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पीपली लाइव निर्देशक की एक और फिल्म- सुकूनदेह, जो रूह तक उतरती है

साल 2010 में एक फिल्म आई थी- ‘पीपली लाइव’. किसानों की खुदकुशी की त्रासदी और मीडिया के तमाशे के बीच बनी यह फिल्म एक तरह की कल्ट फिल्म बन गई थी- पीपली लाइव एक मुहावरे में बदल गया था.

पीपली लाइव निर्देशक की एक और फिल्म- सुकूनदेह, जो रूह तक उतरती है
छूटते भारत की याद दिलाती एक फिल्म
नई दिल्ली:

साल 2010 में एक फिल्म आई थी- ‘पीपली लाइव'. किसानों की खुदकुशी की त्रासदी और मीडिया के तमाशे के बीच बनी यह फिल्म एक तरह की कल्ट फिल्म बन गई थी- पीपली लाइव एक मुहावरे में बदल गया था. अब पंद्रह साल की खामोशी के बाद उस फिल्म की निर्देशक अनुषा रिजवी एक नई फिल्म लेकर आई हैं- 'द ग्रेट शम्सुद्दीन फैमिली'. यह फिल्म पीपली लाइव से बिल्कुल अलग है, लेकिन लगभग उसी हल्की-फुल्की हंसी और विडंबना बोध से लैस है- वैसी ही चुभन पैदा करने वाली.

यह पूरी फिल्म एक फ्लैट के भीतर घटित होती है. कुछ लोगों को यह फैमिली ड्रामा जैसा कुछ लग सकता है. लेकिन कायदे से यह फ्लैट उस भारत का रूपक है जिसे इन दिनों बदलने की कोशिश चल रही है. यह जुमला इन दिनों खूब सुना जा रहा है कि जो नया भारत है वह घर में घुस कर मारता है. लेकिन इस फिल्म में जो भारत है, वह घर में आकर अपनी उलझनें सुलझाता है, अपने जीवट, अपनी जिंदादिली के सहारे समस्याओं के पार जाता है.

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यह घर बानी का है जो अमेरिका में किसी नौकरी के लिए एक प्रेजेंटेशन तैयार करने की हड़बड़ी में है- इस बात से बेखबर कि जल्द ही उसके यहां आने-जाने वालों का रेला लगने वाला है. पहले उसकी एक बहन आती है, फिर उसका एक अजीब सा बौद्धिक दोस्त और फिर एक भाई जिसे अंतरधार्मिक विवाह करना है औ फिर एक और बहन और अंततः वे मम्मियां और खालाएं जो इस फिल्म की जान हैं. इनके बीच छोटे-मोटे छल भी हैं, झूठ भी हैं, एक-दूसरे से शिकायतें भी, एक-दूसरे का खयाल भी, यह मलाल भी कि बहनें आपस में राज छुपा रही हैं, और यह दिलचस्प बवाल भी कि मां के जाली दस्तखत कर एक बहन दूसरी बहन को बैंक से पैसे निकालने में मदद कर रही है. 

ऊपर से यह दिखता है कि अनुशा रिजवी ने एक मनोरंजक फिल्म बनाई है. लेकिन यह कसी हुई और मनोरंजक लगती फिल्म अचानक हमें कई दुविधाओं और सवालों के बीच छोड़ जाती है. बानी ने किसी को नहीं बताया है कि वह अमेरिका जाने की कोशिश में है. उसे लगता है कि यहां रहते हुए वह लिखना संभव नहीं है जो उसे लिखना है. हालांकि उसकी गोपनीय कोशिश से मायूस और दुखी उसकी बड़ी बहन घेर लेती है- तुम चली जाओगी? बाकी लोग क्या करेंगे? ये 'लोग' कौन हैं? इशारा यही है कि आखिरकार इसी मुल्क में रहना है. इस इशारे को फिल्म बाद में साफ भी करती है- मुल्क भी परिवारों की तरह होते हैं, उथल-पुथल के दौर आते हैं, लेकिन सब एक साथ रहते हैं. 

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फिल्म चुपचाप कई तरह के काम करती है. कुछ स्टीरियोटाइप्स भी तोड़ती है. दरअसल हिंदी सिनेमा और सार्वजनिक स्मृति में मुसलमानों की छवियां बदलती रही हैं. कभी वे हर फिल्म में शायर की तरह चले आते थे. कुछ समय से वे आतंकी बनाए जा रहे हैं. जो आतंकी नहीं हैं वे भी लाचार-ग़रीब घरों के नाराज नौजवान हैं. लेकिन यह फिल्म याद दिलाती है कि असली जीवन ऐसा नहीं है, उसमें मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय घरों वाली राहतों और आफतों से भरे मुस्लिम परिवार भी हैं, वे भी बाकी लोगों की तरह ही खाते-पीते-जीते-झगड़ते और साथ रहते हैं. वे बहुत मजहबी हों, यह भी कतई जरूरी नहीं. फिल्म की तीन बुजुर्ग औरतें एक दिन तय करती हैं कि वे उमरा पर जाएंगी. उनकी बेटियां हैरान हैं कि ये ऐसी धार्मिक कब से हो गईं? वे पूछती हैं- 'तुम तो पांच वक्त की नमाजी तक नहीं.' जवाब दिलचस्प है- हमने कोई गुनाह नहीं किया कि हम खुदा से डरें.

