भाषा का काम पुल बनाना है, लेकिन कभी-कभी वो दीवार भी बनने लगती है. त्रिभाषा फार्मूले के तहत हिंदी के ज़िक्र भर से तमिल नेता जिस तरह नाराज़ दिखे, वो कुछ इसी तरफ इशारा करता है. वैसे तमिल नेताओं का हिंदी विरोध पुराना है. 1928 में मोतीलाल नेहरू ने सरकारी कामकाज के लिए हिंदी को अपनाने का सुझाव दिया- तब भी विरोध हुआ.1938 में सी राजागोपालाचारी ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य बनाने का सुझाव दिया, तब बी विरोध हुआ. तमिलनाडु के पहले मुख्यमंत्री अन्ना दुरई ने हिंदी के विरोध में अपनी तरह के तर्क विकसित किए थे. उनका कहना था कि अगर संख्या बल से ही तय होना हो तो शेर की जगह चूहे को भारत का राष्ट्रीय पशु घोषित कर देना चाहिए या फिर मोर की जगह कौवे को राष्ट्रीय पक्षी बना देना चाहिए. ऐसा नहीं कि सारे दुराग्रह तमिल या भारतीय भाषाओं की ओर से थे. हिंदी के अपने दुराग्रही कम नहीं थे. संविधान सभा जब देश की भाषा पर विचार कर रही थी तो हिंदीवाले लगभग इसे राष्ट्रभाषा बना देने पर अड़े हुए थे. हिंदी भी उन्हें वह चाहिए थी जिसमें उर्दू न हो, संस्कृत के शब्द ज़्यादा हों. महात्मा गांधी ने जिस हिंदुस्तानी को स्वीकार करने का सुझाव दिया, उसके पक्ष में भी ये लोग नहीं दिखे.