स्कूल ड्रॉपआउट, तंगी और छोटी उम्र में जीविका चलाने के लिए अथक कोशिश यह है उस प्रोड्यूसर-डायरेक्टर का नाम जिन्हें हम और आप मधुर भंडारकर के तौर पर पहचानते हैं. लोअर मिडिल क्लास परिवार में पले बढ़े मधुर के जीवन में कड़वाहट कम नहीं रही और उनके अनुभव स्क्रीन पर भी दिखे. रियलिस्टिक फिल्में गढ़ने वालों में से एक ये ऐसे फिल्म मेकर थे जिनका 90 के दौर में इनका कोई सानी नहीं था. डायलॉग ऐसे होते थे जो दिल और दिमाग को भेद जाते थे. चांदनी बार हो, फैशन हो, कॉरपोरेट हो या फिर इंदु सरकार सब समाज का आईना थीं. जब चांदनी बार की तब्बू बोलती है "जो सपने देखते हैं, वो ही तो जीते हैं" तो लगता है अरे ये तो मेरी भी सोच है. वहीं फैशन का सोसाइटी में रहते हुए, हमें सोसाइटी के हिसाब से जीना पड़ता है" उस सपने को पाने के लिए संघर्ष की राह पर चलने के लिए इंस्पायर करता है. फिल्में ऐसी रही जिसमें मॉर्डन वूमेन की ख्वाहिशें, सपने, महत्वाकांक्षा के साथ ही जड़ों से जुड़ कर आगे बढ़ने का द्वंद दिखा.
मधुर की इस रियलिस्टिक सोच ने ही उन्हें एक नहीं चार-चार नेशनल अवॉर्ड दिलवाए. फिल्मों के लिए उनकी डेडिकेशन का सम्मान पद्म श्री के जरिए भी किया गया. वरना क्या कोई सोच सकता था कि गरीबी में जीवन बीताने वाला बच्चा, ट्रैफिक सिग्नल पर च्युइंग गम बेच कर परिवार के लिए दो पैसे कमाने वाले मधुर इंडस्ट्री का जुझारू और सुपरहिट डायरेक्टर बन जाएगा.
पेश किए सबसे मजबूत महिला किरदार
कहा जाता है कि वो दौर ऐसा था कि बॉक्स ऑफिस पर मधुर भंडारकर का नाम ही सफलता की गारंटी माना जाता था चारों ओर इनकी चर्चा थी. शून्य से शिखर तक पहुंचने का सफर देखा है इन्होंने. इनके साथ काम करने के लिए एक्ट्रेस अपनी फीस तक में कटौती करती थीं. ऐसा करने वालों में तब्बू, करीना, बिपाशा से लेकर प्रियंका चोपड़ा तक शामिल हैं. वो भी जानती थीं कि मधुर भंडारकर फिल्म इंडस्ट्री में सबसे मुखर डायरेक्टर्स में से एक हैं. उनकी फिल्में जिंदगी की कठोर हकीकत को पेश करती हैं वो भी ऐसे कि देखने वाला अवाक रह जाता है. एक हकीकत ये भी है कि उनकी फिल्मों ने हमें सबसे मजबूत महिला किरदार दिए हैं. वे समाज का आईना हैं और समाज में असल में क्या होता है इसे दिखाने और बताने में किरदार हिचकिचाते नहीं हैं.
वीडियो कैसेट देखकर सीखा फिल्म बनाना
ये सच्चाई शायद संघर्षों का नतीजा है. इन संघर्षों ने ही मधुर की सिनेमा के प्रति दिलचस्पी की. वह किसी ना किसी तरह से सिनेमा का हिस्सा बनना चाहते थे. बड़े पर्दे के प्रति झुकाव तब और बढ़ा जब 16 साल की उम्र में भंडारकर ने भारत के मुंबई के उपनगर खार (पश्चिम) में एक वीडियो कैसेट लाइब्रेरी में काम किया और साइकिल पर घर-घर जाकर कैसेट पहुंचाईं. इस दौरान ही कैसेट कलेक्शन किए उन्हें देखा परखा और फिल्म की बारीकियों को समझ लिया. ये कैसेट में बंद फिल्में ही उनकी फिल्म मेकिंग की जानकारी का जरिया बनीं.
90 के दशक के अंत में कई फिल्म निर्माताओं के साथ काम करने के बाद, उन्होंने त्रिशक्ति (1999) फिल्म के साथ डायरेक्शन की दुनिया में कदम रखा. इसे एक बेहतरीन पॉपकॉर्न एंटरटेनर कहा गया लेकिन टिकट खिड़की पर खास कमाल नहीं कर पाई. दो साल बाद चांदनी बार (2001) बनाई, जिसमें तब्बू ने काम किया था. फिल्म को क्रिटिक्स ने खूब सराहा और बॉक्स-ऑफिस पर भी धमाल मचा दिया. इस एक फिल्म ने ही भंडारकर को भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में फिल्म मेकर्स की टॉप कैटेगरी में पहुंचा दिया. इस फिल्म के लिए उन्हें अपना पहला नेशनल अवॉर्ड मिला.
26 अगस्त को मधुर 56 साल के हो गए हैं लेकिन सिल्वर स्क्रीन पर कहानी परोसने की लालसा ज्यूं की त्यूं बनी हुई है. 2022 में आई बबली बाउंसर और इंडिया लॉकडाउन भले ही वो सफलता नहीं दिला पाईं लेकिन उनके फैशन वाले संवाद को जिंदा कर गई. जिसमें उनका किरदार कहता है 'जीवन में कुछ भी आसान नहीं है, हर चीज के लिए लड़ना पड़ता है.' बिग स्क्रीन पर रियलिटी का रंग भरने वाला ये पेंटर आज भी कुछ रियल देने की कोशिश में जुटा पड़ा है.
(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं