हिंदी सिनेमा की नींव में अगर किसी ने सहजता, स्टाइल और संजीदा अभिनय का जादू डाला, जिसकी चमक आज भी बरकरार है, तो वो थे अशोक कुमार, जिन्हें प्यार से दुनिया ‘दादा मुनि' कहती है. नायक हो या खलनायक, जज या पुलिस इंस्पेक्टर, पिता हो या दोस्त, हर किरदार में वो इतनी सहजता से ढल जाते थे कि दर्शक भूल जाते थे कि ये कोई एक्टर हैं. 10 दिसंबर को हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार अशोक कुमार की पुण्यतिथि है.
अशोक कुमार का असली नाम कुमुदलाल गांगुली था. भागलपुर (बिहार) के बंगाली परिवार में जन्मे अशोक कुमार का कानून की पढ़ाई के बाद वकालत करने का इरादा था, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान उनकी दोस्ती शशधर मुखर्जी से हुई. दोस्ती इतनी गहरी हुई कि अशोक ने अपनी इकलौती बहन सती रानी को शशधर से ब्याह दिया.

शशधर उस समय बॉम्बे टॉकीज में काम कर रहे थे. बस यहीं से कहानी ने करवट ली. साल 1934 में शशधर ने अशोक को मुंबई बुला लिया. उन्होंने पहले तो लेबोरेटरी में छोटा-मोटा काम किया. फिर साल 1936 में आया वो पल, जिसने हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार को पर्दे के सामने लाकर खड़ा कर दिया. बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘जीवन नैया' के लिए हीरो नजम-उल-हसन चुने गए थे, लेकिन आखिरी मौके पर उन्होंने काम करने से मना कर दिया.

एक इंटरव्यू में अशोक कुमार ने खुद इस वाक्य का जिक्र करते हुए बताया था कि उनकी सिनेमा जगत में एंट्री कैसे हुई. लीड एक्टर के ना कहने पर प्रोड्यूसर हिमांशु राय परेशान थे. तभी उनकी नजर दादा मुनि पर पड़ी. हिमांशु राय ने उन्हें बुलाया और सीधा ऑफर देते हुए कहा, “हीरो बनोगे? तुम्हें एक्टिंग करने का और फिल्म में हीरो बनने का मौका मिल रहा है.”

अशोक कुमार घबराते हुए बोले, “मैं एक्टिंग नहीं कर सकता, मां-बाप भी नहीं चाहते.” हिमांशु राय ने मुस्कुराते हुए कहा, “अरे, दो-चार फिल्में करके देख लो. मन न लगे तो छोड़ देना एक्टिंग.” बस, यही वो वाक्य था जिसने भारतीय सिनेमा को उसका पहला सुपरस्टार दे दिया. ‘जीवन नैया' रिलीज हुई और सुपरहिट रही.

इसके बाद ‘अछूत कन्या' साल 1936 में आई और उन्हें रातोंरात स्टार बना दिया. देविका रानी के साथ उनकी जोड़ी ने धूम मचा दी थी. सहज अभिनय और डायलॉग डिलीवरी इतनी नेचुरल थी कि लगता था जैसे वो कोई किरदार नहीं, असल जिंदगी जी रहे हैं. एक इंटरव्यू में उन्होंने अपनी बेहतरीन एक्टिंग के पीछे का राज भी बताया था.

उन्होंने बताया था, “मैं शूटिंग से पहले घर पर ही डायलॉग प्रैक्टिस करता हूं ताकि सेट पर दिक्कत न हो. जब भी प्रैक्टिस करके सेट पर गया हूं, कभी दिक्कत नहीं हुई और आराम से काम करता हूं.”
इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने 'किस्मत', 'अछूत कन्या', 'हावड़ा ब्रिज', 'कंगन', 'चलती का नाम गाड़ी', 'बंधन', 'झूला', 'बंदिनी' जैसी कई यादगार फिल्मों में काम किया. अशोक कुमार ने 100 से ज्यादा फिल्में कीं.

अशोक कुमार के भारतीय सिनेमा में शानदार योगदान के लिए साल 1988 में भारत सरकार ने उन्हें सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान, दादा साहब फाल्के पुरस्कार, से नवाजा था. साल 1962 में उन्हें पद्म श्री और साल 1999 में पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया.
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