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This Article is From Jul 12, 2023

72 हूरें रिव्यू: संजय पूरन सिंह और पवन मल्होत्रा की शानदार फिल्म

पवन मल्होत्रा के दमदार अभिनय और अपने शानदार निर्देशन से संजय पूरन सिंह चौहान ने फिल्म '72 हूरें' से दर्शकों को नफरत का अंजाम दिखाने में कामयाबी पाई है.

72 हूरें रिव्यू: संजय पूरन सिंह और पवन मल्होत्रा की शानदार फिल्म
जानें कैसी है फिल्म '72 हूरें', पढ़ें रिव्यू
नई दिल्ली:

साल 2010 में आई फिल्म 'लाहौर' के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाले निर्देशक संजय पूरन सिंह चौहान '72 हूरें' के लिए भी राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीत गए हैं. उन्होंने इस फिल्म को ऐसे विषय पर बनाया है, जिसके लिए किसी भी निर्देशक को बड़े कलेजे की जरूरत थी. इसका विषय आजकल धर्मगुरुओं के प्रभाव पर आधारित है, फिल्म में दिखाई गई कहानी आज हर धर्म की है. फिल्म दिखाती है कि इंसान को कोई भी निर्णय खुद लेना चाहिए, न कि इसके लिए उसे किसी व्यक्ति की बातों में आना चाहिए. यह बात उसे वक्त पर समझनी चाहिए नही तो बहुत देर हो सकती है.

72 हूरें की कहानी हाकिम और बिलाल नाम के दो फिदायीन आतंकियों की है, जिनकी आत्मा एक फिदायीन हमला करने के बाद भटक रही है. उनको मरने के बाद पता चलता है कि उन्हें फिदायीन हमला करने के बाद 72 हूरों के पास जाने का जो सपना दिखाया गया था, वह झूठा था. अपने किए हमले से प्रभावित हुए लोगों को देखते और उस पर पछतावा करते, हाकिम और बिलाल अपनी मौत के बाद अपने मृत शरीर के साथ हो रही घटनाओं को देखते हैं.

निर्देशक की मास्टरपीस है यह फिल्म

संजय पूरन सिंह चौहान ने फिल्म को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए ब्लैक एंड व्हाइट का रास्ता चुना है. हिंसा का क्रूर परिणाम दिखाने के लिए निर्देशक ने फिल्म में जो दृश्य रचे हैं, वह बेहद प्रभावी हैं. बम धमाके के बाद ब्लैक एंड व्हाइट दृश्य के बीच बिखरे पड़े पैर को रंगीन दिखा देना, इसका उदाहरण है. आतंकियों की आत्मा को कूड़े के ढेर पर भटकता दिखाना भी निर्देशक की रचनात्मकता का नमूना है. गाड़ी के एक्सीडेंट से पहले सामने आती गाड़ी को शीशे पर दिखाकर, निर्देशक दर्शकों को भी फिल्म से जोड़ देते हैं. 

पवन मल्होत्रा ने अपना पूरा अनुभव झोंक दिया है

पवन मल्होत्रा बॉलीवुड के उन कलाकारों में हैं जो अपने जीवन के पांच-छह दशक बॉलीवुड को देते हैं पर उनके बारे में कभी इतनी चर्चा नही होती. दर्शक उनके निभाए एक या दो किरदारों को ही याद रखते हैं. हर इंसान को जिंदगी में कुछ अलग करने के लिए एक मौका तो जरूर मिलता है और 'डॉन', 'भाग मिल्खा भाग' जैसी फिल्मों में काम कर चुके पवन मल्होत्रा को अपने अभिनय जीवन के चार दशक के लंबे सफर में वह मौका इस फिल्म से मिला है. लंबे बाल और दाढ़ी के लुक में आतंकी हाकिम बने पवन का अपने धर्मगुरु की बातों पर अटूट विश्वास होता है, वह पूरी फिल्म में अपने किरदार में पूरी तरह डूबे हुए लगते हैं. उन्होंने आतंकी बिलाल के किरदार में दिखे आमिर बशीर के साथ फिल्म में दर्शकों को बांधे रखा है. अपनी लाश को जलते देख निराश पवन बारिश आने पर जन्नत मिलने की उम्मीद को फिर से जिंदा होता देख नृत्य करते झूमने लगते हैं, तो वहां वह फिल्मी दुनिया के अपने सफर का सबसे शानदार पल निभाते दिखते हैं. आमिर बशीर ने पवन मल्होत्रा के साथ निर्देशक की इस मास्टरपीस को सही से पूरा करने में कोई कसर नही छोड़ी है. उन्हें देख कर महसूस होता है कि मरने के बाद बिलाल की आत्मा अपने किए पर शर्मिंदा होती है.

तकनीकी रूप से मजबूत फिल्म
'72 हूरें' का प्लॉट सही तरीके से तैयार किया गया है, कहानी में आ रहे मोड़ों से उसमें रोचकता बने रहती है. फिल्म का पटकथा लेखन सही लिखा गया है, इसके लगभग हर तकनीकी पक्ष में निर्देशक ने अपना पूरा नियंत्रण बनाए रखा है. कार के अंदर एक जोड़ा किस कर रहा होता है और बैकग्राउंड में धमाके से सब कुछ बिखर रहा होता है, यह दृश्य स्क्रीन में देखते दर्शकों में गहरा असर पड़ता है. यही नियंत्रण फिल्म के सम्पदान में भी देखना को मिला है, जहां फिल्म को दिन के हिसाब से बांटा गया है. हाकिम और बिलाल जब दरवाजे के दूसरी तरफ जन्नत होने के बारे में सोचकर दरवाजा खोलते हैं, इस दृश्य पर किया गया सम्पदान कार्य प्रभावित करता है.

मुंबई के खूबसूरत दृश्यों को कैमरे में एक इस तरह दिखाना था कि यह आतंकवाद पीड़ित क्षेत्र लगे, फिल्म का छायांकन इसमें खरा उतरा है. वहां की सुंदरता देख कर भी आपका दिल डूब सा जाएगा क्योंकि इन्हीं जगहों में आपको धमाके के बाद शरीर के बिखरे अंग दिखते हैं. फिल्म का संगीत हिंसा और आतंकवाद के दर्द को महसूस करवाता है.

संवाद लिखते हुए पवन मल्होत्रा के बोले लगभग सभी संवाद पंजाबी में लिखे गए हैं और आम हिंदी दर्शक को इन्हें समझने में थोड़ी मुश्किल तो आती ही है. 'ओ किसी बेगुनाह को मार के जन्नत नही मिलनी, हूर नही मिलनी' जैसे संवाद वास्तविकता दिखाते हैं. 'न मर सकया, न जमीन मेनू कबूल करती है न आसमान, न नमाज होंदी है न कोई दुआ' फिदायीन का पछतावा दर्शकों के सामने रख देता है.

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