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This Article is From Jul 11, 2018

दिहाड़ी मजदूरों से भी कम पैसे कमाते हैं संस्‍कृत ग्रेजुएट्स, नहीं मिल पाती आसानी से नौकरी

देश में संस्कृत भाषा में ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट करने वाले स्टूडेंट नौकरी और भविष्य को लेकर चिंतित हैं.

दिहाड़ी मजदूरों से भी कम पैसे कमाते हैं संस्‍कृत ग्रेजुएट्स, नहीं मिल पाती आसानी से नौकरी
संस्कृत पढ़ने वाले स्टूडेंट्स अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं.
नई दिल्ली: देश में संस्कृत, पाली और प्राकृत भाषा में ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट करने वाले स्टूडेंट नौकरी और भविष्य को लेकर असमंजस में हैं. विद्वानों का मानना है कि स्कॉलरशिप का प्रावधान कर इन भाषाओं को फिर से जीवित करने में मदद मिल सकती है. पूजा ने अपनी उच्च शिक्षा संस्कृत में हासिल की है, लेकिन वह अपने करियर को लेकर चिंतित हैं. 23 साल की पूजा इतिहास के पाठ्यक्रम में एडमिशन लेना चाहती थी लेकिन कम अंकों की वजह से उन्हें उसमें एडमिशन नहीं मिला और उन्हें संस्कृत लेनी पड़ी.  दिल्ली यूनिवर्सिटी और अन्य यूनिवर्सिटियों में नए बैच शुरू होने वाले हैं. वहीं इन भाषाओं की उपयोगिता और व्यावहारिकता को लेकर सवाल उठने लगे हैं. 

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पूजा संस्कृत में डिग्री हासिल करने के बाद सीमित करियर विकल्पों को लेकर अफसोस जताती हैं, लेकिन उन्हें संस्कृत बहुत पसंद है. उन्होंने कहा, 'लोग मुझसे पूछते रहते हैं कि आज के समय में मैं संस्कृत की डिग्री का क्या करूंगी. कोई व्यक्ति शिक्षाविद्,अनुवादक या मीडिया उद्योग में काम कर सकता है.' उन्होंने कहा, 'जब मैंने विषय को पढ़ना शुरू किया तो मुझे अहसास हुआ कि संस्कृत एक खूबसूरत और उदार भाषा है.' पूजा दिल्ली यूनिवर्सिटी से संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएट कर रही हैं.

उन्होंने ग्रेजुएशन भी संस्कृत से किया है. सेंट स्टीफंस कॉलेज में संस्कृत के एसोसिएट प्रोफेसर पंकज मिश्रा के मुताबिक, नौकरी के कम अवसर और कम भुगतान की वजह से भाषा में स्टूडेंट्स की दिलचस्पी कम हो रही है. मिश्रा ने कहा, 'अनुवादकों को एक पन्ने के 200 से 300 रुपये दिए जाते हैं, जो दिहाड़ी मजदूर की मजदूरी से भी कम है.' दिल्ली यूनिवर्सिटी के सिर्फ 29 कॉलेज संस्कृत में पाठ्यक्रम कराते हैं. कलकत्ता यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफेसर दीपांकर मुखोपाध्याय ने कहा कि पर्याप्त मात्रा में कोष उपलब्ध कराने और स्कॉलरशिप के जरिए भाषा में रुचि को फिर पैदा किया जा सकता है.

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पाली और प्राकृत जैसी प्रचीन भाषाओं का भी यही हाल है, दिल्ली यूनिवर्सिटी के बुद्धिस्ट स्टडीज के मुताबिक पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम में 234 सीटों में से हर साल 125 सीटें खाली रह जाती हैं. विभागाध्यक्ष के टी एस साराओ ने कहा कि धार्मिक भाषा संगठन भी कोई विषय पढ़ने को लेकर स्टूडेंट्स के फैसले को प्रभावित करते हैं.

(इनपुट- भाषा)

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