मुंबई:
रेटिंगः 3 स्टार
डायरेक्टरः राजा कृष्ण मेनन
कलाकारः सैफ अली खान, पद्मप्रिया जानकीरमन, शोभिता धूलिपाला, चंदन राय सान्याल, मिलिंद सोमन और स्वर काम्बले
'शेफ़' कहानी है रोशन कालरा(सैफ़) की जो विदेश के एक रेस्तरां में शेफ़ का काम करते हैं. उनकी पूर्व पत्नी राधा(पद्मप्रिया) और उनका बेटा अरमान(स्वर कांबले) कोच्चि में रहते हैं जहां राधा एक डांस स्कूल चलाती हैं. रोशन को किसी वजह से उनके रेस्तरां से निकाल दिया जाता है और तब वो तय करते हैं कि वापस कुछ वक्त अपने बच्चे के साथ गुज़ारेंगे क्योंकि उनके बेटे को भी पिता से वक्त ना मिलने की शिकायत रहती है. इसी दौरान रोशन ये भी जानना चाहता है कि अब उसके पकाए खाने में क्या कमी है या पहले जैसा स्वाद क्यों नहीं है और जानना चाहता है कि क्या अब उनके काम में पैशन की कमी है?
इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए वो कोच्चि आते हैं पर सवाल ये है कि क्या उनके खाने को वापस वो स्वाद मिलता है?, क्या वो अपने बेटे के नज़दीक आ पाते हैं? और क्या पटरी से उतरी अपने ज़िंदगी को वापस पटरी पर ला पाएंगे? ये जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी पड़ेगी.
ख़ामियां
इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ामी मुझे लगी इसकी लिखाई जो इंटरवल से पहले और बेहतर हो सकती थी क्योंकि फ़िल्म के इस हिस्से में जिन चीज़ों को पाकर रोशन कालरा को खुशी मिलती है उन चीज़ों के ना होने का असर उनपर नहीं दिखता। फ़र्स्ट हाफ में इमोशन की भी कमी नज़र आती है और दर्शक फ़िल्म के इस हिस्से में किसी इमोशन से शायद जुड़ ना पाएं. शेफ़ को एक ऐसा खाना कहना ग़लत नहीं होगा जिसमें स्वाद की कमी है पर ये एक पौष्टिक खाना हो सकता है.
जिसका लुत्फ़ वो लोग ले सकते हैं जिन्हें 'फ़ुड फ़ॉर थॉट' चाहिए.
चटपटा खाने वालों के लिए ये फ़िल्म निराशाजनक साबित हो सकती है. इस फ़िल्म की रफ़्तार धीमी है और इस बात पर सवालिया निशान है कि एक शेफ़ के किरदार के साथ क्या लोग जुड़ पाएंगे. यहां एक ख़ामी मुझे डायरेक्टर की लगी कि जिस बड़े नामी शेफ़ की वो बात कर रहे हैं वो किरदार गढ़ने में कमी रह गई क्योंकि यहां सैफ़ खाने के साथ एक्सपेरिमेंट करते नहीं दिखते साथ ही उनमें एक प्रोफ़ेशनल शेफ़ के हाव-भाव की भी कमी नज़र आई.
ख़ूबियां
बतौर आलोचक मुझे इसके पेस से कोई गुरेज़ नहीं है और ये एक ठहराव वाली फ़िल्म है. मेरे लिए इसकी सबसे बड़ी ख़ूबी है एक पिता और बेटे का रिश्ता जो फ़िल्म के साथ पनपता है. इसके अलावा इसकी दूसरी सबसे बड़ी ख़ूबी है इसकी कास्टिंग. सैफ़, शेफ़ के किरदार में बिल्कुल फ़िट हैं और उन्होंने अच्छा अभिनय किया है साथ ही बेहतर टाइमिंग की वजह से कई जगह वो आपको हंसाते भी हैं. यहां पद्मप्रिया की जितनी तारीफ़ की जाए उतनी कम है. बड़ी ही सहज अभिनेत्री हैं, उनकी डायलॉग डिलिवरी हो या एक्सप्रेशन, बिना ज़्यादा कोशिश किए पर्दे पर बहुत कुछ कह जाती हैं. वहीं चंदन रॉय सानयाल, मिलिंद सोमन और स्वर कांबले का भी फ़िल्म में अच्छा काम है. फ़िल्म का संगीत रूह को सुकून पहुंचाने वाला है. भारतीय संस्कृति जिस तरह खाने में प्यार के ज़ायके की बात करती है ठीक उसी तरह शेफ़ का भी यही संदेश है. फ़िल्म के कई मोमेंट्स के साथ आप जुड़ पाएंगे और कुछ सीन आपका मनोरंजन भी करेंगे. मेरी रेटिंग इस फ़िल्म के लिए है 3 स्टार्स.
VIDEO: आशा भोसले ने मैडम तुसाद म्यूजियम में अपनी मोम की प्रतिमा का अनावरण किया
...और भी हैं बॉलीवुड से जुड़ी ढेरों ख़बरें...
डायरेक्टरः राजा कृष्ण मेनन
कलाकारः सैफ अली खान, पद्मप्रिया जानकीरमन, शोभिता धूलिपाला, चंदन राय सान्याल, मिलिंद सोमन और स्वर काम्बले
'शेफ़' कहानी है रोशन कालरा(सैफ़) की जो विदेश के एक रेस्तरां में शेफ़ का काम करते हैं. उनकी पूर्व पत्नी राधा(पद्मप्रिया) और उनका बेटा अरमान(स्वर कांबले) कोच्चि में रहते हैं जहां राधा एक डांस स्कूल चलाती हैं. रोशन को किसी वजह से उनके रेस्तरां से निकाल दिया जाता है और तब वो तय करते हैं कि वापस कुछ वक्त अपने बच्चे के साथ गुज़ारेंगे क्योंकि उनके बेटे को भी पिता से वक्त ना मिलने की शिकायत रहती है. इसी दौरान रोशन ये भी जानना चाहता है कि अब उसके पकाए खाने में क्या कमी है या पहले जैसा स्वाद क्यों नहीं है और जानना चाहता है कि क्या अब उनके काम में पैशन की कमी है?
इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए वो कोच्चि आते हैं पर सवाल ये है कि क्या उनके खाने को वापस वो स्वाद मिलता है?, क्या वो अपने बेटे के नज़दीक आ पाते हैं? और क्या पटरी से उतरी अपने ज़िंदगी को वापस पटरी पर ला पाएंगे? ये जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी पड़ेगी.
ख़ामियां
इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ामी मुझे लगी इसकी लिखाई जो इंटरवल से पहले और बेहतर हो सकती थी क्योंकि फ़िल्म के इस हिस्से में जिन चीज़ों को पाकर रोशन कालरा को खुशी मिलती है उन चीज़ों के ना होने का असर उनपर नहीं दिखता। फ़र्स्ट हाफ में इमोशन की भी कमी नज़र आती है और दर्शक फ़िल्म के इस हिस्से में किसी इमोशन से शायद जुड़ ना पाएं. शेफ़ को एक ऐसा खाना कहना ग़लत नहीं होगा जिसमें स्वाद की कमी है पर ये एक पौष्टिक खाना हो सकता है.
जिसका लुत्फ़ वो लोग ले सकते हैं जिन्हें 'फ़ुड फ़ॉर थॉट' चाहिए.
चटपटा खाने वालों के लिए ये फ़िल्म निराशाजनक साबित हो सकती है. इस फ़िल्म की रफ़्तार धीमी है और इस बात पर सवालिया निशान है कि एक शेफ़ के किरदार के साथ क्या लोग जुड़ पाएंगे. यहां एक ख़ामी मुझे डायरेक्टर की लगी कि जिस बड़े नामी शेफ़ की वो बात कर रहे हैं वो किरदार गढ़ने में कमी रह गई क्योंकि यहां सैफ़ खाने के साथ एक्सपेरिमेंट करते नहीं दिखते साथ ही उनमें एक प्रोफ़ेशनल शेफ़ के हाव-भाव की भी कमी नज़र आई.
ख़ूबियां
बतौर आलोचक मुझे इसके पेस से कोई गुरेज़ नहीं है और ये एक ठहराव वाली फ़िल्म है. मेरे लिए इसकी सबसे बड़ी ख़ूबी है एक पिता और बेटे का रिश्ता जो फ़िल्म के साथ पनपता है. इसके अलावा इसकी दूसरी सबसे बड़ी ख़ूबी है इसकी कास्टिंग. सैफ़, शेफ़ के किरदार में बिल्कुल फ़िट हैं और उन्होंने अच्छा अभिनय किया है साथ ही बेहतर टाइमिंग की वजह से कई जगह वो आपको हंसाते भी हैं. यहां पद्मप्रिया की जितनी तारीफ़ की जाए उतनी कम है. बड़ी ही सहज अभिनेत्री हैं, उनकी डायलॉग डिलिवरी हो या एक्सप्रेशन, बिना ज़्यादा कोशिश किए पर्दे पर बहुत कुछ कह जाती हैं. वहीं चंदन रॉय सानयाल, मिलिंद सोमन और स्वर कांबले का भी फ़िल्म में अच्छा काम है. फ़िल्म का संगीत रूह को सुकून पहुंचाने वाला है. भारतीय संस्कृति जिस तरह खाने में प्यार के ज़ायके की बात करती है ठीक उसी तरह शेफ़ का भी यही संदेश है. फ़िल्म के कई मोमेंट्स के साथ आप जुड़ पाएंगे और कुछ सीन आपका मनोरंजन भी करेंगे. मेरी रेटिंग इस फ़िल्म के लिए है 3 स्टार्स.
VIDEO: आशा भोसले ने मैडम तुसाद म्यूजियम में अपनी मोम की प्रतिमा का अनावरण किया
...और भी हैं बॉलीवुड से जुड़ी ढेरों ख़बरें...
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