पर्यावरण अनदेखी का खामियाजा भुगतने को रहें तैयार
पर्यावरण को विकृत व दूषित करने वाली समस्त स्थितियों तथा कारणों के लिए हम मानव उत्तरदायी हैं. हताशा बढ़ती जनसंख्या की आवास तथा बेकारी की समस्या को दूर करने के लिए जंगलों, हरे-भरे खेतों, बाग-बगीचों को काटा जा रहा है. नगरों महानगरों में गंदगी का ढेर बन गया है. बड़े-बड़े कल-कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला विषैला दुआं, रेलगाड़ी व अन्य मोटर वाहनों के पाइपों और इंजनों से निकलने वाली गैसें, रसायनों की गंध व कचड़ा, अवशिष्ट रासायनिक पानी परमाणु भट्ठियों से निकलने वाले जहरीले तत्व से वायु तथा जल प्रदूषित हो रहा है.
असंतुलित हो गया है पर्यावरण
प्रकृति हो या मानव जीवन समाज हो अथवा देश, सभी की उचित स्थिति सुख-समृद्धि तभी तक रह सकती है, जब तक उनमें पर्याप्त संतुलन बना रहे. लेकिन कुछ सालों से पर्यावरण पूरी तरह से असंतुलित हो गया है. पर्यावरण दिवस मनाने के मायने क्या हैं, इसको समझना अब इसलिए भी जरूरी हो गया है कि इस दिवस के मौके पर केंद्र सरकार व राज्य सरकारों की ओर से पर्यावरण को बचाने के लिए तमाम योजनाओं का श्रीगणेश किया जाता है. पर, दूसरे दिन भुला दिए जाते हैं, जिसके चलते इस मुहिम का नतीजा कुछ नहीं निकलता और सभी योजनाएं दम तोड़ देती हैं. यह सब देखकर तो लगता है कि पर्यावरण दिवस सिर्फ परंपरा के तौर पर ही मनाया जाता है.
उपभोग के लिए नहीं है पृथ्वी पर मौजूद हर चीज
प्रकृति ने पृथ्वी पर जीवन के लिये प्रत्येक जीव के सुविधानुसार उपभोग संरचना का निर्माण किया है. परन्तु मनुष्य ऐसा समझता है कि इस पृथ्वी पर जो भी पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, नदी, पर्वत व समुद्र आदि हैं वे सब उसके उपभोग के लिये हैं और वह पृथ्वी का मनमाना शोषण कर सकता है. यद्यपि इस महत्वाकांक्षा ने मनुष्य को एक ओर उन्नत और समृद्ध बनाया है तो दूसरी ओर कुछ दुष्परिणाम भी प्रदान किये हैं, जो आज विकराल रूप धारण कर हमारे सामने खड़े हैं. वर्षाजल के भूमि में न समाने से जलस्रोत सूख रहे हैं. नतीजतन, सैकड़ों की संख्या में गांवों को पेयजल किल्लत से जूझना पड़ रहा है तो सिंचाई के अभाव में हर साल परती भूमि का रकबा बढ़ रहा है. नमी के अभाव में जंगलों में हर साल ही बड़े पैमाने पर लगने वाली आग से वन संपदा तबाह हो रही है.
खतरे में पड़ गया है नदियों का वर्चस्व
जल ही जीवन है और इसके बगैर जिंदगी संभव नहीं लेकिन इसके अथाह दोहन ने जहां कई तरह से पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है. कुछ साल पहले कई विशाल जलाशय बनाए गए थे. इनको सिंचाई, विद्युत और पेयजल की सुविधा के लिए हजारों एकड़ वन और सैंकड़ों बस्तियों को उजाड़कर बनाया गया था, मगर वे भी अब दम तोड़ रहे हैं. केंद्रीय जल आयोग ने इन तालाबों में जल उपलब्धता के जो ताजा आंकड़े दिए हैं, उनसे साफ जाहिर होता है कि आने वाले समय में पानी और बिजली की भयावह स्थिति सामने आने वाली है. इन आंकड़ों से यह साबित होता है कि जल आपूर्ति विशालकाय जलाशयों (बांध) की बजाए जल प्रबंधन के लघु और पारंपरिक उपायों से ही संभव है, न कि जंगल और बस्तियां उजाड़कर. बड़े बांधों के अस्तित्व में आने से एक ओर तो जल के अक्षय स्रोत को एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवाहित रखने वाली नदियों का वर्चस्व खतरे में पड़ गया है.
