भारतीय सिनेमा के असली 'किंग खान' और 'ट्रेजेडी किंग' दिलीप कुमार साहब अपनी उम्र का शतक पूरा किए बिना ही चले गए. दिलीप कुमार का जाना अभिनय के एक युग का अंत कहा जा सकता है. एक ऐसा अभिनेता, जिसकी अभिनय शैली न केवल नवोदित अभिनेताओं को प्रभावित करती थी, बल्कि सुपरस्टार कहे जाने वाले अभिनेताओं पर भी उनके आभामंडल का प्रभाव साफ देखा जा सकता है. यही वजह है कि अभिताभ बच्चन और शाहरुख खान जैसे महानायक भी कहीं न कहीं दिलीप कुमारी की शैली को अपनाने की कोशिश किया करते थे. आइए एक नजर डालते हैं दिलीप कुमार की 10 बेहतरीन फिल्मों पर, जिसने भारतीय सिनेमा में एक अलग छाप छोड़ी है. इन फिल्मों में अपने जबरदस्त अभिनय की बदौलत वे सुपरस्टार बन गए थे.
शक्ति (1982)
इस फिल्म में बॉलीवुड के दो लेजेंड्री एक्टर्स आमने-सामने थे. उसूलों और ईमानदारी के लिए समर्पित पुलिस अधिकारी पिता और गैंगस्टर बेटे के बीच कश्मकश और टकराव को इस फिल्म में दिलीप साहब और अमिताभ बच्चन ने जीवंत कर दिया था. रमेश सिप्पी की ये फिल्म सलीम-जावेद के बेहतरीन डायलॉग्स, कसी हुआ कहानी और मंझे हुए कलाकारों की बेहतरीन एक्टिंग के लिए पहचानी जाती है. दिलीप कुमार को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था.
कर्मा (1986)
शोमैन सुभाष घई की इस फिल्म को कौन भूल सकता है. इस फिल्म में दिलीप साहब के साथ अभिनय की दुनिया के एक और दिग्गज, अनुपम खेर ‘डॉक्टर डैंग' की भूमिका में थे. जेल में बंद तीन खूंखार कैदियों की मदद से डॉ डैंग के आतंकी साम्राज्य को नेस्तनाबूत करने की ये कहानी भरपूर एक्शन और दमदार संवादों से भरी है. दिलीप साहब ने जेलर राणा विश्व प्रताप सिंह की भूमिका को बेहद दमदार ढंग से निभाया था.
मुगल-ए-आजम (1960)
के. आसिफ की ये फिल्म हर मायने एक क्लासिक थी. इस फिल्म के सेट्स, कॉस्ट्यूम्स, डॉयलॉग्स, गीत-संगीत सभी कुछ लाजवाब था. लेकिन सबसे अहम बात थी कि कहानी के अनुरूप कलाकारों का चयन और अभिनय. कहने की जरूरत नहीं की भारतीय सिनेमा के पितृ पुरुष पृथ्वीराज कपूर ने शहंशाह अकबर और दिलीप कुमार ने शहजादा सलीम की भूमिकाओं में ऐसी जान फूंकी कि दर्शकों को लगा इतिहास के पन्नों से वाकई में बादशाह अकबर और उनके बेटे जहांगीर पर्दे पर आ गए हो. ये फिल्म दिलीप साहब की अदाकारी का एक बेहतरीन नमूना है.
देवदास (1955)
दिलीप कुमार को ट्रेजडी किंग क्यों कहा जाता है, ये जानना हो तो देवदास फिल्म जरूर देखनी चाहिए. इस फिल्म को देखकर ऐसा लगता है कि मानो बंगाली साहित्य के शीर्ष कथाकार शरतचंद्र ने ये कहानी दिलीप साहब को ध्यान में रखकर ही लिखी थी. देवदास फिल्म अब तक तीन बार बनाई जा चुकी है. पहली बार 1936 में अभिनेता के. एल. सहगल ने ये किरदार निभाया था और 2002 में शाहरुख खान देवदास बने थे. अब इन तीनों में से कौन सा देवदास बेस्ट रहा, ये जानने के लिए आपको तीनों फिल्में देखना जरूरी है.
