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This Article is From Sep 05, 2019

Teachers' Day 2019: जब एकलव्य ने गुरू दक्षिणा में काटकर दिया था अपना अंगूठा

Teachers Day 2019: प्राचीन काल में भी शिक्षकों का विशेष स्थान था. शिक्षक उस समय कितने महत्वपूर्ण थे इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एकलव्य ने गुरू दक्षिणा में गुरू द्रोण को अपना अंगूठा काटकर दिया था.

Teachers' Day 2019: जब एकलव्य ने गुरू दक्षिणा में काटकर दिया था अपना अंगूठा
शिक्षक दिवस: एकलव्य ने गुरू दक्षिणा में अपना अंगूठा काटकर दिया था.
नई दिल्ली:

Teachers' Day 2019: आज शिक्षक दिवस है. शिक्षक दिवस (Teachers' Day) पूरे देश में बड़े ही धूमधाम से मनाया जा रहा है. डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन (Dr Sarvepalli Radhakrishnan) की जयंती के मौके पर हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है. शिक्षकों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है. वे हमें जीवन में आने वाली हर एक बाधा का सामना करने के लिए तैयार करते हैं. प्राचीन काल में भी शिक्षकों (Teachers) का विशेष स्थान था. शिक्षक उस समय कितने महत्वपूर्ण थे इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एकलव्य (Eklavya) ने गुरू दक्षिणा में गुरू द्रोण को अपना अंगूठा काटकर दिया था. प्राचीन काल में विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए अपने गुरु के पास आश्रम में रहना पड़ता था.  उस समय ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अलावा किसी को भी शिक्षा नहीं दी जाती थी. जब श्रृंगवेरपुर में निषादराज हिरण्यधनु की रानी सुलेखा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम "अभिद्युम्न" रखा गया. बचपन में वह "अभय" के नाम से जाना जाता था. बचपन में जब "अभय" शिक्षा के लिए अपने कुल के गुरुकुल में गया तो अस्त्र शस्त्र विद्या में बालक की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक को "एकलव्य" (Eklavya) नाम से संबोधित किया.

एकलव्य ने धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उस समय धनुर्विद्या में दक्ष गुरू द्रोण के पास जाने का फैसला किया. एकलव्य के पिता जानते थे कि द्रोणाचार्य केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते हैं और उन्होंने एकलव्य को भी इस बारे में बताया परंतु धनुर्विद्या सीखने की धुन और द्रोणाचार्य को अपनी कलाओं से प्रभावित करने की सोच लेकर उनके पास गया. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ एकलव्य को अपमानित कर आश्रम से निकाल दिया गया. जिसके बाद एकलव्य ने वहीं जंगल में रह कर धनुर्विद्या प्राप्त करने के ठान ली. उसने जंगल में द्रोणाचार्य की एक मूर्ती बनाई और उन्हीं का ध्यान कर धनुर्विद्या में महारत हासिल कर ली. एक दिन आचार्य द्रोण अपने शिष्यों और एक कुत्ते के साथ आखेट के लिए उसी वन में पहुंच गए जहां एकलव्य रहते थे. उनका कुत्ता राह भटक कर एकलव्य के आश्रम पहुंच गया और भौंकने लगा. एकलव्य उस समय धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे. कुत्ते के भौंकने की आवाज से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी. अतः उसने ऐसे बाण चलाए की कुत्ते को जरा सी खरोंच भी नहीं आई और कुत्ते का मुंह भी बंद हो गया.

कुत्ता असहाय होकर गुरु द्रोण के पास जा पहुंचा. गुरू द्रोण ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य में पड़ गए. वे उस महान धुनर्धर को खोजते-खोजते एकलव्य के आश्रम पहुंचे और देखा की एकलव्य ऐसे बाण चला रहा है जो कोई चोटी का योद्धा भी नहीं चला सकता. ये बात द्रोणचार्य के लिए चिंता का विषय बन गई. उन्होंने एकलव्य से उसके गुरु के बारे में जानने की जिज्ञासा दिखाई तो एकलव्य ने उन्हें वो प्रतिमा दिखा दी. अपनी प्रतिमा को देख आचार्य द्रोण ने कहा कि अगर तुम मुझे ही अपना गुरु मानते हो तो मुझे गुरु दक्षिणा दो. एकलव्य के पास ऐसी कोई भी कीमती वस्तु नहीं दी जो वह गुरू को दे सके. जिसके बाद गुरु दक्षिणा में गुरु द्रोण ने अंगूठे की मांग की जिससे कहीं एकलव्य सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर ना बन जाए अगर ऐसा हुआ तो अर्जुन को महान धनुर्धर बनाने का वचन झूठा हो जाएगा. एकलव्य ने बिना हिचकिचाए अपना अंगूठा गुरु को अर्पित कर दिया. 

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