
हिंदी सिनेमा के गलियारों में कृष्ण धवन का नाम एक ऐसे अभिनेता के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने छोटे-छोटे किरदारों में भी अपनी गहरी छाप छोड़ी. अपने करियर की शुरुआत एक बाल कलाकार के रूप में करने वाले धवन ने अभिनय की दुनिया में कदम रखा और हर रोल को अपनी प्रतिभा से जीवंत कर दिया. चाहे वो सकारात्मक किरदार हों या नकारात्मक, उनकी मौजूदगी स्क्रीन पर हमेशा यादगार रही. खास तौर पर राज कपूर की एक फिल्म में उनके खलनायक के किरदार ने तो उन्हें दर्शकों की नजरों में अमर कर दिया. ये बात अलग है कि इसके लिए उन्हें बद्दुआएं भी मिलीं.
हर किरदार में जान फूंकने वाला कलाकार
कृष्ण धवन ने अपने अभिनय से साबित किया कि किरदार का आकार नहीं, उसका प्रभाव मायने रखता है. फिल्म ‘शहीद' में उन्होंने एक स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका निभाकर देशभक्ति का जज्बा जगाया, तो ‘तीसरी कसम' में एक आम ग्रामीण के किरदार में सादगी का रंग भरा. ‘मुझे जीने दो' में शिक्षक के रूप में उन्होंने नैतिकता का पाठ पढ़ाया, वहीं ‘काला पानी' में झूठे गवाह बनकर कहानी को नया मोड़ दिया. ‘साहब बीबी और गुलाम' में मास्टर बाबू के किरदार में उन्होंने भावनात्मक गहराई दिखाई, तो ‘राम तेरी गंगा मैली' में एक चालाक ठग बनकर गंगा को वेश्यालय में बेचने वाले मणिलाल के रोल में दर्शकों का गुस्सा झेला.
देव आनंद के साथ खास रिश्ता
कृष्ण धवन ने अपने करियर की शुरुआत चेतन आनंद की फिल्म ‘अफसर' (1950) से की, जिसमें देव आनंद और सुरैया मुख्य भूमिकाओं में थे. चेतन और देव आनंद के साथ उनका रिश्ता बेहद खास रहा. इस जोड़ी के साथ उन्होंने कई यादगार फिल्मों में काम किया, जिनमें ‘बाजी' (1951), ‘टैक्सी ड्राइवर' (1954), ‘फंटूश' (1956), ‘नौ दो ग्यारह' (1957), ‘काला पानी' (1958), ‘काला बाजार' (1960) और ‘गाइड' (1965) जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल हैं. इन फिल्मों में उनके किरदार भले ही छोटे थे, लेकिन कहानी को मजबूती देने में उनकी भूमिका अहम रही.
‘राम तेरी गंगा मैली' में विलेन बनकर बटोरी सुर्खियां
साल 1985 में राज कपूर की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली' में कृष्ण धवन ने मणिलाल नाम के विलेन की भूमिका निभाई. ये किरदार एक चालाक व्यक्ति का था, जो अंधा बनकर लोगों को ठगता था. फिल्म में मणिलाल, मंदाकिनी के किरदार को बहला-फुसलाकर वाराणसी के एक वेश्यालय में ले जाता है. इस रोल ने दर्शकों को इतना गुस्सा दिलाया कि थिएटर में लोग उन्हें कोसने लगे. आज भी इस फिल्म को देखने वाले दर्शक उनके किरदार को बद्दुआएं देते हैं. ये भी उनके एक्टिंग की ताकत ही थी.
यादगार फिल्मों का हिस्सा
कृष्ण धवन ने ‘जागते रहो' (1956), ‘एक फूल चार कांटे' (1960), ‘साहब बीबी और गुलाम' (1962), ‘फिर वही दिल लाया हूं' (1963), ‘मुझे जीने दो' (1963), ‘जानवर' (1965), ‘उपकार' (1967) और ‘झुक गया आसमान' (1968) जैसी कई फिल्मों में अपने अभिनय का जादू बिखेरा. उनकी मौजूदगी स्क्रीन पर हमेशा कुछ अनहोनी का संकेत देती थी, जिससे दर्शक कहानी में और गहराई से जुड़ जाते थे.
अंतिम यात्रा
कृष्ण धवन ने अपने दमदार अभिनय से हिंदी सिनेमा में एक खास मुकाम हासिल किया. 20 मई 1994 को मुंबई में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी फिल्में और किरदार आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में जिंदा हैं. उनके बिना हिंदी सिनेमा की कई कहानियां अधूरी होतीं.
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