मोदी कैबिनेट ने आपराधिक कानून संशोधन विधेयक (The Criminal Law Amendment Bills) पेश करने की मंजूरी दे दी है. भारतीय दंड संहिता (IPC) और भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता ( CrPC) और एविडेंस एक्ट में बदलाव के लिए तीन नए बिलों को अगले हफ्ते संसद में पेश किया जाएगा. IPC की जगह, भारतीय न्याय संहिता बिल, CrPC की जगह, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता बिल और IEA की जगह भारतीय साक्ष्य बिल लाया जाएगा. गृह मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति (Parliamentary Standing Committee) इन तीन कानूनों में बदलाव के साथ-साथ एडल्टरी यानी व्यभिचार और गे सेक्स या समलैंगिता (Homosexuality फिर से आपराधिक बनाने की सिफारिश की थी. हालांकि, सरकारी सूत्रों के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी कैबिनेट कमिटी के इन 2 सुझावों से असहमत हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने अलग-अलग आदेश में व्यभिचार और समलैंगिक यौन संबंधों को गैर-आपराधिक घोषित किया है.
कमिटी ने सिफारिश की थी कि व्यभिचार और समलैंगिकता के अपराध को भारतीय न्याय संहिता विधेयक, 2023 (Bharatiya Nyaya Sanhita Bill, 2023) में बरकरार रखा जाए. जबकि पीएम मोदी, मोदी कैबिनेट का ऐसा मानना है कि एडल्टरी और होमोसेक्सुएलिटी को दोबारा कानून के दायरे में लाने के दूरगामी नतीजे होंगे. साथ ही इसे सुप्रीम कोर्ट और उसके फैसलों के खिलाफ देखा जाएगा.
हालांकि, यहां संगठित अपराध और आतंकवाद की परिभाषा को 21वीं सदी के अनुरूप बनाने के लिए इसमें कुछ बदलाव किए गए हैं. सूत्रों के मुताबिक, भारतीय न्याय संहिता बिल, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता बिल और भारतीय साक्ष्य बिल पर लोकसभा में बुधवार को और अगले सप्ताह की शुरुआत में राज्यसभा में चर्चा होने की उम्मीद है. इनके संसद से पारित होने के बाद नए आपराधिक कानून विधेयकों के लागू होने का रास्ता साफ हो जाएगा.
एडल्टरी पर क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
2018 में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की एक बेंच ने फैसला दिया था कि 'व्यभिचार कोई अपराध नहीं हो सकता और नहीं होना चाहिए'. बेंच ने कहा कि व्यभिचार तलाक के लिए आधार हो सकता है. तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा ने यह कहते हुए तर्क दिया था कि 163 साल पुराना, औपनिवेशिक काल का कानून "पति पत्नी का स्वामी है" की अवैध अवधारणा का पालन करता है.
उस समय कानून कहता था कि एक पुरुष जो एक विवाहित महिला के साथ और उसके पति की सहमति के बिना यौन संबंध रखता है तो ये अपराध है. उसे दोषी पाए जाने पर 5 साल तक की सजा का सामना करना पड़ सकता है. हालांकि, महिला को दंडित नहीं किया जाएगा, सजा सिर्फ पुरुष को होगी.
धारा 377 पर क्या था सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिक वैधता पर सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में अपना फैसला सुनाया था. केस में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई में पांच जजों की बेंच ने एकमत से कहा- "समलैंगिकता अपराध नहीं है." चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि समलैंगिक समुदाय को भी आम नागरिकों की तरह समान अधिकार हासिल हैं. एक-दूसरे के अधिकारों का सम्मान करना सर्वोच्च मानवता है. समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखना बेतुका है. इसका बचाव नहीं किया जा सकता.
कोर्ट ने कहा कि दो बालिग बंद कमरे में सहमति से संबंध बनाते हैं तो वह अपराध नहीं माना जाएगा. हालांकि, अदालत ने यह साफ किया कि बच्चों और जानवरों से अप्राकृतिक संबंध अब भी अपराध रहेगा. फैसला सुनाने वाली बेंच में जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थे.
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