देश में खेती-किसानी के सामने संकट लगातार गहरा रहा है. किसान अपनी उपज के बेहतर दाम की मांग कर रहे हैं, न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मांग रहे हैं. लेकिन उनकी इन मांगों के बीच वो तथ्य छुप जाते हैं जो किसानों के संकट को और गहरा कर रहे हैं. दरअसल देश के कई इलाकों में खेतिहर ज़मीन ही संकट में है. बीते छह सात दशक से रसायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल और ज़मीन के नीचे के पानी के अत्यधिक दोहन से इन खेतों की जान निकल गई है. उनकी उर्वरता ख़त्म हो चुकी है. उर्वरता बढा़ने के लिए हर साल रसायनिक खाद का फिर इस्तेमाल इस कुचक्र को और बड़ा कर रहा है. आए दिन कई रिपोर्ट इसे लेकर सतर्क करती हैं. ऐसी ही एक ताज़ा रिपोर्ट केंद्रीय भूजल बोर्ड की है. 2024 के लिए Annual Ground Water Quality Report में पंजाब और हरियाणा को लेकर विशेष तौर पर सतर्क किया गया है.
इन तत्वों में अगर यूरेनियम की बात करें तो रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब के 23 में से 20 ज़िलों और हरियाणा के 22 में से 16 ज़िलों में यूरेनियम का स्तर सुरक्षित सीमा 30 parts per billion (ppb) से कहीं ज़्यादा है. जबकि 2019 में पंजाब में ऐसे ज़िलों की संख्या 17 और हरियाणा में 18 थी. साफ़ है दोनों ही राज्यों में उन ज़िलों की संख्या बढ़ी है जहां भूजल में यूरेनियम सुरक्षित मात्रा से ज़्यादा है.
- पानी में अगर यूरेनियम का स्तर 30 ppb से ज़्यादा हो तो वो पीने के लिए सुरक्षित नहीं होता. इतना यूरेनियम शरीर के अंदरूनी अंगों को नुक़सान पहुंचा सकता है और पेशाब की नली के कैंसर का ख़तरा रहता है और किडनी में भी toxicity बढ़ती है.
- इस रिपोर्ट के मुताबिक भूजल में यूरेनियम का स्तर इतना बढ़ने की कई वजह हैं. जैसे मानव जनित गतिविधियां, बढ़ता शहरीकरण और खेती में फॉस्फेट युक्त खाद का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल.
अध्ययन बताते हैं कि फॉस्फेट युक्त खाद में यूरेनियम का घनत्व 1 mg/kg से 68.5 mg/kg तक होता है. फॉस्फेट युक्त खाद फॉस्फेट की चट्टानों - जिन्हें phosphorite कहा जाता है उनसे बनती है. वर्ल्ड न्यूक्लियर एसोसिएशन के मुताबिक फॉस्फेट की चट्टानों में यूरेनियम की मात्रा 70 से 800 ppm तक हो सकती है. फॉस्फेट की खाद के इस्तेमाल से ये यूरेनियम खेतों की ज़मीन से रिसकर नीचे के पानी में मिल जाता है. राजस्थान से 42 फीसदी सैंपल्स और पंजाब से 30 फीसदी सैंपल्स में यूरेनियम का concentrations 100 ppb से ज़्यादा पाया गया.
इससे ये साफ़ है कि इन दोनों राज्यों में भूगर्भीय जल में यूरेनियम का स्तर बहुत ज़्यादा है. यूरेनियम की अधिक मात्रा उन जगहों पर ज़्यादा पाई गई जहां ज़मीन के अंदर का पानी काफ़ी कम हो चुका है. उस पानी को काफ़ी हद तक निकाला जा चुका है. इससे ज़मीन के नीचे के बचे हुए पानी में यूरेनियम जैसे तत्वों का कंसंट्रेशन यानी सघनता बढ़ गई है.
लेकिन चिंता सिर्फ़ यूरेनियम की ही नहीं है. कई अन्य ज़हरीले रसायन भी भूजल में बढ़ते जा रहे हैं. इनमें से एक है नाइट्रेट. भूजल में नाइट्रेट का सुरक्षित मात्रा से ज़्यादा होना पर्यावरण और जनता की सेहत के लिए बड़ी चिंता की बात है. नाइट्रेट की मात्रा उन खेतिहर इलाकों में ज़्यादा पाई गई जहां नाइट्रोजन पर आधारित उर्वरकों का ज़्यादा इस्तेमाल हुआ जैसे synthetic ammonia, nitric acid, ammonium nitrate और urea. इसके अलावा जहां पशुओं से जुड़ा कचरा काफ़ी ज़्यादा है वहां भी ज़मीन के नीचे के पानी में नाइट्रेट का स्तर बढ़ा है.
सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक हरियाणा में 21 ज़िलों और पंजाब में 20 ज़िलों के भूजल मेंं नाइट्रेट सुरक्षित स्तर से कहीं ज़्यादा है. हरियाणा में 14.56 % सैंपल्स यानी 128 सैंपल्स में नाइट्रेट का स्तर तय मात्रा 45 mg प्रति लीटर से ज़्यादा पाया गया.
पंजाब में 12.58% सैंपल्स यानी 112 सैंपल्स में नाइट्रेट का स्तर तय मात्रा 45 mg प्रति लीटर से ज़्यादा पाया गया. पंजाब के बठिंडा में तो स्थिति सबसे ज़्यादा ख़राब है. यहां 46% सैंपल्स में नाइट्रेट का स्तर सुरक्षित मात्रा से ज़्यादा था. बठिंडा इस मामले में देश के 15 सबसे प्रभावित ज़िलों में शामिल है.
बठिंडा की बात कर रहे हैं तो आपको बता दें बठिंडा से बीकानेर ट्रेन को पंंजाब की कैंसर ट्रेन कहा जाता है क्योंकि इसमें कैंसर के सैकड़ों मरीज़ पंजाब से इलाज के लिए राजस्थान जाते हैं. ये बताता है कि ये ज़हरीले रसायन किस तरह पंजाब में कैंसर के लिए ज़िम्मेदार हैं. हम बात कर रहे थे नाइट्रेन की. तो भूगर्भीय जल में नाइट्रेट के स्तर का बहुत ज़्यादा होना. नवजात बच्चों में blue baby syndrome की वजह बन सकता है. blue baby syndrome में नवजात बच्चों की त्वचा नीली या पर्पल रंग की दिखती है. अगर पीने के पानी में नाइट्रेट की मात्रा तय स्तर से ज़्यादा होती है तो ये पीने लायक नहीं होता.
भूजल में घुलने वाला एक और ज़हर है आर्सेनिक. पंजाब के 12 ज़िलों और हरियाणा के 5 ज़िलों में आर्सेनिक का स्तर सुरक्षित स्तर 10 ppb से ज़्यादा है. पानी में आर्सेनिक के होने से त्वचा से जुड़ी बीमारियां और कैंसर तक हो सकता है. लंबे समय में दिल से जुड़ी बीमारियां और डायबिटीज़ हो सकता है. ज़मीन के नीचे पानी में आर्सेनिक 100 मीटर की गहराई तक पाया गया है. इससे ज़्यादा गहराई में आर्सेनिक की मात्रा कम या नहीं पाई गई.
इसके अलावा भूजल में क्लोराइड की अधिक मात्रा भी चिंता की वजह है. कुदरती या मानवीय कारणों से क्लोराइड पानी में घुलता है. घर से निकलने वाले कचरे और उर्वरकों के इस्तेमाल से भूजल में क्लोराइड की मात्रा बढ़ती है. भूजल में अगर क्लोराइड की मात्रा 1,000 mg/L से ज़्यादा हो तो उसे पीने के लिए सुरक्षित नहीं माना जाता. हरियाणा में 9.67% सैंपल्स और पंजाब में 2% सैंपल्स में क्लोराइड इस सुरक्षित सीमा से ज़्यादा पाया गया.
साफ़ है कि देश में हरित क्रांति में बड़ी भूमिका निभाने वाले दोनों ही राज्य पंजाब और हरियाणा की ज़मीन के नीचे का पानी अधिकतर जगह ज़हरीला हो चुका है. पीने के लायक नहीं है. देश की खाद्य सुरक्षा में भूजल की बड़ी अहमियत है. कई इलाकों में सिंचाई भूजल के ही भरोसे होती है. इसका ज़हरीले होने की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. इस सिलसिले में पंजाब-हरियाणा हाइकोर्ट से लेकर नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल तक कई बार चेतावनी दे चुकी हैं. ऊपर से खेती, बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण इस पानी का भयानक दोहन हो चुका है.
