जाति और धर्म फिर बन रहे यूपी चुनाव के आधार

जाति और धर्म फिर बन रहे यूपी चुनाव के आधार

बसपा प्रमुख मायावती की फाइल तस्वीर

विकास के दावों और विफलताओं के आरोप के बीच उत्तर प्रदेश में आने वाले चुनाव के लिए जाति और समुदाय की नींव पर ही बिसात बिछती दिख रही है. पार्टियां चाहे क्षेत्रीय हो या राष्ट्रीय, जब मुद्दे उठाने और दूसरे को घेरने की बारी आती है तो हिन्दू, मुस्लिम, सवर्ण, पिछड़े, अति पिछड़े, दलित आदि के नाम पर ही लोगों को एकजुट करने की कोशिश होती है और होती रहेगी.

अपनी वापसी की तैयारी में लगी बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने लंबे समय से चल रही गतिहीनता को तोड़ते हुए उत्तर प्रदेश में दो बड़ी सभाएं करके अपने चुनाव प्रचार की धमाकेदार शुरुआत की है. पिछले दिनों अपने नेताओं और समर्थकों द्वारा भारतीय जनता पार्टी के भूतपूर्व नेता दयाशंकर सिंह की पत्नी और बेटी के प्रति असम्मानजनक शब्दों के प्रयोग में चौतरफा घिरीं मायावती ने एक महीने के अंदर ही उत्तर प्रदेश के आगरा और आजमगढ़ में बड़ी सभाएं करके दलित और मुस्लिम समुदाय को एक साथ अपने पीछे लाने की बड़ी कोशिश की है.

जहां एक ओर सभी दलों – विशेष तौर पर बसपा के नेताओं का भाजपा की ओर पलायन जारी है, वहीं इस घटनाक्रम से अपने को अप्रभावित दिखाने की कोशिश में मायावती बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपने आक्रामक रुख को बनाए हुए हैं. उनके मिजाज़ से स्पष्ट है कि अपनी पार्टी के सर्वजन फ़ॉर्मूले को लगभग ख़ारिज करते हुए वे अपने प्रतिबद्ध दलित समर्थकों को ही एकजुट करने में लगीं हैं. जब से प्रदेश के मुस्लिम समुदाय के भीतर से सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के विरूद्ध असंतोष के संकेत मिल रहे हैं, वैसे ही मायावती की ओर से मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए नए-नए बयान आ रहे हैं. देश के कुछ भागों में दलितों पर हुए हमलों की घटनाओं को उन्होंने भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश तो की, लेकिन उत्तर प्रदेश में हुई ऐसी घटनाओं पर उनकी ओर से सपा सरकार की वैसी घेराबंदी नहीं दिखी.

अपनी सभाओं के लिए आगरा और आजमगढ़ को चुनना भी इसी नीति का हिस्सा हो सकता है, क्योंकि जहां आगरा दलित राजनीति का प्रमुख केंद्र बनता जा रहा है, वहीं आजमगढ़ मुस्लिम-बाहुल्य क्षेत्र है. आजमगढ़ में हुई सभा में तो मायावती ने कहा कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान के खिलाफ हमलावर हो रहे हैं और उन्होंने यहां तक आशंका जताई कि उत्तर प्रदेश चुनाव की ही वजह से पाकिस्तान के साथ युद्ध भी हो सकता है. इस नए तरह के ध्रुवीकरण के प्रयास से लगता है कि बसपा में अब सवर्णों, विशेष तौर पर ब्राह्मणों, और पिछड़ी जाति से ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं और उनका ध्यान अब सिर्फ भाजपा द्वारा दलितों के बीच पैठ बनाने की कोशिशों को नाकाम बनाना है.

यह संयोग हो सकता है कि बसपा से बाहर आए नेताओं में जो भाजपा में शामिल हुए उनमें ब्राह्मण और पिछड़ी जाति के ही ज्यादा हैं. जिन बड़े दलित नेता आर.के. चौधरी ने बसपा छोड़ी, वे जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार के साथ मंच साझा कर चुके हैं और उनकी कांग्रेस के साथ किसी प्रकार के समझौते की संभावना की चर्चा भी होती रहती है. ऐसे में दलित वर्ग के वे लोग जो पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती से नाराजगी के कारण भाजपा के पक्ष में चले गए थे, उन्हें अपने पक्ष में वापस लाना ही मायावती की प्रमुख रणनीति हो सकती है.

दूसरी ओर समाज में जातिगत वर्गीकरण पर आधारित राजनीति के चलते कांग्रेस द्वारा ब्राह्मणों को केंद्र में रखने का निर्णय स्पष्ट होता जा रहा है और समाजवादी पार्टी पिछड़े वर्ग के समर्थन और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की छवि को आधार मान कर चुनाव में उतर रही है. यादव परिवार में अंतर-विरोध के बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के यादव सपा के पक्ष में रहेंगे और मुस्लिम समुदाय में सुन्नी वर्ग का बड़ा हिस्सा भी सपा के साथ रहने की उम्मीद है.

सभी राजनीतिक दल भले ही जातिवाद के खिलाफ बयानबाजी करते रहें, लेकिन चुनावी तैयारी से साफ़ हो जाता है कि सभी दलों के पास एक या दो जातियों या समुदायों को ही केंद्र में रखकर अपनी चुनावी रणनीति बनाने के अलावा कोई रास्ता है ही नहीं. सच यह भी है कि यदि कोई भी दल परोक्ष रूप से जातिगत निर्णयों से बचना चाहे तो भी वह कुछ जातियों को नजरंदाज करने के आरोप से बच नहीं सकते, जैसे भाजपा में केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाने पर यह कहा गया कि वहां पिछड़ी जातियों को आकर्षित करने पर जोर है और कांग्रेस द्वारा शीला दीक्षित को चुनावी चेहरा बनाने पर पार्टी के ऊपर ब्राह्मणों को रिझाने का निष्कर्ष निकाला जाना अपेक्षित था ही.

सच यह भी है कि सभी जातियां या समुदाय, जनसंख्या में अपनी उपस्थिति के बावजूद सभी दलों से अपने हितों की सुरक्षा की मांग करते हैं और अपने वर्ग के प्रतिनिधियों को चुनाव में उतारने की अपेक्षा करते हैं. ऐसे में राजनीतिक दलों में प्रदेश में हर जाति और वर्ग के लोगों को बारी-बारी से महत्व देने का अंतहीन सिलसिला शुरू होता है, जो हर जगह जारी है.

निश्चित तौर पर वर्तमान सरकार के काम और विफलताओं का ज़िक्र सभी विपक्षी दल कर रहे हैं, लेकिन अंतत: वोट मांगने का आधार जातिगत कारण ही बनेंगे, इसमें संदेह नहीं है. ऐसे में 2017 के चुनाव के बाद बनी सरकार भी कुछ जनहित के व्यापक काम करने के बजाय जाति और समुदायों के हित साधने मे जुट जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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