जिस कमरे में यह फिल्म घट रही है, वह बहुत हलचलों से भरा है. एक के बाद एक लोग वहां आ रहे हैं. एक तलाक है, एक कैश में ली जा रही मेहर है, एक शादी है जो रजिस्ट्री ऑफिस में होते-होते रह गई है और उसे कानूनी शक्ल दिए जाने के लिए रात के समय अधिकारी को घर बुलाया जाता है. अधिकारी अंतरधार्मिक विवाह की नजाकत देख दो लाख की घूस मांगता है- एक टिप्पणी आती है- ‘घूस को तो सेक्युलर होना चाहिए.‘

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फिल्म में बहुत सारी तहें हैं. पीढ़ियों का फर्क है. बेटी के किचेन में घुसी मांएं पा रही हैं कि न यहां घी है और न सूजी. उन्हें नई पीढ़ी का यह लापरवाह रवैया भी खलता है. लड़कियों के टूटे रिश्ते हैं और नए ब्वाय फ्रेंड भी, जहां धर्म अहमियत नहीं रखता. फ्लैट में एक अंदेशा बाहर का भी है. यानी एक भारत जो इस फ्लैट में बन रहा है, उसके सामने उस दूसरे भारत के आने का अंदेशा है जो इन दिनों बहुत आक्रामकता के साथ जीने का आदी होता जा रहा है. इस दूसरे भारत में पहचानों का आग्रह बिल्कुल दुराग्रहों में बदल रहा है, प्रेम विवाह लव-जिहाद करार दिए जा रहे है और शक-शुबहे का एक माहौल बनाया जा रहा है.

अनुशा रिजवी की फिल्म इन सब प्रवृत्तियों की कोई सख्त आलोचना नहीं करती. वह बस जैसे एक खिलखिलाता आईना रख देती है- याद दिलाती हुई कि असल में तुम यह हो और यह हुए जा रहे हो. कॉमिक दृश्यों के बीच कसक को, व्यंग्य के बीच विडंबना को पकड़ना उन्हें खूब आता है.

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अनुशा का शिल्प एक और महिला फिल्मकार की याद दिलाता है. वे हैं सई परांजपे. ‘चश्मे बददूर' और ‘कथा' जैसी फिल्मों में यही युक्ति दिखाई पड़ती है- हंसते-हंसाते कोई गंभीर बात कह देने की. अनुशा रिजवी बस एक कदम आगे बढ़ जाती है और हमारे समय के राष्ट्रवाद की तीखी जुबान को याद दिलाती है कि यहां नई अभिव्यक्तियां भी संभव हैं.

फिल्म जहां खत्म होती है, वहां एक खूबसूरत ‘बन्ना गीत' है- याद दिलाता हुआ कि हिंदुस्तान की साझा परंपरा में जो शादी-ब्याह होते हैं, उनमें ऐसे ही गीत गाए जाते हैं, इसी तरह खुशी मनाई जाती है, इसी तरह रिश्ते जोड़े जाते हैं. फिल्म की जिंदादिल औरतें और जीवट वाली लड़कियां इसकी जान हैं. सबका अभिनय शानदार है, पटकथा भी बहुत चुस्त और कई अर्थों की संभावनाओं से लैस है.

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इस फिल्म को एक और ढंग से देखा जा सकता है. आजादी के जश्न के बीच विभाजन का जो जख्म था, उसमें जैसे भारतीय मिजाज के बदल जाने का खतरा था. तभी मुग़ले आजम या ऐसी दूसरी फिल्मों ने वह तहजीब और वे कहानियां बचाए रखीं जो असली हिंदुस्तान की तामीर के काम आती रही थीं. इस नए भारत में अनुशा रिजवी की ‘द ग्रेट शम्सुद्दीन फैमिली' भी उस भारत के जज्बे और खुशबू को बचाए रखती है जिस पर इन दिनों लगातार चोट हो रही है. जियो हॉट स्टार पर यह फिल्म दिखाई जा रही है- एक सुकूनदेह फिल्म, जो रूह तक उतरती है.

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