राम और श्याम (1967)
अगर आपको लगता है कि कॉमेडी करना ‘ट्रेजेडी किंग' के बूते के बाहर की बात थी तो इस गलतफहमी को दूर कर लीजिए. ‘राम और श्याम' में दिलीप कुमार ने न केवल दर्शकों को हंसाया था, बल्कि इसमें कुछ बेहतरीन फाइट सीन भी दिए थे. डबल रोल वाली इस फिल्म में अपने अभिनय से दिलीप साहब ने महफिल लूट ली थी और साल 1968 का बेस्ट एक्टर का पुरस्कार एक बार फिर उनकी झोली में चला गया था.
मशाल (1984)
इस फिल्म में दिलीप कुमार एक ईमानदार पत्रकार बने थे, जो गुंडागर्दी करने वाले भटके हुए नौजवानों के लिए प्रेरणा बन जाता है और उन्हें सही राह पर ले आता है. लेकिन समय का पहिया ऐसा घूमता है कि बदलती परिस्थितियों में यही ईमानदार पत्रकार जुर्म की दुनिया का बादशाह बन जाता है. फिल्म में उस समय के नवोदित कलाकार अनिल कपूर दिलीप कुमार के शागिर्द बने थे. पहले ईमानदार पत्रकार और फिर माफिया डॉन, दोनों ही भूमिकाओं में दिलीप साहब ने अपनी अलग छाप छोड़ी थी.
नया दौर (1957)
ये फिल्म उस वक्त की सबसे बड़ी समस्या इंसान और मशीन के बीच जंग पर आधारित थी. आजादी के 10 साल बाद मशीनीकरण तेजी से चल रहा था. एक मशीन पचासों आदमियों का काम मिनटों में कर रही थी. ऐसे में इंसान तेजी से बेरोजगार हो रहे थे. इसी जटिल समस्या को फिल्म नया दौर में बहुत ही खूबी से दिखाया गया था. इस फिल्म के गाने और वैंजयंती माला के साथ दिलीप साहब की केमेस्ट्री दर्शकों को खूब पसंद आई थी.
गंगा-जमुना (1961)
गंगा-जमुना फिल्म के निर्माता भी दिलीप कुमार ही थे. ये फिल्म दो भाईयों के बीच टकराव की कहानी है. परिस्थितियों की वजह से एक भाई डाकू बन जाता है, जबकि दूसरा पुलिस अधिकारी. दिलीप साहब ने इस फिल्म में डाकू का रोल निभाया था, जो उनकी यादगार परफॉर्मेंसेस में से एक है.
लीडर (1964)
इस फिल्म में एक बार फिर दिलीप कुमार-वैजयंती माला की जोड़ी देखने को मिली थी. ये फिल्म तत्कालीन राजनैतिक हालात में एक जोशीले नौजवान की कहानी है, जिस पर एक राजनेता की हत्या का आरोप लग जाता है. फिल्म अपनी कहानी, गीतों व दिलीप कुमार वैजयंती माला के दमदार परफॉर्मेंस के कारण काफी पसंद की गई थी.
सौदागर (1991)
इस फिल्म में सुभाष घई ने बॉलीवुड के दो दिग्गज कलाकारों को उम्र की दूसरी पारी में आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया था. जब राजकुमार और दिलीप कुमार एक साथ स्क्रीन पर हों तो फिल्म को हिट होने से भला कौन रोक सकता है. इस फिल्म में दोनों दिग्गजों के डायलॉग और डायलॉग डिलीवरी को लोगों ने खूब पसंद किया था.
वैसे तो दिलीप कुमार जैसे महान अभिनेता की प्रतिभा को 10 फिल्मों की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता. उनकी कई बेहतरीन फिल्में और भी है, जिन्हें इस सूची में स्थान नहीं मिल पाया है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि भारतीय सिनेमा को दिलीप कुमार की कमी हमेशा खलेगी.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं