रात को लगभग 11 बजे एक मित्र का फोन आया. बहुत जरूरी हो तभी इस वक्त फोन कोई फोन करता है. बात की तो उन्होंने मुझे कहा कि व्हाट्सऐप पर एक फोटो देखिए. मैंने डेटा ऑन करके उनका भेजा गया फोटो देखा. जब से यह फोटो देखा, रह—रह कर आंखों के सामने घूम रहा है. यह हिंदुस्तान की उन दर्दनाक तस्वीरों सा ही है जो कभी भोपाल की गैस त्रासदी में सामने आता है, कभी किसी अपने की लाश को कांधों पर उठाए बीसियों किलोमीटर चला जाता है. पूरे नौ माह तक अपनी कोख में एक जीवन पाल रही स्त्री के सामने ठीक अंतिम क्षण इतने भारी पड़ने वाले होंगे किसने सोचा होगा. एक शिशु का जन्म लेते ही धरती पर यूं गिर जाना, और जन्म लेते ही मौत को पा जाना, यह दुखों का कितना बड़ा पहाड़ होगा, क्या हम और आप सोच सकते हैं, इस दर्द को महसूस कर सकते हैं, क्या इस दर्द को दूर कर सकते हैं?
यह मामला दो दिन पहले मध्यप्रदेश के कटनी जिले का है. इस जिले के बारे में एनएफएचएस—4 की रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रसव के दौरान यहां पर लोगों को पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा रकम खर्च करनी पड़ती है. कटनी के पास ग्राम बरमानी निवासी रामलाल सिंह और बीना बाई के घर अच्छी खबर आने वाली थी. सुरक्षित प्रसव हो इसके लिए मध्यप्रदेश में बहुत काम किया गया है. संस्थागत प्रसव पर जोर दिया गया है. इसका असर हुआ और अब लोग घरों के बजाय अस्पतालों में जाकर प्रसव कराने को प्राथमिकता दे रहे हैं. अस्पताल तक पहुंचाने का जिम्मा आशा कार्यकर्ताओं को भी दिया गया है. इसके लिए उन्हें प्रोत्साहन राशि दी जाती है. अस्पताल तक पहुंचाने के लिए एम्बुलेंस की सुविधा भी है, इसे जननी एक्सप्रेस नाम दिया गया है. सरकार का दावा है कि अब 80 प्रतिशत से ज्यादा प्रसव अस्पतालों में होने लगे हैं, लेकिन इनमें सुरक्षित प्रसव का प्रतिशत कितना है, यह अभी कहना बाकी है. पर लोगों को उम्मीद तो रहती ही है कि जच्चा—बच्चा का जीवन सुरक्षित रहे.
इसी आस में पति रामलाल सिंह ने प्रसव पीड़ा होने पर बरही अस्पताल पहुंचाने के लिए सुबह 10 बजे जननी एक्सप्रेस को फोन लगाया. समय चलता रहा, पीड़ा बढ़ती रही, लेकिन कोई जननी एक्सप्रेस नहीं आई. हारकर उसने अपनी पत्नी को एक ऑटो में जैसे—तैसे बैठाया और अस्पताल की ओर चल पड़ा. ऑटो अस्पताल से महज 700 मीटर की दूरी पर आकर बंद हो गया. ऐसी अवस्था में प्रसूता के लिए एक कदम में चलना मुश्किल होता है. रामलाल किसी फिल्म का हीरो भी नहीं था, जो अपनी पत्नी को गोद में उठाकर अस्पताल तक पहुंचाने जैसा फिल्मी काम कर सकता. वह दौड़ा, अस्पताल की ओर. रामलाल अस्पताल जाकर कर्मचारियों के सामने एम्बुलेंस भेजने की विनती करता रहा. पत्नी ऑटो में तड़प रही थी.
पति वापस नहीं आया और दर्द जब हद से ज्यादा हुआ तो वह ऑटो से निकल पैदल ही अस्पताल की ओर चलने लगी. कुछ ही दूर चलने पर उसे प्रसव हो गया. उसने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, पर—पर—पर वह सड़क पर ऐसे गिरा कि फिर न हिल—डुल सका, न रो सका. आंखें खुलने से पहले ही बंद हो गईं, सांस चलने से पहले रुक गईं, दिल धड़कने से पहले ठिठक कर रूक गया. सड़क पर खून बह रहा था... पता नहीं यह मौत थी या हत्या.
मुझे दस साल पहले संग्राम सिंह की स्टोरी याद आ गई. यह मंडला जिले का मामला था. यहां पर शिशु नहीं मरा था. बैगा महिला थी, जो शिशु को जन्म देते—देते रास्ते में ही मर गई थी. किसी और मसले पर काम करते—करते हमें इस घटना का पता चला था. उसके पिता ने हमें उसकी आपबीती सुनाई थी. इसके कथानक को बदल दीजिए, कुछ दाएं—बाएं होगा, सामने तीन दिन का संग्राम था, यह नाम भी हम पत्रकारों की टोली उस बच्चे को दे आई थी. अगले दस दिन बाद हमने पता किया तो संग्राम भी उसकी मां के पास ही चला गया था. तब से अब तक दस साल का विकास हमारे सामने है. विकास के पैमाने में जिंदगी की सुरक्षा का कोई मानक कितना सुधरा, कैसे कहें, घटनाएं तो निरंतर हमारे सामने है.
