पिछले दो साल से बैंक से संबंधित ख़बरों को दिलचस्पी से पढ़ता रहा हूं. चेयरमैनों के इंटरव्यू से बातें तो बड़ी बड़ी लगती थीं लेकिन बैंक के भीतर की वे समस्याएं कभी नहीं दिखीं जो बैंकर के जीवन में बहुत बड़ी हो गई हैं. बैंक सीरीज़ के दौरान सैकड़ों बैंकरों से बात करते हुए हमारी आज की ज़िंदगी को वो भयावह तस्वीर दिखी जिसे हम जानते हैं, सहते हैं मगर भूल गए हैं कि ये दर्द है. इसे एक हद के बाद सहा नहीं जाना चाहिए. हमारे रिश्ते इतने टूट चुके हैं कि जैसे ही कोई अपनी व्यथा कहता है हम उसे हिकारत की नज़र से देखने लगते हैं. हमें पता ही नहीं चलता कि हम जिस नज़र से किसी को देख रहे हैं, कोई हमें भी उस नज़र से देख रहा होता है. बैंक सीरीज़ के दौरान बैंकरों ने अपने चेहरे और नाम को पीछे रखते हुए अपनी कहानी कही. घर से दूर, रात रात भर बैंकों में काम करना, टारगेट का तनाव, झूठ और झांसे के आधार पर बीमा पॉलिसी बेचना ताकि कोई उन आंकड़ों को अपनी कामयाबी बता सके. अगर हमारी व्यवस्थाएं वाकई संवेदनशील होतीं तो बैंक सिस्टम के भीतर की इस सड़न पर कोई कदम उठाता.