आईआईटी दिल्ली और अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी - नासा की हाइड्रोलॉजिकल साइंसेस लेबोरेटरी की एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक 2003 से 2020 के बीच के 17 सालों में पंजाब और हरियाणा में भूजल में क़रीब 64.6 अरब घन मीटर की कमी आई है. ये पानी इतना है कि इससे 2.5 करोड़ ओलंपिंक के साइज़ के स्विमिंग पूल भरे जा सकते हैं. Hydrogeology Journal में Detection and Social Economic Attribution of Groundwater Depletion in India नाम से प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक गुड़गांव और फरीदाबाद में भूजल में बहुत ही ज़्यादा कमी देखी गई है. इन दोनों ही इलाकों में भयानक तेज़ी से शहरीकरण हुआ है. दरअसल जितना पानी रिचार्ज होता है, उससे कई गुना पानी ज़मीन से निकाल लिया जाता है. और जो पानी रिचार्ज होता भी है, वो अपने साथ कई ज़हरीले रसायनों को ज़मीन के अंदर के पानी में मिला देता है. इसका असर ये होगा कि देर सबेर कृषि की उत्पादकता घटेगी और मिट्टी की गुणवत्ता बेकार होगी.
ऐसा नहीं है कि भूजल में ये चिंताजनक गिरावट सिर्फ़ पंजाब, हरियाणा तक सीमित हो, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और केरल के भी कई इलाके ऐसे हैं जिन्हें इस लिहाज़ से हॉटस्पॉट माना गया है और जहां तुरंत इससे निपटने के उपाय किए जाने की ज़रूरत है. लेकिन पंजाब, हरियाणा में भूजल सिर्फ़ बहुत तेज़ी से कम नहीं हो रहा बल्कि भयानक ज़हरीला भी हो रहा है. ऊपर से लगातार रसायनों के इस्तेमाल से मिट्टी की गुणवत्ता घट गई है, उसमें ज़हरीले रसायन बढ़ गए हैं. इससे पंजाब में ख़ासतौर पर खेती का संकट खड़ा हो गया है जो एक आर्थिक, सामाजिक संकट भी बन रहा है.
पंजाब की खेतीयोग्य ज़मीन का 93% हिस्सा अनाज उत्पादन में इस्तेमाल होता है. लेकिन ये ज़मीन रसायनिक खादों के अत्यधिक इस्तेमाल और मोनोकल्चर यानी एक ही पौध की लगातार उपज से ख़राब होती जा रही है. मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है.रसायनिक खाद, कीटनाशकों का इस्तेमाल इस कदर हुआ है कि लोगों की सेहत को गंभीर नुक़सान पहुंचा है. कई ज़िलों में कैंसर के मामले काफ़ी बढ़ गए हैं. पंजाब के मालवा इलाके में कैंसर की दर सबसे भयानक है. यहां प्रति एक लाख लोगों में से 100 से 110 लोग कैंसर से पीड़ित हैं जो राष्ट्रीय औसत से कहीं ज़्यादा है. पंजाब की खेतीयोग्य जम़ीन के 80% इलाके में भूजल का अत्यधिक दोहन हो चुका है.
.कई जानकार मानते हैं कि पंजाब अपनी खेती में असंतुलन से पैदा होने वाली इन तमाम समस्याओं से निपट सकता है अगर वो धान और गेहूं की पैदावार की ज़िद छोड़ दे. इन दोनों ही फसलों को ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती है.
विज़ुअल्स इन - धान के खेत हों. धान की फसल को तो बहुत ही ज़्यादा पानी चाहिए. धान से चावल निकलता है. एक किलोग्राम चावल के लिए क़रीब 2500 लीटर पानी की ज़रूरत होती है. भारत में इससे भी ज़्यादा पानी धान में इस्तेमाल किया जा रहा है. अब आप समझ जाइए कि जो चावल आप खा रहे हैं, उसके लिए कितना पानी लगता है. ये पानी हमारे जल स्रोतों पर दबाव बढ़ा रहा है. भारत में सबसे ज़्यादा पानी धान की सिंचाई में ही इस्तेमाल होता है.
जानकारों के मुताबिक धान और गेहूं के अलावा किसानों को crop diversification यानी अलग अलग तरह के अनाजों के उत्पादन पर ज़ोर देना चाहिए जिन्हें पानी की कम ज़रूरत हो और जिनसे ज़्यादा मुनाफ़ा मिले. हरियाणा ने इस दिशा में मेरा पानी, मेरी विरासत नाम से एक मुहिम शुरू की है जिसमें किसानों को ज़्यादा पानी की ज़रूरत वाली फ़सलों जैसे धान के बजाय कम पानी वाली फ़सलों जैसे मक्का और सोयाबीन उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है. इससे हरियाणा में धान की उपज एक लाख हेक्टेयर इलाके में घटी है. इसके अलावा जानकार रसायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल को कम करते हुए जैविक यानी ऑर्गैनिक फार्मिंग पर भी ज़ोर देते हैं. आंध्रप्रदेश में ऐसे ही एक कार्यक्रम का मक़सद 2027 तक 60 लाख किसानों को ऐसी फसलों की ओर मोड़ना है जो रसायन मुक्त हों और जिन पर पर्यावरण में बदलाव का ख़ास असर न पड़े.
भारत दुनिया के उन देशों में जहां पानी की कमी का दबाव बढ़ गया है. गर्मियां शुरू होने से काफ़ी पहले ही कई इलाकों से सूखे की मार ख़बर शुरू हो जाती है. इस सूखे की कई वजह हैं. मानवीय गतिविधियों से बढ़ रहा क्लाइमेट चेंज सबसे बड़ी वजह. ऐसे में ज़रूरी है कि सूखे का असर अनाज के मामले में आत्मनिर्भरता पर न पड़े, इसके लिए पहले ही सचेत हो जाना चाहिए. इसके लिए एक काम तो ये किया जा सकता है कि उन फसलों को कम किया जाए जो पानी बहुत ज़्यादा मांगती हैं. भारत में ऐसी पांच प्रमुख फ़सलें हैं धान, गन्ना, कपास, सोयाबीन और गेहूं. जो भारत के सिंचित इलाके के 70% से ज़्यादा हिस्से में उगाई जाती हैं.
.धान की बात करें तो दुनिया में सबसे ज्यादा खपत इसकी ही होती है और भारत इसके सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है. भारत में सबसे ज़्यादा उपज धान की ही होती है. लेकिन धान उगाने के लिए काफ़ी पानी चाहिए. पारंपरिक खेती के तहत एक किलो धान के लिए 3000 से 5000 लीटर पानी की ज़रूरत होती है. धान के लिए खेतों को पानी से भरना पड़ता है. लेकिन इतना पानी कब तक उपलब्ध होगा कहा नहीं जा सकता. इसलिए ज़रूरी है कि धान को कम कर उसकी जगह कुछ और विकल्पों पर भी ध्यान दिया जाए.
कॉटन यानी कपास को सफ़ेद सोना कहा जाता है. ख़रीफ़ की इस फसल के मामले में भारत दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक देशों में से एक है. लेकिन ये फसल भी बहुत पानी खाती है. एक किलो कपास उगाने के लिए 22,500 लीटर पानी की ज़रूरत होती है. ख़ास बात ये है कि भारत में अधिकतर कपास उन राज्यों में उगाई जाती है जो अपेक्षाकृत सूखे हैं जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश वगैरह. .
गन्ना भी एक ऐसी फसल है जिसे उगने के लिए बहुत ज़्यादा पानी चाहिए. भारत इस नक़दी फसल यानी कैश क्रॉप का दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. पानी की कमी से ये फसल ख़राब हो सकती है. एक किलो गन्ना उगाने के लिए 1500 से 3000 लीटर पानी की ज़रूरत होती है.
- .सोयाबीन सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली फसलों में से एक है. भारत की मिट्टी के लिए ये काफ़ी मुफ़ीद फसल है. सोयाबीन उगाने के लिए भी काफ़ी पानी की ज़रूरत होती है. एक किलो सोयाबीन के लिए 900 लीटर पानी की ज़रूरत पड़ती है.
- हरित क्रांति के बाद भारत में गेहूं के उत्पादन में ज़बर्दस्त तेज़ी आई. भारत में धान के बाद सबसे ज़्यादा गेहूं की ही खपत है. लेकिन गेहूं के उत्पादन में पानी की खपत काफ़ी ज़्यादा है लगभग उतनी ही जितनी सोयाबीन में. एक किलो गेहूं उगाने के लिए क़रीब 900 लीटर पानी की ज़रूरत पड़ती है.
लेकिन ये सभी वो फसलें हैं जिनकी भारत में सबसे ज़्यादा खपत होती है. चिंता की बात ये है ये फसलें पानी तो ज़्यादा खाती ही हैं क्लाइमेट चेंज के तहत होने वाले बदलावों को लेकर भी संवेदनशील होती हैं. ऐसे में या तो इन फसलों की कम पानी वाली प्रजातियों को बढ़ावा दिया जाए या फिर फसलों के विविधीकरण यानी Crop diversification की ओर तेज़ी से बढ़ा जाए. इस दिशा में श्रीअन्न के नाम से प्रसिद्ध मोटे अनाजों की ओर वापस लौटना होगा. ज्वार, बाजरा, रागी, सामा, कोदों, कुटकी, कुट्टू जैसी फसलों की ओर आगे बढ़ना होगा जो पानी भी कम लेती हैं, सेहत के लिए भी बेहतर होती हैं और जिन पर क्लाइमेट चेेंज का असर भी कम पड़ता है.