कम हो रहा है जलाशयों में पानी
देश के 76 विशाल और प्रमुख जलाशयों की जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग द्वारा कुछ साल पहले तालाबों की जल क्षमता के जो आंकड़े दिए हैं, वे बेहद गंभीर हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक 20 जलाशयों में पिछले दस वर्षों के औसत भंडारण से भी कम जल का भंडारण हुआ है. गौरतलब है कि दिसंबर 2005 में केवल 6 जलाशयों में ही पानी की कमी थी, जबकि फरवरी की शुरुआत में ही 14 और जलाशयों में पानी की कमी हो गई है. इन 76 जलाशयों में से जिन 31 जलाशयों से विद्युत उत्पादन किया जाता है.
पानी की कमी के चलते विद्युत उत्पादन में लगातार कटौती की जा रही है. जिन जलाशयों में पानी की कमी है, उनमें उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध व रिहन्द, मध्य प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राण प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय शामिल हैं. चार जलाशय तो ऐसे हैं जो पिछले कुछ साल से लगातार पानी की कमी के कारण लक्ष्य से भी कम विद्युत उत्पादन कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश के रिहंद जिले के जलाशय की स्थापित क्षमता 399 मेगावाट है. इसके लिए अप्रैल 2005 से जनवरी 2006 तक 93.8 करोड़ यूनिट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन वास्तविक उत्पादन 84.7 करोड़ यूनिट ही हो सका.
बढ़ सकती हैं प्राकृतिक आपदाएं
मध्य प्रदेश के गांधी सागर में भी इसी अवधि के लक्ष्य 23.5 करोड़ यूनिट की तुलना में मात्र 12.8 करोड़ यूनिट और राजस्थान के राणा प्रताप सागर में 27.1 करोड़ यूनिट के लक्ष्य की तुलना में सिर्फ 20.3 करोड़ यूनिट विद्युत का उत्पादन हो सका. अगर इस समस्या पर समय रहते गौर नहीं किया गया तो पूरे राष्ट्र को जल, विद्युत और न जाने कौन-कौन सी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा, जिनसे निपटना सरकार और प्रशासन के सामथ्र्य की बात नहीं रह जाएगी.
धुएं में खोता जा रहा है विश्व
दैवीय पृथ्वी पर प्रकृति शोभा के लिये पर्यावरण की सुरक्षा विकास का एक अनिवार्य भाग है. पर्यावरण की समुचित सुरक्षा के अभाव में विकास की क्षति होती है. इस क्षति के कई कारण हैं. यांत्रिकीकरण के फलस्वरूप कल-कारखानों का विकास हुआ. उनसे निकलने वाले उत्पादों से पर्यावरण का निरन्तर पतन हो रहा है. कारखानों से निकलने वाले धुएं से कार्बन मोनो ऑक्साइड और कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी गैसें वायु में प्रदूषण फैला रही हैं, जिससे आंखों में जलन, जुकाम, दमा तथा क्षयरोग आदि हो सकते हैं.
दिसम्बर 1984 की भोपाल गैस रिसाव त्रासदी के जख्म अभी भी भरे नहीं हैं. वर्तमान में भारत की जनसंख्या एक अरब से ऊपर तथा विश्व की छह अरब से अधिक पहुंच गई है. इस विस्तार के कारण वनों का क्षेत्रफल लगातार घट रहा है, 10 साल में लगभग 24 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र समाप्त हो गया है. नाभिकीय विस्फोटों से उत्पन्न रेडियोएक्टिव पदार्थो से पर्यावरण दूषित हो रहा है. अस्थि कैंसर, थायरॉइड कैंसर, त्वचा कैंसर जैसी घातक बीमारियां हो रही हैं. पर्यावरण सम्बन्धी अनेक मुद्दे आज विश्व की चिन्ता का विषय हैं.
