी को छावनी में तब्दील कर दिया गया.
सरकारी नीतियों के खिलाफ उठती है आवाज
जेएनयू में वामपंथी राजनीति का ही नतीजा रहा है कि है इमरजेंसी से लेकर आज तक यहां खुलकर सरकार की नीतियों को लेकर सवाल उठते रहे हैं. सरकारी नीतियों की आलोचना करने की यहां पूरी छूट है और छात्र नेता इस पर खुलकर बोलते हैं. इतना ही नहीं, ऐसे मुद्दों पर जेएनयू के मार्च भी खूब चर्चा में रहते हैं. जेएनयू में कई ऐसे अड्डे हैं, जहां छात्र एकजुट होकर गंभीर और राजनीतिक विषयों पर विस्तार से चर्चा करते हैं.
बेहद खास तरीके से होते हैं चुनाव
जेएनयू में छात्र संघ चुनाव भी खास तरीके से होते हैं. यहां अध्यक्ष पद के उम्मीदवार छात्रों के सामने डिबेट करते हैं और बताते हैं कि उनके क्या मुद्दे हैं. ऐसे में छात्र तय कर लेते हैं कि कौन सा उम्मीदवार उनके लिए बेहतर है. छात्र खुद ही ये चुनाव करवाते हैं और कड़े मुकाबले के बावजूद हिंसा की खबरें नहीं आती हैं. चुनाव के दौरान हर दल को अलग जगह दी जाती है और कैंपेनिंग की पूरी आजादी होती है.
एबीवीपी ने जीता था चुनाव
जेएनयू को लेफ्ट छात्र संगठनों का बोलबाला है और इतिहास में भी रहा है, लेकिन 2001 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के संदीप महापात्र ने एक वोट से चुनाव जीतकर इस इतिहास को बदल दिया. इसके बाद से ही यहां लेफ्ट और एबीवीपी जैसे दलों के बीच मुकाबला रहा है. इस बार भी वही माहौल देखा जा रहा है.
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