हम संसाधनों का हवाला दे सकते हैं, भारत की भिन्न—भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों के बीच सुविधाएं पहुंचा पाने की असमर्थकता का भी तर्क मान सकते हैं, पर जो व्यवस्थाएं मौजूद हैं, उनके कुशल संचालन के जिम्मेदारी से कैसे दूर भाग सकते हैं. यदि अस्पताल के ठीक सात सौ मीटर पीछे कोई बच्चा जमीन पर गिरकर मर जाए, तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा. क्या हमारा समाज भी इतना निष्ठुर हो गया है कि दर्द से तड़प रही एक महिला को वह अस्पताल तक नहीं पहुंचा सकता ? क्या यह किसी धर्म के एजेंडे में नहीं है ? क्या ऐसे काम देशप्रेम की सूची में समाहित नहीं होंगे !!! क्या ऐसे मसलों पर चर्चा किसी राष्ट्रवाद से कम है?
यह घटना हुई इससे ठीक एक दिन बाद देश की संसद में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री फग्गन सिह कुलस्ते ने एक सवाल के जवाब में बताया था कि भारत के महापंजीयक का नमूना पंजीकरण प्रणाली यानी एसआरएस की रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में देश में प्रति एक हजार शिशु जन्म पर 37 बच्चों की मौत हो जाती है. पांच साल तक के बालकों की मृत्यु दर यानी अंडर फाइव मोर्टेलिटी के मामले में यह आंकडा प्रति हजार जीवित जन्म पर 43 है. इसी तरह मात मृत्यु दर के मामले में यह संख्या प्रति एक लाख प्रसव पर 167 है.
इसी सवाल के जवाब में बताया गया कि देश में 39 प्रतिशत बच्चों की मौत कम वजन या समय से पूर्व प्रसव के कारण, 10 प्रतिशत बच्चों की मौत एक्सपीसिया या जन्म आघात के कारण, 8 प्रतिशत बच्चों की मौत गैर संचारी रोगों के कारण, 17 प्रतिशत बच्चों की मौत निमोनिया के कारण, 7 प्रतिशत बच्चों की मौत डायरिया के कारण, 5 प्रतिशत बच्चों की मौत अज्ञात कारण, 4 प्रतिशत बच्चों की मौत जन्मजात विसंगतियों के काराण, 4 प्रतिशत बच्चों की मौत संक्रमण के कारण, 2 प्रतिशत बच्चों की मौत चोट के कारण, डेढ प्रतिशत बच्चों की मौत बुखार के कारण और पांच बच्चों की मौत अन्य कारणों से होती है.
कटनी में हुई बच्चे की मौत इसमें से किस श्रेणी में आएगी… सोचना होगा! सोचना यह भी होगा कि सड़क पर जो लहू बह रहा है वह मौत का है या हत्या का. और इसका जिम्मेदार कौन है? आखिर ऐसी भी क्या परिस्थिति है कि अस्पताल के ठीक सामने एक प्रसूता प्रसव करती है, बच्चे की मौत हो जाती है; हमारा समाज उसकी मौत को खड़े-खड़े देखता रहता है. इस मौत का मुकदमा किस अदालत में चलाया जाएगा, और क्या कठघरे में हम सभी नहीं होंगे? सरकार की नीति और नीयत का सवाल तो है ही पर क्या समाज की संवेदना भी उसी सिस्टम की भेंट चढ़ गई है.
दुनियाभर में इस सदी की शुरुआत में मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स तय किए गए थे. इसमें भुखमरी को दूर कर देने, गरीबी को हटा देने, शिशु और बाल मृत्यु दर को कम करने सहित कई बिदु थे. जब 2015 तक यह तय नहीं हो पाए तो अब सतत विकास लक्ष्यों का नया एजेंडा तय किया गया है. अब 2030 तक इसमें तय किए गए लक्ष्यों को हासिल करने का वायदा किया गया है.
पर देखिए कि देश की स्वास्थ्य सेवाओं का क्या हाल है. ऐसी वीभत्स तस्वीरें और खबरें जहां से आती हैं, वह एकदम ग्रामीण इलाका ही होता है. ऐसी जगहों पर छोटी-छोटी सेवाएं बड़ा काम करती हैं, मसलन प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र. यह सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहली और महत्वपूर्ण कड़ी है. इसके बारे में घटना के ठीक एक दिन बाद केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार स्वास्थ्य कल्याण मंत्री जेपी नड्डा ने जो जवाब दिया है वह बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कतई ठीक नहीं माना जा सकता है. लोकसभा में प्रस्तुत जवाब के मुताबिक देश में आबादी के हिसाब से अब भी 22 प्रतिशत स्वास्थ्य केन्द्रों की कमी है. यही जानकारी इन केन्द्रों में पदस्थ डॉक्टरों के बारे में है. देश के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 34 हजार 68 डॉक्टरों के पद स्वीकृत हैं इनमें से 8774 पद खाली पड़े हैं. इस संदर्भ में और जानकारियां हैं, जो लगभग ऐसी ही हैं. अब सवाल यही है कि ऐसी स्थितियों में ऐसी कहानियां क्यों न सामने आएं.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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