
मुख्य कलाकार : आदित्य रॉय कपूर, सारा अली खान, अनुपम खेर, नीना गुप्ता, पंकज त्रिपाठी, अली फज़ल, कोंकणा सेन शर्मा और फातिमा सना शेख.
निर्देशक अनुराग बसु हैं. निर्माता भूषण कुमार और अनुराग बसु हैं. संगीत प्रीतम ने दिया है.
यह फिल्म आज के समय में जी रहे अलग-अलग लोगों की जिंदगी की झलक दिखाती है, जो एक मेट्रो शहर में रहते हैं. सबका अपना एक अकेलापन है, रिश्तों की उलझनें हैं और प्यार की तलाश है. कुछ रिश्ते बिखर चुके हैं, कुछ बनने की कोशिश में हैं. इन किरदारों की जिंदगी भले ही अलग दिखती हो, पर कहीं-न-कहीं ये एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं. “मेट्रो… इन दिनों” रिश्तों की सच्चाई, शहरों की तनहाई और इंसानी जज्बातों को बेहद सादगी और भावुकता से बयान करती है. साथ ही इसे किसी इंसान के उम्र के अलग पड़ाव में आए रिश्तों की मुश्किलों के तौर पर भी देखा जा सकता है.
खामियां
• फिल्म लंबी है, खासतौर पर फिल्म का पहला हिस्सा.
• शुरुआत में बहुत सारा समय कलाकारों के इंट्रोडक्शन में चला जाता है.
• संगीत और प्रीतम का बैण्ड फिल्म का मुख्य पहलू है, पर एक वक्त बाद बार-बार उनका स्क्रीन पर आना ज्यादा लगता है.
खूबियां
• सबसे खूबसूरत है निर्देशक अनुराग बसु का निर्देशन और उनका नैरेटिव.
• आप इसे सिनेमैटिक थिएटर भी कह सकते हैं या फिर सिनेमा थिएटर का बेहतरीन इस्तेमाल, जो अनुराग के क्राफ्ट की तारीफ करने पर मजबूर कर देता है.
• स्क्रीनप्ले अच्छा है, हालांकि जैसे मैंने कहा कि कलाकारों का इंट्रोडक्शन लंबा है और फिल्म का फर्स्ट हाफ लंबा लगता है, पर इतने कलाकार और उनकी कहानियों के साथ भी न्याय करना था. पर मसाला फिल्मों के दर्शकों को ये शायद खींचा हुआ लगे.
• फिल्म रिश्तों और उनके जज्बातों पर बनी है, लेकिन स्क्रिप्ट की खास बात ये है कि इमोशन के साथ अनुराग ने मनोरंजन का ऐसा मिश्रण किया है कि आप ये नहीं बोलेंगे कि हम आम जिंदगी में भी यही देखते हैं तो यहां भी यही देखें?
• नीना गुप्ता और अनुपम खेर, पंकज त्रिपाठी और कोंकणा सेन, आदित्य रॉय कपूर और सारा अली खान के ट्रैक में दर्द को जिस तरह गुदगुदाते हुए कहानी में आगे बढ़ाया है, वो काबिले तारीफ है.
• प्रीतम का संगीत अच्छा है और गाने भावनात्मक दृश्यों को और खूबसूरत बनाते हैं.
• सभी कलाकारों का काम अच्छा है. पंकज-कोंकणा, अनुपम-नीना, अली-फ़ातिमा और आदित्य-सारा. सारा इस बार सबसे अलग नजर आती हैं, जो कि कन्फ्यूज्ड करैक्टर है और ये बात उनके लुक में भी नजर आती है. मॉडर्न हेयर स्टाइल और कपड़े, पर साथ में नोज रिंग भी.
• अभिषेक बसु की सिनेमेटोग्राफी ने मेट्रो शहर की भागदौड़ और उसके एसेंस को कहानी के एसेंस से बखूबी मैच किया है.
आखिरी शब्द
इतने कलाकारों को लेकर उलझे रिश्तों और उलझी जिंदगी की कहानी को सिनेमा में तब्दील करना मुश्किल है, जो कि अनुराग बसु ने बखूबी किया है. अनुराग का खुद पर भरोसा उनके निर्देशन में नजर आता है और वो बेहतरीन सिनेमा बनाने वाले निर्देशक हैं. फिल्म की कहानी क्योंकि मेट्रो शहरों के इर्द-गिर्द घूमती है और शहरों के लोग यहां की जिंदगी को बारीकी से देखते हैं, सोचते हैं और उनका इसके बारे में एक फलसफा भी है, वहीं छोटे शहरों और गांवों में जिंदगी चलती रहती है बिना उसे लेंस में देखे. तो जो मसाला फिल्में देखने के आदी हैं, उन्हें ये फिल्म शायद ना आकर्षित करे.
पर ये फिल्म देखनी चाहिए, वो भी सिनेमाघरों में. जिंदगी के अलग रंग हैं तो इन्हें कहानियों में बड़े पर्दे पर क्यों ना देखें? एक ही तरह का सिनेमा, यानी मसाला सिनेमा, अगर अभी नहीं तो कुछ दिन बाद हाज़मा ख़राब कर ही देगा.
3.5 स्टार्स
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