छावला में 11 साल पहले 18 साल की युवती को दरिंदों ने सरेआम अगवा कर लिया था. चलती कार में वो वहशी दरिंदे घंटों तक उसके जिस्म को नोचते रहे. मुंह पर कसती हथेलियां और जिस्म पर पड़े बोझ के बीच चीखें घुटती रहीं सांस थमती रही. उसकी आत्मा तक तड़प उठी लेकिन इन दरिंदों की आत्मा नहीं डोली. इन गिद्धों ने तब तक उसे नहीं छोड़ा जब तक जिस्म से जान जुदा नहीं हो गई. इसके बाद भी उन राक्षसों की हवस शांत नहीं हुई तो पेंच कसने वाले रेंच पाने को आग में लाल कर बेजान जिस्म को भी दागते रहे.
इन दरिंदों ने युवती का बेजान जिस्म फेंक कर अपने रास्ते लग लिए. बाकी की जिम्मेदारी पुलिस वालों ने संभाल ली. आरोपी पकड़ में आए और 14 और 16 फरवरी को उनके सैंपल डीएनए टेस्ट के लिए लिए गए. दिल्ली पुलिस की कारस्तानी देखिए. अगले 11 दिनों तक वो सैंपल पुलिस थाने के मालखाने में पड़े रहे. बिना किसी सुरक्षा के. यानी 27 फरवरी को वो सैंपल सीएफएसएल भेजे गए. इसी घोर लापरवाही को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले का आधार बनाया.
कोर्ट ने इंसाफ के दुश्मन बने इन लापरवाह पुलिस वालों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई का फरमान जारी करने के बजाय अपने फैसले में ये कहा कि अदालतें सबूतों पर चलकर फैसले लेती है ना कि भावनाओं में बहकर. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आरोपियों को अपनी बात कहने का पूरा मौका नहीं मिला. बचाव पक्ष की दलील थी गवाहों ने भी आरोपियों की पहचान नहीं की. कुल 49 गवाहों में दस का क्रॉस एक्जामिनेशन नहीं कराया गया.
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इस मामले में आरोपियों की पहचान के लिए कोई परेड नहीं कराई गई. निचली अदालत ने भी प्रक्रिया का पालन नहीं किया. निचली अदालत अपने विवेक से भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत सच्चाई की तह तक पहुंचने के लिए आवश्यक कार्यवाही कर सकता था. ऐसा क्यों नहीं किया गया?