सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने सोमवार को फैसला सुनाते हुए कहा कि कार्यस्थल पर किसी भी रूप में यौन उत्पीड़न को गंभीरता से लिया जाना चाहिए और उत्पीड़न करने वाले को कानून के चंगुल से बचने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्र की पीठ ने कहा है कि हम ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि यह यौन उत्पीड़न के शिकार को अपमानित और निराश करता है, खासकर तब जब उत्पीड़क को सजा नहीं मिलती है या अपेक्षाकृत मामूली दंड के साथ छोड़ दिया जाता है.
जांच में बेहद सावधानी की जरूरत है: सुप्रीम कोर्ट
हालांकि पीठ ने कहा है कि यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस प्रकृति का आरोप लगाना बहुत आसान है और खंडन करना बहुत मुश्किल है. पीठ ने कहा कि जब झूठा आरोप लगाने की दलील दी जाती है तो अदालतों का कर्तव्य है कि वे सबूतों की गहन जांच करें और आरोप स्वीकारयोग्य है या नहीं, इसका फैसला करें. अनाज से भूसी को अलग करने के लिए हर सावधानी बरती जानी चाहिए. शिकायत की वास्तविकता की जांच इस तरह से की जानी चाहिए जिससे कि समाज के उत्थान और लोगों के समान अधिकारों के लिए बनाए गए ऐसे प्रशंसनीय कानून का दुरुपयोग न हो.
हाईकोर्ट का फैसला रद्द
ऐसा न हो कि न्याय प्रदान करने वाली प्रणाली एक मजाक बन जाए. अदालत ने 15 मई, 2019 के गौहाटी हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया जिसमें 2011 में एक अधीनस्थ महिला अधिकारी के यौन उत्पीड़न की शिकायत के कारण सशस्त्र सीमा बल में सेवानिवृत्त डीआईजी दिलीप पॉल की 50 फीसदी पेंशन रोकने के फैसले को रद्द कर दिया था.
हाईकोर्ट का तर्क गलत: सुप्रीम कोर्ट
पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने अपने फैसले में गंभीर त्रुटि की है. शीर्ष अदालत ने कहा है कि हाईकोर्ट का यह तर्क कि केंद्रीय शिकायत समिति का गठन पहली शिकायत के आधार पर किया गया था. इसकी जांच का दायरा इसकी सामग्री तक ही सीमित था. पूरी तरह से गलत है. पीठ ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट के लिए यह कहना काफी बेतुका है कि शिकायतकर्ता को केंद्रीय शिकायत समिति के समक्ष दूसरी शिकायत करने से केवल इसलिए रोक दिया गया क्योंकि वह पहले ही आईजी, फ्रंटियर मुख्यालय, गुवाहाटी को एक शिकायत कर चुकी थी. इसने हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष को भी खारिज कर दिया कि शिकायत समिति गवाहों से सवाल नहीं पूछ सकती थी.
यौन उत्पीड़न एक व्यापक और गहरी जड़ें जमा चुका मुद्दा है जिसने दुनिया भर के समाजों को त्रस्त कर दिया है. भारत में यह गंभीर चिंता का विषय रहा है और यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए कानूनों का बनना इस समस्या के समाधान के प्रति राष्ट्र की प्रतिबद्धता का प्रमाण है. भारत में यौन उत्पीड़न सदियों से मौजूद है लेकिन 20वीं सदी के उत्तरार्ध में ही इसे कानूनी मान्यता मिलनी शुरू हुई.
ये भी पढ़ें-: