उर्दू और फारसी भाषा के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib) की आज 221वीं जयंती है. मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी के लोग आज भी कायल हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म (Mirza Ghalib Birthday) 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था. ग़ालिब का असली नाम असदुल्ला खां ग़ालिब था. इसीलिए कभी कभी वह उपनाम में 'ग़ालिब' की जगह 'असद' भी लिखते थे. 12 साल की उम्र से ही उर्दू और फ़ारसी में लिखना शुरू कर देने वाले मिर्ज़ा ग़ालिब कलम के जादूगर थे. बहुत ही छोटी उम्र में ग़ालिब की शादी हो गई थी. मिर्ज़ा ग़ालिब अपने बारे में खुद कहा करते थे -
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़े-बयां और...
मिर्ज़ा ग़ालिब को गोश्त, शराब और जुए का शौक था. ग़ालिब ने इस का जिक्र खुद अपने शेर में किया है.
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
आज भी ग़ालिब के कई शेर लोगों की जुबान पर हैं, गालिब कहते थे-
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
आइये जानते हैं मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन से जुड़ी बातें
1. ग़ालिब (Mirza Ghalib) का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था. उन्होंने फारसी, उर्दू और अरबी भाषा की पढ़ाई की थी.
2. बहुत ही छोटी उम्र में ग़ालिब की शादी हो गई थी. ऐसा कहा जाता है कि उनके सात बच्चे हुए, लेकिन उनमें से कोई भी जिंदा नहीं रहा सका. अपने इसी गम से उबरने के लिए उन्होंने शायरी का दामन थाम लिया.
3. ग़ालिब (Ghalib) की दो कमजोरियां थीं- शराब और जुआं. ये दो बुरी आदतें जिंदगी भर उनका पीछा नहीं छोड़ पाईं. इसे नसीब का खेल ही कहेंगे कि बेहतरीन शायरी करने के बावजूद ग़ालिब को जिंदा रहते वो सम्मान और प्यार नहीं मिला जिसके वो
हकदार थे. शोहरत उन्हें बहुत देर से मिली.
4. बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार के प्रमुख शयरों में से एक थे ग़ालिब. बादशाह ने उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा था. बाद में उन्हें मिर्ज़ा नोशा क खिताब भी मिला. इसके बाद वो अपने नाम के आगे मिर्ज़ा लगाने लगे. बादशाह से मिले सम्मान की वजह से गालिब की गिनती दिल्ली के मशहूर लोगों में होने लगी थी.
5. मिर्ज़ा ग़ालिब को उर्दू, फारसी और तुर्की समेत कई भाषाओं का ज्ञान था. उन्होंने फारसी और उर्दू रहस्यमय-रोमांटिक अंदाज में अनगिनत गजलें लिखीं. उन्हें ज़िंदगी के फलसफे के बारे में बहुत कुछ लिखा है. अपनी गज़लों में वो अपने महबूब से ज्यादा खुद की भावनाओं को तवज्जो देते हैं. ग़ालिब की लिखी चिट्ठियां को भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है. हालांकि ये चिट्ठियां उनके समय में कहीं भी प्रकाशित नहीं हुईं थीं.
6. ग़ालिब की मौत 15 फरवरी 1869 को हुई थी. उनका मकबरा दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन इलाके में बनी निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास ही है.
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