न्यूज एजेंसी आईएएनएस से इनपुट
असंतुलित हो गया है पर्यावरण
प्रकृति हो या मानव जीवन समाज हो अथवा देश, सभी की उचित स्थिति सुख-समृद्धि तभी तक रह सकती है, जब तक उनमें पर्याप्त संतुलन बना रहे. लेकिन कुछ सालों से पर्यावरण पूरी तरह से असंतुलित हो गया है. पर्यावरण दिवस मनाने के मायने क्या हैं, इसको समझना अब इसलिए भी जरूरी हो गया है कि इस दिवस के मौके पर केंद्र सरकार व राज्य सरकारों की ओर से पर्यावरण को बचाने के लिए तमाम योजनाओं का श्रीगणेश किया जाता है. पर, दूसरे दिन भुला दिए जाते हैं, जिसके चलते इस मुहिम का नतीजा कुछ नहीं निकलता और सभी योजनाएं दम तोड़ देती हैं. यह सब देखकर तो लगता है कि पर्यावरण दिवस सिर्फ परंपरा के तौर पर ही मनाया जाता है.
उपभोग के लिए नहीं है पृथ्वी पर मौजूद हर चीज
प्रकृति ने पृथ्वी पर जीवन के लिये प्रत्येक जीव के सुविधानुसार उपभोग संरचना का निर्माण किया है. परन्तु मनुष्य ऐसा समझता है कि इस पृथ्वी पर जो भी पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, नदी, पर्वत व समुद्र आदि हैं वे सब उसके उपभोग के लिये हैं और वह पृथ्वी का मनमाना शोषण कर सकता है. यद्यपि इस महत्वाकांक्षा ने मनुष्य को एक ओर उन्नत और समृद्ध बनाया है तो दूसरी ओर कुछ दुष्परिणाम भी प्रदान किये हैं, जो आज विकराल रूप धारण कर हमारे सामने खड़े हैं. वर्षाजल के भूमि में न समाने से जलस्रोत सूख रहे हैं. नतीजतन, सैकड़ों की संख्या में गांवों को पेयजल किल्लत से जूझना पड़ रहा है तो सिंचाई के अभाव में हर साल परती भूमि का रकबा बढ़ रहा है. नमी के अभाव में जंगलों में हर साल ही बड़े पैमाने पर लगने वाली आग से वन संपदा तबाह हो रही है.
खतरे में पड़ गया है नदियों का वर्चस्व
जल ही जीवन है और इसके बगैर जिंदगी संभव नहीं लेकिन इसके अथाह दोहन ने जहां कई तरह से पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है. कुछ साल पहले कई विशाल जलाशय बनाए गए थे. इनको सिंचाई, विद्युत और पेयजल की सुविधा के लिए हजारों एकड़ वन और सैंकड़ों बस्तियों को उजाड़कर बनाया गया था, मगर वे भी अब दम तोड़ रहे हैं. केंद्रीय जल आयोग ने इन तालाबों में जल उपलब्धता के जो ताजा आंकड़े दिए हैं, उनसे साफ जाहिर होता है कि आने वाले समय में पानी और बिजली की भयावह स्थिति सामने आने वाली है. इन आंकड़ों से यह साबित होता है कि जल आपूर्ति विशालकाय जलाशयों (बांध) की बजाए जल प्रबंधन के लघु और पारंपरिक उपायों से ही संभव है, न कि जंगल और बस्तियां उजाड़कर. बड़े बांधों के अस्तित्व में आने से एक ओर तो जल के अक्षय स्रोत को एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवाहित रखने वाली नदियों का वर्चस्व खतरे में पड़ गया है.
कम हो रहा है जलाशयों में पानी
देश के 76 विशाल और प्रमुख जलाशयों की जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग द्वारा कुछ साल पहले तालाबों की जल क्षमता के जो आंकड़े दिए हैं, वे बेहद गंभीर हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक 20 जलाशयों में पिछले दस वर्षों के औसत भंडारण से भी कम जल का भंडारण हुआ है. गौरतलब है कि दिसंबर 2005 में केवल 6 जलाशयों में ही पानी की कमी थी, जबकि फरवरी की शुरुआत में ही 14 और जलाशयों में पानी की कमी हो गई है. इन 76 जलाशयों में से जिन 31 जलाशयों से विद्युत उत्पादन किया जाता है.
पानी की कमी के चलते विद्युत उत्पादन में लगातार कटौती की जा रही है. जिन जलाशयों में पानी की कमी है, उनमें उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध व रिहन्द, मध्य प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राण प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय शामिल हैं. चार जलाशय तो ऐसे हैं जो पिछले कुछ साल से लगातार पानी की कमी के कारण लक्ष्य से भी कम विद्युत उत्पादन कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश के रिहंद जिले के जलाशय की स्थापित क्षमता 399 मेगावाट है. इसके लिए अप्रैल 2005 से जनवरी 2006 तक 93.8 करोड़ यूनिट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन वास्तविक उत्पादन 84.7 करोड़ यूनिट ही हो सका.
बढ़ सकती हैं प्राकृतिक आपदाएं
मध्य प्रदेश के गांधी सागर में भी इसी अवधि के लक्ष्य 23.5 करोड़ यूनिट की तुलना में मात्र 12.8 करोड़ यूनिट और राजस्थान के राणा प्रताप सागर में 27.1 करोड़ यूनिट के लक्ष्य की तुलना में सिर्फ 20.3 करोड़ यूनिट विद्युत का उत्पादन हो सका. अगर इस समस्या पर समय रहते गौर नहीं किया गया तो पूरे राष्ट्र को जल, विद्युत और न जाने कौन-कौन सी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा, जिनसे निपटना सरकार और प्रशासन के सामथ्र्य की बात नहीं रह जाएगी.
धुएं में खोता जा रहा है विश्व
दैवीय पृथ्वी पर प्रकृति शोभा के लिये पर्यावरण की सुरक्षा विकास का एक अनिवार्य भाग है. पर्यावरण की समुचित सुरक्षा के अभाव में विकास की क्षति होती है. इस क्षति के कई कारण हैं. यांत्रिकीकरण के फलस्वरूप कल-कारखानों का विकास हुआ. उनसे निकलने वाले उत्पादों से पर्यावरण का निरन्तर पतन हो रहा है. कारखानों से निकलने वाले धुएं से कार्बन मोनो ऑक्साइड और कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी गैसें वायु में प्रदूषण फैला रही हैं, जिससे आंखों में जलन, जुकाम, दमा तथा क्षयरोग आदि हो सकते हैं.
दिसम्बर 1984 की भोपाल गैस रिसाव त्रासदी के जख्म अभी भी भरे नहीं हैं. वर्तमान में भारत की जनसंख्या एक अरब से ऊपर तथा विश्व की छह अरब से अधिक पहुंच गई है. इस विस्तार के कारण वनों का क्षेत्रफल लगातार घट रहा है, 10 साल में लगभग 24 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र समाप्त हो गया है. नाभिकीय विस्फोटों से उत्पन्न रेडियोएक्टिव पदार्थो से पर्यावरण दूषित हो रहा है. अस्थि कैंसर, थायरॉइड कैंसर, त्वचा कैंसर जैसी घातक बीमारियां हो रही हैं. पर्यावरण सम्बन्धी अनेक मुद्दे आज विश्व की चिन्ता का विषय हैं.
न्यूज एजेंसी आईएएनएस से इनपुट
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